अहो रूपम, अहो ध्वनि!

रवीन्द्र दास की शुरू की दो, और आख़िरी की दो लाइनों की याद गुरुवार शाम अनहद आती रही। संसद में थकाऊ और लंबे भाषण पर मोदी मन भाये वाले सभासद थक नहीं रहे थे;

Update: 2023-08-12 02:06 GMT

- पुष्परंजन

सवाल तीन थे। पहला, मणिपुर में हिंसा भड़कने के तीन महीने बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर क्यों नहीं गए? दूसरा, मणिपुर पर बोलने के लिए प्रधानमंत्री को 80 दिन क्यों लगे? और तीसरा, प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह को बर्खास्त क्यों नहीं किया? मोदी ने किसी का उत्तर नहीं दिया।

बकवास करो
हर बार करो - गर बिकता है।
बेबात हँसो,
बकवास करो।

रवीन्द्र दास की शुरू की दो, और आख़िरी की दो लाइनों की याद गुरुवार शाम अनहद आती रही। संसद में थकाऊ और लंबे भाषण पर मोदी मन भाये वाले सभासद थक नहीं रहे थे। दूसरी ओर सोशल मीडिया पर समर्थन कम और लानत का समां अधिक बंधा हुआ था। संसद में कभी मेज का थपथपाना, तो कभी 'मोदी-मोदी' के नारे को चुनावी मंच बना चुके थे ट्रेजरी बेंच पर विराजे महानुभाव। मणिपुर पर प्रधानमंत्री जब बोल रहे थे, उस अभागे प्रांत से एक ख़बर आई, जिसे एजेंसियों ने सत्रावसान के बाद चलने दी। ख़बर थी, सामूहिक बलात्कार की। आजकल सामूहिक बलात्कार, मॉब लिचिंग की ख़बरें सन्नाटे को चीर नहीं पाती। सुनने वालों के कानों, दिलो-दिमाग़ से गुज़र जाती हैं ऐसी ख़बरें। हमारी इंद्रियों को स्मार्ट फोन ने इंगेज कर रखा है। अधिकांश की आत्मा मर चुकी है। विगत दस वर्षों में नेटीजंस की जो पौध झाड़-झंखाड़ की तरह उग आई, उनमें संवेदना को कुंद करने का काम बड़े पैमाने पर हुआ है।

प्रधानमंत्री मोदी इन दिनों अदालत से प्रसन्न नहीं दीखते। संसद में उनके एक वाक्य से न्यायालय के प्रति उनकी जुगुप्सा यों जाहिर हुई, 'मणिपुर पर अदालत का फैसला आया। अब अदालतों में क्या हो रहा है, ये हम जानते हैं।' प्रधानमंत्री अदालत से नाखुश केवल मणिपुर में आदिवासी समुदाय को आरक्षण और उसके बाद बेकाबू दावानल से नहीं हैं, राहुल गांधी के लिए संसद में वापसी का रास्ता सुप्रीम कोर्ट के बज़रिये जिस तरह प्रशस्त हुआ, वह सबसे अधिक कष्ट का कारण है।

मोदी ने संभवत: सोचा नहीं था कि रावण, विभीषण, कुंभकरण शब्दों के माध्यम से संसद में साक्षात किये जाएंगे। ठीक से देखा जाए तो संसद में राहुल का सर्वाधिक सशक्त और मारक 'सर्जिकल स्ट्राइक' रहा है। ट्रेजरी बेंच में तिलमिलाहट से साफ नज़र आ रहा था कि राहुल के शब्दभेदी वाण से वो आहत हैं। अक्सर मुस्कुराते रहने और निश्चिंत भाव-भंगिमा वाले लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला को पहली बार देश ने ग़ुस्से में देखा। आसन पर बेचैनी से करवटें बदलते देखकर उनकी असहज स्थिति का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता था।

गुरूवार को विश्व गुरू के बोलने से पहले पूरे देश को यही अंदाज़ा था कि 'इंडिया' और ख़ुसूसन राहुल गांधी पर वो अग्निवाण छोड़ेंगे। राहुल को शब्दों से वो वेध देंगे। मगर, मालूम नहीं क्यों मोदी के शब्द फुस्स फुलझरी साबित हुए। अब संभवत: लालकि़ले के प्राचीर से प्रधानमंत्री शब्दों के गोले दागें। लेकिन कितना भी अच्छा नाचने वाला मोर जब अपने पैरों की ओर देखता है, थम जाता है। मणिपुर भी मोर के पांव की तरह पीएम मोदी के पादुका में प्रत्यारोपित हो चुका है। मोदी ने तो शायद मणिपुर पर चुप रहने की ठान ली थी, मगर विपक्ष की व्यूह रचना ने उन्हें बोलने पर विवश कर दिया। मणिपुर पर मोदी क्या विपक्ष के बायकॉट का इंतज़ार कर रहे थे?

