सरदार सरोवर नर्मदा में मनमानी

मोरारजी देसाई जब प्रधानमंत्री बने, तभी 10 साल बाद नर्मदा ट्रिब्यूनल का फैसला आया;

Update: 2024-09-16 08:34 GMT

- मेधा पाटकर

मोरारजी देसाई जब प्रधानमंत्री बने, तभी 10 साल बाद नर्मदा ट्रिब्यूनल का फैसला आया! सबसे अधिक बांध के- जलाशय के पानी पर अधिकार मिला, कच्छ- सौराष्ट्र जैसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों के नाम, गुजरात को ! प्रत्यक्ष में कच्छ तरस रहा, वहां पहुंची शाखा नहर से आगे माइनर नेटवर्क का निर्माण न होने से रापार जैसे एकाध तहसील के कुछ किसान छोड़कर अन्यों को नहीं मिली सिंचाई आज तक! पीने का पानी भी बेचा जाता है तो कच्छ की बहुतांश ग्राम पंचायतें नहीं खरीदती है।

पूसरदार सरोवर, नर्मदा घाटी में नियोजित 30 बड़े बांधों में से एक महाकाय बांध! इस पर विस्थापितों ने पहाड़ी- निमाड़ी और तीन राज्यों के आदिवासी, किसान, मजदूर, कारीगर, पशुपालक, मछुआरे, व्यापारी...सभी ने गठित की एकजुटता से, अपने अधिकार, कानूनी और संवैधानिक उल्लंघन आदि पर 39 सालों से किया संघर्ष आज भी जारी है! ट्रिब्यूनल के फैसले पर 45 साल बाद जब पुनर्विचार होने जा रहा है, तो उससे भी पहले देश और प्रदेश की जनता ने जाननी चाहिए हकीकत, लाभ-हानि की; ताकि सोच हो, भविष्य की!

सरदार सरोवर बांध परियोजना की लाभ हानि का टाटा की कंपनी से (टीईसीएस) जल्दबाजी में विश्व बैंक से कर्जा उठाने के लिए, कई बुनियादी डाटा उपलब्ध न होते हुए, अध्ययन करवाया गया था। तब 1983 में 4200 करोड़ रुपए की लागत आंकी थी। जबकि 6400 करोड़ रुपए की लागत को योजना आयोग की मंजूरी 1988 में मिली थी। अब गुजरात विधानसभा में प्रस्तुत हुआ है कि उस परियोजना की लागत 90,000 करोड़ रुपए तक बढ़ी है। इस परिप्रेक्ष्य में आज भी मध्यप्रदेश और गुजरात तथा महाराष्ट्र और गुजरात के बीच कई वित्तीय मुद्दों पर विवाद जारी है। सबसे गंभीर हकीकत है कि गुजरात शासन कई सारे नये प्रस्ताव रखकर मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र से बड़ी राशि वसूलना चाहती है।

मध्यप्रदेश की सरदार सरोवर की डूब में आई शासकीय भूमि और वनभूमि (जैसे, महाराष्ट्र की भी) की भरपाई की राशि करीबन 7000 करोड़ होते हुए, उसकी भी पूर्ति आज तक नहीं हुई है, जो परियोजना का हिस्सा और गुजरात का कानूनी फर्ज है! सरदार सरोवर में 192 गांव और 1 नगर को डूब में लाकर भी जलाशय के एक बूंद पर म.प्र. को नहीं है हक! तो इस महाकाय परियोजना से क्या हुआ है लाभ? कितनी भुगती है हानि राज्य ने? इस पर होगा कोई विचार या पुनर्विचार? यह दिसंबर 2024 के पहले (45 साल पूर्ति होने पर ट्रिब्यूनल फैसले पर ही पुनर्विचार जबकि नियोजित है, तो उसके पहले) होगा या नहीं, यह अहम् सवाल है!

