ललित सुरजन: भारत से आया दोस्त
ललित सुरजन से मेरी पहली मुलाकात वेल्स के कार्डिफ में हुई थी, वर्ष 1977 में;
मजीद शेख, कैम्ब्रिज
ललित सुरजन से मेरी पहली मुलाकात वेल्स के कार्डिफ में हुई थी, वर्ष 1977 में। हम दोनों प्रसिद्ध थॉमसन फाउंडेशन, जिसका स्वामित्व तब 'द टाइम्स ऑफ लंदन' के पास था, के चार माह के पाठ्यक्रम 'सीनियर एडिटोरियल टेक्निक्स' में भाग लेने अपने-अपने देशों से आए थे।
वह भारत के रायपुर से था और मैं पाकिस्तानी पंजाब के लाहौर से। उप-महाद्वीप से मेरे अलावा पांच भारतीयों का एक समूह आया था, जबकि बांग्लादेश का एक पत्रकार था। इस्लामाबाद में नौकरशाही ने पहले मुझे एनओसी देने से इनकार कर दिया था क्योंकि मैं 'द पाकिस्तान टाइम्स ’ में कार्यरत था, जिसे बाद में सैन्य तानाशाह जिया उल हक ने बंद करवा दिया था। इस्लामाबाद ब्यूरो चीफ एच. के. बुर्की, जो पहले भारत के एक राष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी थे, के प्रभाव से 25 मिनट के भीतर पीएम के शीर्ष नौकरशाह स्वयं मेरे आवश्यक दस्तावेज जुटाने के लिए मुझसे संपर्क कर रहे थे।
कार्डिफ़ में राष्ट्रमंडल देशों से आए हम सब व्यक्तियों का एक अच्छा समूह बन गया था। अफ्रीकियों, सुदूर पूर्वी देशों और भारत के पत्रकारों से संवाद का यह मेरा पहला अनुभव था। शीर्ष ब्रिटिश पत्रकार हमें पढ़ा रहे थे, और हमें अपना उत्कृष्टतम दिखाने के लिए तैयार कर रहे थे। पहले तीन दिनों के भीतर भारतीयों से मेरी जान-पहचान हो गई, और ललित उनके समूह का स्वाभाविक नेता था।
हम इंटरनेशनल हाउस में ठहरे थे, जिसके डाइनिंग हॉल में हमारा भोजन होता था। चौथे दिन मैंने देखा कि भारतीयों का समूह एक कोने में एकत्रित था, और उनके चेहरे पर निराशा थी। मैंने जाकर उनसे पूछा कि क्या हुआ है तो ललित ने बताया: "हम सभी शाकाहारी हैं और यहाँ पोर्क और बीफ परोसा जा रहा है और यहां तक कि सब्जियां भी चर्बी में पकाई जा रही हैं"।
मैंने अपनी दादी और पिता से हिंदू खान-पान की आदतों के बारे में बहुत सारी बातें सुनी थीं। लाहौर से होने के कारण मेरी उप-महाद्वीपीय सहानुभूति जाग उठी और मैंने तुरंत इस समस्या का समाधान निकालने के बारे में सोचा। मैंने उनसे सिर्फ एक दिन की मोहलत मांगी और सुझाव दिया कि “हम सभी छात्रावास की रसोई में एक साथ भोजन करेंगे, भोजन मैं पकाऊँगा"। भारतीयों ने मुझे कुछ शक की निगाह से देखा, उनमें से एक ने सोचा कि शायद मैं कोई शरारत करूँगा। ललित ने मुस्कुराते हुए कहा: "ठीक है बॉस, देखते हैं कि आप क्या कर सकते हैं, आप भरोसे के लायक लगते हैं"।
अगली दोपहर मैंने अपने पाठ्यक्रम निदेशक से बात की और जल्दी निकल गया। मैं जिस बस में चढ़ा था, किस्मत से उसके ड्राइवर एक सिख थे। मैंने शुद्ध पंजाबी में उन्हें अपनी दुविधा बताई। उन्होंने पूछा कि क्या मैं लाहौर से हूँ। "आप कैसे जानते हो?" "इसलिए कि हमने लाहौरी मेहमाननवाज़ी के बारे में सुना है"। उन्होंने मुझे एक बड़े भारतीय स्टोर का रास्ता बताया और वहां मैंने चावल, दाल, आटा, आलू, प्याज, टमाटर, अदरक, लहसुन, हरी मिर्च, अचार, मसाले और कुछ और चीजें खरीदीं। इंटरनेशनल हाउस वापस आकर मैंने भात, तवा फुल्का, मसूर दाल, आलू भुजिया और सलाद बनाया।