लोकसभा में देश के प्रधानमंत्री के बयानों पर मुलाहिज़ा कीजिए, 'महिलाओं के साथ गंभीर अपराध हुए। यह अपराध अक्षम्य है। दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाने के लिए हम भरपूर प्रयास कर रहे हैं। जिस प्रकार से प्रयास चल रहे हैं, निकट भविष्य में शांति का सूरज जरूर उगेगा। मणिपुर फिर एक बार नए आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ेगा। मैं मणिपुर के लोगों से भी आग्रहपूर्वक कहना चाहता हूं। वहां की माताओं, बहनों, बेटियों से कहना चाहता हूं- देश आपके साथ है। यह सदन आपके साथ है। हम सब मिलकर इस चुनौती का समाधान निकाल लिया, वहां शांति की स्थापना होगी। मणिपुर फिर विकास की राह पर तेज गति से आगे बढ़ेगा। प्रयासों में कोई कसर बाकी नहीं रहेगी।'

लेकिन सरकार से ग़लतियां हुईं। पूरा सिस्टम फेल कर गया। क़ानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ीं, यह क्यों नहीं स्वीकार करते प्रधानमंत्री मोदी? म्यांमार से 1643 किलोमीटर सीमा पूर्वोत्तर के चार राज्यों अरूणाचल प्रदेश, नगालैंड, मणिपुर और मिज़ोरम साझा करते हैं। मणिपुर के पांच ज़िले 400 किलोमीटर लंबी म्यांमार सीमा से लगे हैं। इसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी क्या कांग्रेस के हवाले कर रखी है अमित शाह और राजनाथ सिंह ने? दंगाग्रस्त मणिपुर संभाल नहीं पा रहे हैं, ठीकरा फोड़ रहे हैं कांग्रेस पर। अमित शाह ने संसद में कहा, 'मैं विपक्ष की इस बात से सहमत हूं कि वहां हिंसा का तांडव हुआ है। हम मानते हैं कि जो हुआ है वो शर्मनाक है, लेकिन उस पर राजनीति करना उससे भी शर्मनाक है।'

सबसे बड़ी बात जवाबदेही की है। मणिपुर में फोर्स की तैनाती का आदेश जिस मंत्री ने दिया, यदि वहां शांति स्थापना में विफल हो जाता है, तो इस विफलता का जिम्मा कांग्रेस पर नहीं थोप सकते। अमित शाह का मणिपुर घूमकर आना इतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि वहां शांति बहाली। फिर तो यह भी पॉलिटिकल टूरिज़म हुआ। कल तक आपकी जो सांसद, प्रवक्ता इम्फाल में मणिपुरी नृत्य कर रहे थे, आज सीन से क्यों ग़ायब हैं? स्मृति ईरानी को राहुल गांधी की फ्लाइंग किस पर पीड़ा हो रही है, लेकिन मणिपुर में सामूहिक बलात्कार की लगातार हो रही घटनाओं से कोई कष्ट नहीं हो रहा। सत्ता के अहंकार ने स्मृति जैसी महिलाओं को कैसे काठ कलेजा कर दिया?
मणिपुर के संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा पोषित-पल्लवित राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) की भूमिका भी पीड़ादायक है। जनवरी 1992 में बनी इस संस्था का गठन देशभर में महिलाओं पर हो रहे ज़ुल्मों-सितम को रोकना, जेंडर जागरूकता, पीड़ित महिलाओं की खोज ख़बर लेने के उद्देश्य से किया गया था। महिलाओं के विरूद्ध हिंसा, यौन उत्पीड़न करने वालों को कहीं से नहीं बख्शना, महिला सशक्तीकरण जैसे लक्ष्यों को लेकर बनी संस्था क्या वाकई मणिपुर के संदर्भ में कुछ कर पाई? 19 जनवरी, 2023 के बाद एनसीडब्ल्यू की किसी भी गतिविधि की सूचना इनके पोर्टल पर नहीं है।

राष्ट्रीय महिला आयोग कांग्रेस के समय जैसा था, आज भी लगभग वैसा ही है। बस, किरदार बदल गये हैं। 2 अक्टूबर, 1994 को रामपुर तिराहा रेप कांड की शिकार औरतों को ढूंढने मैं ऊखी मठ पहुंच गया था, तब राष्ट्रीय महिला आयोग की एक टीम चमोली ज़िले के पिंडर में फूलों की घाटी की सैर करने गई थी। शायद कुछ और पत्रकार अनुभव साझा करें। सालाना बजट का मोटा पैसा राष्ट्रीय महिला आयोग जैसे महकमे पर ख़र्च होता है, लेकिन उसके परिणाम निकलकर क्या आते हैं, उसकी साक्षात नज़ीर हैं मणिपुर की औरतें।

