पाप-पुण्य के रजिस्ट्रार चित्रगुप्त की भूमिका में नरेन्द्र मोदी
पाप-पुण्य की अवधारणा पूरी दुनिया में है। इसका उद्गम धर्म है। प्रकारान्तर से हर धर्म ने पाप क्या है और पुण्य क्या है;
- डॉ. दीपक पाचपोर
मोदीजी को इसलिये पाप-पुण्य के पीछे जाकर इस योजना के बाबत लोगों को बताना पड़ा है क्योंकि कुछ अर्से तक तो लोगों ने इसे सुना क्योंकि मोदी इसका बहुत प्रचार करते रहे थे। अब विपक्ष ने इस योजना को लेकर मोदी की कड़ी आलोचना शुरू की है। कई नेताओं ने सवाल करने शुरू किये कि क्या मोदी यह राशन अपने खर्च पर लोगों को दे रहे हैं। लोग यह भी जान गये कि देश में खाद्यान्न भंडार अगर भरे हुए हैं तो यह वर्षों की किसानों की कड़ी मेहनत और पूर्ववर्ती सरकारों की देन है
पाप-पुण्य की अवधारणा पूरी दुनिया में है। इसका उद्गम धर्म है। प्रकारान्तर से हर धर्म ने पाप क्या है और पुण्य क्या है, इसकी व्याख्याएं अपने-अपने हिसाब से की हैं। जब तक समाज आधुनिक नहीं था तब तक लोगों के अच्छे-बुरे कर्मों की शिनाख्त उस समाज को चलाने वाले धर्म और उसके पुरोहितों व श्रेष्ठी वर्ग के हाथ में थी। यह वर्ग तय करता था कि किसने पाप किये हैं और किसने पुण्य। पापियों को सजा देने और पुण्यकर्मियों को पुरस्कृत करने का काम राजा का होता था। दुनिया का इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है कि सजाओं और पुरस्कार की व्यवस्था में एकरूपता नहीं रही। राज्यों के शासकों के विचारों व उनकी मान्यताओं के अनुसार न्याय व्यवस्थाएं बदलती रही हैं। किसी देश में एक राजा की सत्ता जाने के बाद जब दूसरा राजा गद्दी पर बैठता था तो उस देश की पूरी व्यवस्था बदल जाती थी। यहां तक कि पुत्रों की शासन प्रणाली अपने पिता से अलग किस्म की हुआ करती थी। असली बात यह है कि किसी भी राज्य की न्याय प्रणाली राजा के व्यक्तिगत मत तथा उन्हें प्रभावित करने वाले पुरोहितों, मंत्रियों एवं सेनापतियों के माध्यम से बनती-बिगड़ती रही है। कई बार तो एक धर्म को मानने वाले राजा के पतन के बाद जो अगला गद्दीनशीन होता था उसकी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप रातों-रात शासन प्रणाली ढल जाती थी।
इस व्यवस्था में अनेक दोष थे। पहला तो यही कि मान्यताएं समय-समय पर बदलती रहती थीं। दूसरे यह कि सबके लिये कानून अलग-अलग थे जो पाप व पुण्य का निर्धारण करते हों। तीसरे, अपराधों की व्याख्या भी निश्चित नहीं होती थी। शासकों ने जैसा सोच लिया, वही अंतिम सत्य मान लिया जाता था जिसके खिलाफ न तो सुनवाई हो सकती थी और न ही पुनर्विचार। इस गड्डमड्ड और व्यक्तिगत या कोटरी की सनक से परिचालित न्याय प्रणाली को शनै: शनै: एक सुसंगठित शासन प्रणाली ने स्थानापन्न किया। मध्ययुग से आधुनिक काल आने में ढाई-तीन सौ साल लग गये। लोकतांत्रिक रूप से परिपक्वता हासिल कर चुके देशों में तो इस आधुनिक प्रणाली का प्रकाश जगमगा रहा है लेकिन अनेक देश अब भी मध्ययुग में जी रहे हैं। उसके लिये कहीं अब भी जारी राजतंत्र जिम्मेदार है तो कहीं धर्मराज्य। कहीं सामंती व्यवस्था तो कहीं सामाजिक कारण। भारत को डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर का वरदान है जिन्होंने सामंतवादी सामाजिक व्यवस्था के बावजूद रातों-रात एक ऐसी शासन प्रणाली देशवासियों को सौपी जिसके चलते वे 'मूक प्रजा' से 'अधिकार सम्पन्न नागरिक' बन गये। न केवल शासन प्रणाली बदली वरन समानता, स्वतंत्रता एवं बन्धुत्व के मूल्यों को संविधान में अंतगुंफित किया गया। यह संविधान एक सुव्याख्यायित व सुपरिभाषित है जिसमें कहीं कोई भ्रम या उलझाव नहीं है। उधर स्वतंत्रता मिलते-मिलते अंग्रेजी शासन व्यवस्था ने भारत में अपराध व न्याय संहिता को भी विकसित व लागू कर ही दिया था।