महाराष्ट्र राज्य ने एक अवैध कार्य किया है। राज्य का विरोध नकारकर, गुजरात के दबाव- प्रभाव में ट्रिब्यूनल ने दिया मात्र 0.25 एमएएफ याने 11 टीएमसी का पानी, जो महाराष्ट्र को खुद के ही नर्मदा क्षेत्र में उपयोग में लाना था। लेकिन 2015 में उसमें से आधा याने 5.5 टीएमसी पानी नर्मदा में बहां कर गुजरात को देना तय किया और महाराष्ट्र के अधिकारियों के हस्ताक्षर से एक अनुबंध हुआ, जो नर्मदा ट्रिब्यूनल फैसला याने कानून का सरासर उल्लंघन है! इसके बदले उकई बांध (गुजरात) का पानी लेकर पुनर्बसाहटों को देने की घोषणा भी फिजूल है। उर्वरित पानी भी राज्य शासन, नर्मदा की 7 उपनदियों पर 7 बांध बनाकर सतपुड़ा में बड़े टनेल द्वारा तापी की घाटी में ही परिवर्तित करने की योजना आगे धकेल रही है, जो नर्मदा घाटी के 300+ आदिवासी गांवों पर डूब क्षेत्र के बचे फलियों के आदिवासियों पर भी वंचना से अत्याचार ही होगा। बड़े टनेल से सतपुड़ा भी धंसने लगेगा। सभी ग्रामसभाओं का विरोध 'पेसा' कानून के तहत शासन को आदेश है। यह एक नदी घाटी से दूसरी घाटी में पानी का वितरण है, जो कार्य आंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अब नामंजूर होता गया है।

मोरारजी देसाई जब प्रधानमंत्री बने, तभी 10 साल बाद नर्मदा ट्रिब्यूनल का फैसला आया! सबसे अधिक बांध के- जलाशय के पानी पर अधिकार मिला, कच्छ- सौराष्ट्र जैसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों के नाम, गुजरात को ! प्रत्यक्ष में कच्छ तरस रहा, वहां पहुंची शाखा नहर से आगे माइनर नेटवर्क का निर्माण न होने से रापार जैसे एकाध तहसील के कुछ किसान छोड़कर अन्यों को नहीं मिली सिंचाई आज तक! पीने का पानी भी बेचा जाता है तो कच्छ की बहुतांश ग्राम पंचायतें नहीं खरीदती है। कच्छ में पानी जाने से हम आंदोलनकारियों ने रोका, यह तो चुनावी प्रचार था ही; लेकिन हकीकत भी साबित करती है, कि सालों से कच्छ में अदानी बंदरगाह, ताप विद्युत परियोजना, जिंदल स्टील जैसी कंपनियों को मिला और कुछ शहरों को भी! सौराष्ट्र में भी छोटी नहरों की टूट-फूट जैसी समस्याएं और मुख्य नहर से निजी पंप द्वारा पानी लेने की खर्चिक नौबत से किसान परेशान है। महाराष्ट्र, गुजरात के पीढिय़ों पुराने आदिवासी, पहाड़ी जंगल और मध्यप्रदेश के सबसे अधिक पहाड़ी- निमाड़ी गांव डूबोकर, कच्छ तक पहुंचे पानी में से कुछ लाख लिटर्स पानी व्यर्थ बहाया जा रहा है, कच्छ की ही रणभूमि में... जहां अगरिया समाज की नमक उत्पादन की आजीविका बर्बाद हो रही है; जिनकी महिलाएं रो पड़ी थीं, हमें मिलने पर! क्या कहें? हंसे या रोए?

गुजरात के नीचेवास में, 151 किलोमीटर तक फैले, नर्मदा, भरूच, बड़ौदा, इन तीन जिलों के गांवों के मछुआरे, आदिवासी, किसान और नगरवासी भी काफी भुगत रहे हैं।
सरदार सरोवर के पर्यावरणीय असर के मुद्दों में अरबी समंदर का 2013 से नर्मदा में 60 किलोमीटर तक घूसना याने 'सी इंग्रेस' की चर्चा नहीं के बराबर है। इससे नर्मदा का पानी और भूजल में भी खारापन आया है, जो गुजरात के गांव, शहर के निवासियों पर, खेती और मत्स्य व्यवसाय पर आघात है। राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण के 2022 के फैसले बाद, सर्वोच्च न्यायालय के भी 4 मार्च 2024 के, नर्मदा में जल परिवहन से पर्यटन के विरोधी फैसले के बावजूद 'क्रू•ा' चलाने की अवैध प्रक्रिया और कार्य आज भी जारी है!