म्यांमार लंबे समय से उपद्रवग्रस्त रहा है। फरवरी 2012 से अप्रैल 2023 तक म्यामांर में 600 से अधिक हमले हो चुके है, जिसमें 6337 लोग मारे जा चुके हैं। इन इलाकों से विस्थापन सबसे पहले भारत का पूर्वोत्तर भुगतता है। लाओस, थाईलैंड, चीन से लगे म्यांमार की सीमाएं भारतीय हिस्से में जिधर से जुड़ी हैं, उसका बड़ा हिस्सा अब भी बाड़बंदी का इंतज़ार कर रहा है। हथियार, ड्रग ट्रैफिकिंग, अवैध आव्रजन इस सीमा से बड़े स्केल पर होते रहे हैं, इसका पता दिल्ली में बैठे सुरक्षा महकमों के शिखर नौकरशाहों को है।

मोरेह सीमा से इम्फाल केवल 110 किलोमीटर की दूरी पर है। मणिपुर के 160 रिलीफ कैंपों में म्यांमार से विस्थापित 30 हज़ार 500 शरणार्थी रह रहे हैं। देश के गृहमंत्री का कहना था कि जो लोग इन शरणार्थी कैम्पों में हैं, वही फितना फैला रहे हैं। यह कैसे संभव है कि सुरक्षा बलों और कैमरे की निगरानी के बावज़ूद शरणार्थी कैंपों के लोग दंगा-फसाद, बलात्कार करें? सच छुपाते रहिए, और ठीकरा उस पर फोड़िये जो निरीह प्राणी है, आपका वोट बैंक नहीं है। यही सब मणिपुर के प्रयोगशाला में हो रहा है।

सबसे मुश्किल फैसला केंद्रीय गृह मंत्रालय का था, जिसके तहत मणिपुर में असम राइफल्स की तैनाती की गई थी। आज उस तैनाती को लेकर मैतेई-नगा और कुकी समुदाय के विधायक आमने-सामने हैं। पहले मैतेई और नगा समुदाय के 40 विधायकों ने प्रधानमंत्री से असम राइफल्स की सभी यूनिटों को बदल कर उनकी जगह दूसरे केंद्रीय बलों की तैनाती की मांग की। इसके पश्चात कुकी-जोमी समुदाय से जुड़े दस विधायकों ने पीएमओ को पत्र लिखकर कहा है कि असम राइफल्स की यूनिटों को यहीं रहने दिया जाए। बीजेपी के सांसद दिल्ली में शायद एक दिखें, मगर दुर्भाग्य देखिए ये मणिपुर में बंटे हुए हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि नागरिक-प्रशासन शांति बहाली में विफल रहा है, तो मणिपुर को कुछ महीनों के लिए संपूर्ण रूप से सेना के हवाले क्यों नहीं कर देते? यह उस सिंड्रोम से बाहर नहीं निकल पा रहे कि शांति स्थापना का श्रेय प्रतिरक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को क्यों दें?

संसद में प्रतिपक्ष ने मणिपुर के हवाले से प्रधानमंत्री मोदी से जो सवाल पूछा था, क्या पीएम मोदी उसका उत्तर दे पाये? जवाब नहीं में है। सवाल तीन थे, जिसे कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई ने पूछा था। पहला, मणिपुर में हिंसा भड़कने के तीन महीने बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मणिपुर क्यों नहीं गए? दूसरा, मणिपुर पर बोलने के लिए प्रधानमंत्री को 80 दिन क्यों लगे? और तीसरा, प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह को बर्खास्त क्यों नहीं किया?
राजनीति का साधारण ज्ञान रखने वाले इस देश के नागरिक तक को पता था कि अविश्वास प्रस्ताव लोकसभा में गिर जाना है। सीधी सी बात थी मणिपुर पर मोदी का मौन व्रत तुड़वाना था। सामूहिक बलात्कार, नरसंहार पर बेहिस-बेग़ैरत सरकार को संसद के ज़रिये एक्सपोज करना था, तो अविश्वास प्रस्ताव ही एक रास्ता बचा था, जिसपर व्यापक बहस होती। लेकिन हुआ क्या? एक ऊंट की शादी हो रही थी। शादी में गधे गीत गा रहे थे। गधों ने ऊंट के रूप की बड़ाई करते हुए कहा, 'अहो रूपम' अर्थात, 'आप क्या लग रहे हैं!' ऊंट ने भी शिष्टाचार धर्म का पालन करते हुए कहा, 'अहो ध्वनि' अर्थात 'क्या आवाज है आपकी!'
pushpr1@rediffmail.com

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