अब देश की लोकतांत्रिक प्रणाली में पाप-पुण्य के लिये जगह बची ही कहां रह गयी है? वैसे भी समाजशास्त्रियों के अनुसार जब तक संगठित कानून नहीं था तब तक लोगों को भयभीत करने और लालच देने के लिये इसका निर्माण हुआ था। ऐसे में समझना होगा कि जब आधुनिक मानकों पर खरी उतरती हुई एक स्वतंत्र और ज्यादातर निष्पक्ष न्यायपालिका है तब भला देश के सर्वोच्च पद पर विराजे हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लोगों को पाप-पुण्य के आधार पर उन्हें वोट देने के लिये प्रेरित करने की ज़रूरत क्यों आन पड़ी? तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने को आतुर मोदी ने लोकसभा चुनाव के लिये एक प्रचार सभा में जो कहा उसका आशय यह था कि कोरोना काल के बाद शुरू की गयी योजना के अंतर्गत 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देकर उन्होंने पुण्य कमाया है। उन्हें वोट देने से लोगों को पुण्य मिलेगा। अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने कह दिया कि जो उन्हें वोट नहीं देगा वह पाप का भागीदार बनेगा। एक तरह से वे लोगों को याद दिलाना चाहते थे कि उन्होंने लोगों के लिये 5 किलो निशुल्क राशन की योजना लाई है जो अगले 5 वर्षों तक जारी रहेगी। यह एक तरह से एहसान जताने जैसा ही है।
मोदीजी को इसलिये पाप-पुण्य के पीछे जाकर इस योजना के बाबत लोगों को बताना पड़ा है क्योंकि कुछ अर्से तक तो लोगों ने इसे सुना क्योंकि मोदी इसका बहुत प्रचार करते रहे थे। अब विपक्ष ने इस योजना को लेकर मोदी की कड़ी आलोचना शुरू की है। कई नेताओं ने सवाल करने शुरू किये कि क्या मोदी यह राशन अपने खर्च पर लोगों को दे रहे हैं। लोग यह भी जान गये कि देश में खाद्यान्न भंडार अगर भरे हुए हैं तो यह वर्षों की किसानों की कड़ी मेहनत और पूर्ववर्ती सरकारों की देन है जिन्होंने हरित क्रांति जैसी विभिन्न योजनाओं के जरिये देश को खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर ही नहीं बनाया वरन युद्ध या किसी प्रकृतिक आपदा के अंतर्गत अगर देश में उत्पादन घटे या न हो तो भी देशवासियों के भूखों मरने की नौबत न आए। दूसरे, लोग यह भी जान गये कि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने ही नागरिकों को भोजन का अधिकार दिया था। मोदी को 5 किलो मुफ्त राशन का ढिंढोरा पीटने में अड़चन आने लगी जब कांग्रेस ने ऐलान किया कि उनकी सरकार बनी तो हर माह 10 किलो राशन निशुल्क दिया जायेगा। भाजपा के पास इसका तोड़ नहीं है।
मोदी के ही साथ पूरी भारतीय जनता पार्टी को परेशानी इसलिये भी है क्योंकि उनका यह अनुमान गलत निकला कि महंगाई व बेरोजगारी के मुद्दे राममंदिर के कारण दब जायेंगे। ऐसा हुआ नहीं। उल्टे, ये मसले लोगों की चिंताओं का सबब और किसी के पक्ष में वोट डालने के लिहाज से विचार करने के प्रमुख आधार बन गये। बामुश्किल 6 प्रतिशत के लिये ही अयोध्या का राममंदिर महत्वपूर्ण मुद्दा है। यह शायद वह सिलेबस था जिसकी तैयारी मोदी एवं उनकी पार्टी ने परीक्षा हॉल यानी चुनावी अखाड़े में आने के पहले बिलकुल नहीं की थी। मोदी का वह पैंतरा भी काम आता नहीं दिख रहा है जिसमें वे हिन्दू-मुस्लिम कर धु्रवीकरण करें और बाजी मार ले जायें। हालांकि अब भी वे इसकी कोशिशें कर रहे हैं। कभी वे कहते हैं कि 'कांग्रेस के घोषणापत्र (न्याय पत्र) पर मुस्लिम लीग की छाया है' तो कभी कहते हैं कि 'कांग्रेस की सरकार जनता से सोना लेकर कई बच्चों वाले (मुस्लिम) को बांट देगी।' या फिर 'इंडिया वाले मंगलसूत्र छीनकर मुसलमानों को दे देंगे।' मोदी के भाषण धु्रवीकरण के एजेंडे के बिना पूरे नहीं होते। अपनी प्रचार सभाओं या साक्षात्कारों में विकास को लेकर वे कोई बात नहीं करते। उनका फोकस जहां हिन्दू वोटों के धु्रवीकरण पर रहा वहीं इंडिया ने उनकी पिच पर जाने से इंकार करते हुए रोजी-रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के मुद्दे सत्यता व सघनता से उठाये।
लोकसभा का एक ही चरण बचा रह गया है जिसमें 57 सीटों पर 1 जून को मतदान होगा। वाराणसी की सीट भी है जिस पर खुद मोदी तीसरी बार प्रत्याशी हैं। स्थानीय एवं राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर कांग्रेस समेत इंडिया सक्रिय है। इतना ही नहीं, विपक्षी गठबन्धन ताकतवर बन चुका है। उनके कई नेताओं को जेल में डालने और वित्तीय संसाधनों की कमी के बावजूद वह भाजपा का डटकर मुकाबला कर रहा है। ऐसे में मोदी चित्रगुप्त बनकर मतदाताओं को उनके पाप-पुण्य गिनाते हुए मतदान केन्द्रों तक ठेलने की कोशिश करें तो आश्चर्य नही।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)