'नर्मदा घाटी विकास' के तहत आगे धकेलती योजनाओं का भविष्य इसके साथ देखना होगा। इसी माह में घोषित म.प्र. के नर्मदा घाटी विकास विभाग के बजट का ऊपरी क्षेत्र के बांध और लिंक परियोजनाओं पर आबंटित हिस्सा, जो 5700 करोड़ में से 4700 करोड़ है। इसमें 1970 के दशक में बने बर्गी परियोजना के नहरों के लिए आबंटन सही है; लेकिन पूर्व में बनी नहरे दशकों तक सूखी रही क्यों? बर्गी से लेकर ओंकारेश्वर और इंदिरा सागर तक के बांधों से प्रभावितों के उर्वरित पुनर्वास कार्य पर ध्यान नहीं? आधे अधूरे कार्यों की पूर्ति से भी अधिक प्राथमिकता अन्य बांध और नदी जोड़ परियोजनाओं को (जिसमें बड़ी मात्रा में नर्मदा या जलाशयों से उद्ववहन की योजनाएं हैं) देना क्यों हो रहा है? 1979 में पारित नर्मदा ट्रिब्यूनल फैसले पर, 45 साल पूर्ति के बाद याने दिसंबर 2024 के बाद पुनर्विचार होगा, तो मध्यप्रदेश के अपने ही जलग्रहण क्षेत्र के 18.25 एमएएफ पानी पर दिया अधिकार वापस खींचा न जाए, इसलिए! लेकिन सवाल यही है कि बसानिया, राघवपुर जैसे बांधों को, पर्यावरणीय अध्ययन सह मंजूरी न मिलते, प्रशासकीय मान्यता से बढ़ाएंगे? क्या इनसे विस्थापित और प्रभावित होने वाले आदिवासी और अन्य किसानों, मजदूरों के लिए, 2002 की मध्यप्रदेश की पुनर्वास नीति के तहत, पुनर्वास योजना तैयार है?

नर्मदा घाटी के 30 बड़े और 135 मझौले बांधों के अलावा 3000 छोटे बांध भी थे मूल नर्मदा घाटी विकास योजना में। छोटे बांधों पर कितना रखा गया भरोसा? क्या उन्हें दी प्राथमिकता? जलग्रहण की छोटी इकाइयों का विकास क्यों नहीं बना आधार, जल- जंगल- जमीन बचाकर प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग का? आजतक जो बने हैं बांध, बर्गी से सरदार सरोवर तक, उनमें से एकेक की विशेष कहानी है, जो यहां बयां करना नामुमकिन है... फिर भी नर्मदा घाटी की, बड़े बांधों से लेकर बैराज, लिंक सहित सभी परियोजनाओं का 'एकत्रित असर' का अध्ययन जरूरी है। अमेरिका के पदचिन्हों पर कदम बढ़ाये हमारे देश ने! टेनेसी नदी घाटी योजना की नकल की गई दामोदर घाटी योजना बनाकर, जो आज भी अधूरी ही क्या, विवादग्रस्त भी है। भाखड़ा नांगल को भी पहले 'आधुनिक मंदिर' कहने वाले पंडित नेहरू जी ने ऐसे बांधों को 'भव्यता की बीमारी' बताकर नकारा! अमेरिका ने ही 1994 से बड़े बांधों के निर्माण पर रोक लगा दी, और आजतक तो 1951 बांधों को निरस्त किया, जबकि यूरोप खंड के देशों ने कुल 4000 बांधों को निरस्त किया! क्या नर्मदा ही नहीं, हर नदी घाटी की और भारत की जनता यह जानती है? इसके लिए 'नदी घाटी' एक इकाई मानकर अध्ययन ही आधार बने, यह जानने के लिए कि आज तक बने बड़े बांध, बड़े उद्वहन... सभी से क्या खोया है और क्या पाया है?

इस परिप्रेक्ष्य को संवेदना के साथ देखें और जाने! सही विकास, विस्थापन, विनाश और बीभत्स विषमता के बिना, निरंतर और न्यायपूर्ण हो, इसके प्रति हम समर्पित हैं।

Full View

Tags:    

Similar News