भारतीय समूह थोड़ी आशंका के साथ रसोई में आया, लेकिन मेज पर लगे भोजन को देखकर सब टूट पड़े। आधे घंटे बाद, पांच तृप्त भारतीयों के साथ गहरी उपमहाद्वीपीय कामरेडशिप का दृश्य बन गया। उनमें से दो ने वास्तव में मेरे हाथों को चूम लिया। यह एक ऐसी दोस्ती की शुरुआत थी जो तब से अभी तक चली आ रही है।
अगले तीन महीनों में मैंने उन्हें देसी घी के परांठे और अन्य स्वादिष्ट शाकाहारी व्यंजन खिलाए। इस प्रक्रिया में मैंने ठाना कि लाहौर लौटने तक मैं भी शाकाहारी रहूंगा। ललित ने इस बात को बहुत सराहा। फिर पढ़ाई आगे बढ़ी, कई परीक्षाएँ हुईं, और मैंने कक्षा में प्रथम स्थान हासिल किया। अफ्रीकी, सिंगापुर और मलेशिया के पत्रकारों से जान-पहचान बढ़ना भी बहुत सुखद था। एक मलेशियाई महिला मुझे कुछ विशेष रूप से पसंद करने लगी, तब ललित ने खुद उसे समझाने का ज़िम्मा लिया कि वह एक लाहोरी है और शादीशुदा है। वह तब भी मुझमें दिलचस्पी ले रही थी। ललित ने लौटकर कहा "यार, तेरे हाथ में जादू है, तुम्हारे बनाए खाने, तुम्हारी पत्रकारिता में और यहाँ तक कि तुम्हारे सहपाठी भी तुमसे प्यार करते हैं"। दरअसल वह मुझे चिढ़ा रहा था।
हमारे बीच लंबी बातचीत होती थी, जिसमें हर बार कुछ नई जानकारी और ज्ञान होता था, किताबों के प्रति हमारे साझा प्रेम से हम और करीब हो गए थे। लेकिन सभी अच्छी बातों का अंत जल्द निकट आ गया। मेरे लौटने पर उसने मुझे एक बहुत ही अच्छा पत्र लिखा और फिर पाकिस्तान में माहौल बदल गया। जनरल जिया उल हक शासन ने जल्द ही हमारे अखबार को बंद कर दिया और मुझे गिरफ्तार कर लिया गया और कोड़े मारे गए। कुछ दिनों बाद मुझे इंग्लैंड से एक पत्र मिला। यह ललित का पत्र था जो उसने रायपुर से लिखकर लंदन में एक मित्र के माध्यम से भिजवाया था। वह मेरे लिए सबसे ज्यादा चिंतित था।
फिर इंटरनेट क्रांति आई और हमने संदेशों का आदान-प्रदान करना शुरू कर दिया, प्रत्येक संदेश तृप्ति देने वाला होता था। दिन पर दिन चीजें खराब होती गईं, और मैंने लाहौर के दैनिक 'डॉन' के लिए काम करना शुरू कर दिया और लाहौर के इतिहास पर एक साप्ताहिक कॉलम शुरू किया, जो पिछले 17 वर्षों से जारी है। मुझे सुखद आश्चर्य है कि ललित ने उन्हें हर सप्ताह पढ़ा और अपनी टिप्पणी भेजी। मैंने एस्टन से डॉक्टरेट किया था जिसके बाद कैंब्रिज में इतिहास का प्रोफेसर बना। मेरे कॉलम पढ़कर जब ललित बहुत खुश होते थे तो मुझे व्हाट्सएप संदेश भेजते थे। यहां तक कि उन्होंने उनमें से कुछ के अनुवाद 'देशबन्धु' में छापे। वह उन्हें खाइयों को पाटने वाला बताते थे जिनसे एक दिन पुनर्मिलन की आस बंधती है। मेरी भी भावना कुछ ऐसी ही थी, खासकर जबसे मैंने संस्कृत सीखी थी और वेदों को पढ़ा था।
फिर कुछ दिनों पहले ही यह दुखद खबर मिली। उस जैसे शानदार व्यक्ति मरते नहीं हैं बल्कि एक महान यात्रा पर निकल जाते हैं। उसने अन्वेषण, सीखने, सच की खोज और उसे पूरी सच्चाई से सामने लाने की परंपरा अपने पीछे छोड़ी है। उसकी बेटियां उस परंपरा को जारी रख रही हैं। मेरे लिए यह ऐसा नुकसान है जो मेरे अंदर हमेशा रहेगा। मैं उम्मीद करता हूँ कि उसकी राख के कुछ अंश रावी नदी में जा मिले होंगे, जिसके किनारे दशराजन युद्ध हुआ था। उस नदी में वे राजकुमार भरत के अंश से जा मिलेंगे, ऐसी नदी जो हमारी भूमि की एकता का केंद्रबिंदु है - वह भूमि जहॉं से ललित सुरजन आए थे।