मोदी का एक ही सपना : मुस्लिम बहुल राज्य में अपनी सरकार बनाने का

जम्मू-कश्मीर के मामले में हर प्रधानमंत्री का रोल ऐसा ही होता था। देश हित सबसे पहले;

Update: 2024-09-30 08:42 GMT

- शकील अख्तर

जम्मू-कश्मीर के मामले में हर प्रधानमंत्री का रोल ऐसा ही होता था। देश हित सबसे पहले। जनता पार्टी के लोग उस चुनाव में 1977 के बड़ी तादाद में चुनाव लड़े थे। मगर केन्द्र सरकार और राज्य प्रशासन की उन्हें कोई मदद नहीं मिली। नतीजा शेख अब्दुल्ला ने 76 में से 47 सीटें जीतकर सरकार बनाई। जनता पार्टी 13 सीटों पर जीती। कांग्रेस से ज्यादा। कांग्रेस को केवल 11 मिलीं।

तोजो हमारी शंका थी उसी के अनुरूप प्रधानमंत्री मोदी ने जम्मू-कश्मीर में अपनी आखिरी सभा में दावा कर ही दिया। हालांकि ऐसा दावा कश्मीर को लेकर किसी प्रधानमंत्री ने कभी नहीं किया। सबने एक ही बात कही है कि पार्टी कोई भी जीते सरकार किसी की भी बने वहां जीत भारत के लोकतंत्र की होना चाहिए। नरसिम्हा राव से लेकर वाजपेयी और मनमोहन सिंह तक ने।

मगर मोदी ने शनिवार को जम्मू में कहा कि पहली बार जम्मू-कश्मीर में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनने जा रही है। हम पहले से कहते रहे हैं कि- जम्मू- कश्मीर में लगातार चुनाव टाले जाने की एक ही वजह है कि मोदी को वहां अपना मुख्यमंत्री बनाए जाने की संभावना नहीं दिख रही है।

मोदी जी कहने को तो खुद की तुलना तो नेहरू-इंदिरा की करते हैं मगर जानते हैं कि उनका फील्ड बहुत बड़ा था। इतिहास में वे उनके मुकाबले कहीं नहीं टिक पाएंगे। इसलिए वे हिन्दुत्ववादी नेताओं में सबसे बड़े बनना चाहते हैं और इसके लिए देश के एकमात्र मुस्लिम बहुल प्रदेश में अपना मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं। आडवानी संघ सबको बताना कि देखो मैंने किया!

अब यह हो पाएगा या नहीं यह अलग मुद्दा है। मगर आतंकवाद के 35 साल के दौर में मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो वहां भारत की भाषा न बोलकर अपनी पार्टी की भाषा बोल रहे हैं। आतंकवाद के दौर में पहला चुनाव 1996 में हुआ था। प्रधानमंत्री थे नरसिम्हा राव। जम्मू -कश्मीर के चुनाव के बाद उन्हें अपने लोकसभा के चुनाव करवाना थे। कश्मीर में कांग्रेस का मुख्यमंत्री बनवाने का फायदा उन्हें लोकसभा चुनाव में मिल सकता था। मगर नरसिम्हा राव ने एक बार भी वहां कांग्रेस का मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश नहीं की। फारूख अब्दुल्ला को बनवाया। सबकी सहमति थी कि कश्मीर में हालत सही करने के लिए और पाकिस्तान को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए फारूख से उपयुक्त और कोई नहीं होगा। भाजपा की भी थी। जिसके नेता उस समय वाजपेयी, आडवानी और मुरली मनोहर जोशी थे।

यहां थोड़ा सा यह और बता दें कि आतंकवाद के दौर में या उससे पहले फ्री और फेयर इलेक्शन कम होता था। दिल्ली तय करती थी और कमोबेश वैसे ही नतीजे आते थे। 1951 में जब वहां कान्स्टिट्यूशनल असेम्बली का चुनाव था तो सभी 75 सीटों पर निर्विरोध चुनाव हो रहा था। शेख अब्दुल्ला सबसे बड़े नेता थे। जब उनसे कहा गया कि चुनाव होना चाहिए। तो उन्होंने कहा कि क्या मैं पापुलर नहीं हूं? दरअसल शेख अब्दुल्ला इसके जरिए पाकिस्तान और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को जवाब देना चाहते थे कि देखो जम्मू-कश्मीर ने एक मत से भारत के समर्थन का फैसला किया है। मगर संयुक्त राष्ट्र शेख अब्दुल्ला की यह योजना समझ गया था और उसने कहा कि वह इस चुनाव को जनमत संग्रह का विकल्प नहीं मानेगा।

जब शेख साहब को यह मालूम पड़ा तो फिर उन्होंने कुछ सीटों पर चुनाव करवाया। हालांकि रिजल्ट पूरा नेशनल कांन्फ्रेंस के पक्ष में आया। और यह जम्मू-कश्मीर में चुनावों की परंपरा बन गई। कहा जाता था कि अगर शेख साहब बिजली के खंबे को भी मेन्डेट दे दें तो वह भी जीत जाएगा। जम्मू-कश्मीर में पहला फ्री एंड फेयर चुनाव 1977 में हुआ था। मोरारजी देसाई ने करवाया था। हालांकि उन्हीं के सरकार के वरिष्ठ मंत्री जिनमें गृह मंत्री चरण सिंह और सबसे सीनियर मंत्री जगजीवन राम शामिल थे इस पक्ष में नहीं थे।

उन्होंने कहा कि जैसे होते आए हैं वैसे होने दीजिए। मगर मोरार जी ने किसी की नहीं सुनी। मुख्य चुनाव आयुक्त भी कश्मीरी थे। बीएल शकधर ने उन्हें बुलाकर कहा कि एकदम स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होना चाहिए। और वैसा ही हुआ। करीब 50 साल हो गए। जम्मू-कश्मीर के लोग आज भी याद करते हैं।
तो जम्मू-कश्मीर के मामले में हर प्रधानमंत्री का रोल ऐसा ही होता था। देश हित सबसे पहले। जनता पार्टी के लोग उस चुनाव में 1977 के बड़ी तादाद में चुनाव लड़े थे। मगर केन्द्र सरकार और राज्य प्रशासन की उन्हें कोई मदद नहीं मिली। नतीजा शेख अब्दुल्ला ने 76 में से 47 सीटें जीतकर सरकार बनाई। जनता पार्टी 13 सीटों पर जीती। कांग्रेस से ज्यादा। कांग्रेस को केवल 11 मिलीं। और जमाते इस्लामी को केवल एक। जबकि पिछले विधानसभा में उसके पास पांच सीटें थीं।

कश्मीर में पाकिस्तान को सबसे पहला मौका कब मिला? 1987 के चुनाव में। यह चुनाव राजीव-फारूख समझौते के बाद हुआ था। दो सबसे बड़ी पार्टियां नेशनल कान्फ्रें स और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़े थे। मुकाबले में कई पार्टियों का एक महासंघ मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट ( मफ) बना। इस दौरान कई अलगाववादी नेता भी मुख्यधारा में आए थे। बाद में सबसे बड़े अलगाववादी और पाक समर्थक नेता बने सैयद अली शाह गिलानी ने वह चुनाव लड़ा था। और सोपोर से जीते थे। उनकी पार्टी जमाते इस्लामी के अलावा प्रो. अब्दुल गनी लोन जिनकी 2002 में आतंकवादियों ने हत्या कर दी थी, की पार्टी पीपुल्स कां्र्रफ्रेंस ने भी चुनावों में हिस्सा लिया था। मगर इस चुनाव के बारे में सबसे बड़ा आरोप है कि उसका रिजल्ट मतदान केन्द्रों में बदल दिया गया। फोन तो होते नहीं थे। लोग मतगणना अधिकारी से पूछकर बाहर जाकर अपने जीतने की घोषणा करते थे फिर वापस जब मतगणना केन्द्र में अन्दर आते थे तो उनके प्रतिद्वंद्वी को जीत का सर्टिफिकेट दिया जा चुका होता था।

जनता ने इस रिजल्ट को स्वीकार किया ही नहीं। आतंकवाद की शुरूआत यहीं से मानी जाती है। 1987 के बाद अगला चुनाव सीधे 1996 में हुआ। जो एक बहुत मुश्किल दौर था। कश्मीर के अन्दरूनी हालत को लेकर भी और अन्तरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की वजह से भी। यूएन में पाकिस्तान लगातार सवाल उठा रहा था। अमेरिका-चीन जैसे देश उसे हवा दे रहे थे। ऐसे में कश्मीर में चुनी हुई सरकार ही सबसे सटीक जवाब था। और वही 1996 में चुनाव करवा कर दिया गया।

इसके बाद का चुनाव 2002 का भी वहां ऐतिहासिक रहा। दूसरा फ्री एंड फेयर इलेक्शन माना जाता है। मोदी जी ध्यान करें। वह भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने करवाया था। उन्होंने भी कहा कि यह चुनाव किसी पार्टी की जीत-हार का नहीं है। कश्मीर में लोकतंत्र मजबूत करने का है। और नतीजा क्या रहा? उनकी पार्टी भाजपा की सहयोगी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस को हार का सामना करना पड़ा। भाजपा का एनसी से गठबंधन था।

केन्द्र की उनकी सरकार में उमर अब्दुल्ला मंत्री थे। मुफ्ती मोहम्मद सईद और कांग्रेस ने मिलकर सरकार बनाई। और केन्द्र से वाजपेयी का पूरा समर्थन रहा। पिछले चार दशकों की सबसे अच्छी सरकार। 2002 से 2005 की। मुफ्ती साहब की। कश्मीर में विश्वास की वापसी। मगर 2005 में गुलाम नबी आजाद ने मुख्यमंत्री बनकर सब किए धरे पर पानी फेर दिया। 2005 से 2008 तक असफल सरकार।

तो जम्मू-कश्मीर का चुनाव इतिहास बहुत उतार-चढ़ाव वाला रहा है। अब एक अक्टूबर मंगलवार को तीसरे फेज का मतदान भी हो जाएगा। नतीजा 8 अक्टूबर को आएगा।

क्या होगा? इस पर अब कयासबाजी की जरूरत नहीं। मगर इतना पूरा इतिहास लिखने की जरूरत इसलिए थी कि बताया जा सके कि जम्मू-कश्मीर का चुनाव दूसरे चुनावों से अलग होता है। अन्तरराष्ट्रीय मीडिया के अलावा अमेरिका सहित कई देशों के डिप्लोमेट्स आते हैं। इसी से हम पाकिस्तान के इस प्रचार का जवाब देते हैं कि देख लो यहां कोई आयरन कर्टेन ( लोहे का परदा ) नहीं है। और कश्मीर हमारे लिए पार्टी पोलटिक्स की चीज नहीं है बल्कि वहां की अवाम की इच्छाओं-आकांक्षाओं को मूर्त रूप देने की लोकतांत्रिक कोशिश है।

पहले तो हर प्रधानमंत्री ने यही किया। अब देखते हैं मोदी जी दावा तो वहां बड़ा कर आए हैं। अब क्या करते हैं!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

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