फ़िल्म 'वारिस' : रविन्द्र पीपत (1988)
सामंती सामाजिक मूल्य पितृसत्ता पर आधारित होता है।इस व्यवस्था में सम्पत्ति जो मुख्यत: ज़मीन होती है;
- अजय चन्द्रवंशी
'वारिस' स्त्री अस्मिता के बोध का आभास दिलाती अंतत: पितृसत्ता के मूल्यों पर दम तोड़ती फ़िल्म है।सामंती जीवन मूल्य, जो मुख्यत: औद्योगिक समाज के पूर्व कृषि आधारित अर्थव्यवथा जनित हैं, और जिसमे बड़े-बड़े भूस्वामी और ज़मीदार भी हुआ करते थे, औद्योगिक समाज के संक्रमण के बावजूद भी बचे हुए हैं। यहां तक कि आज भी हजारों एकड़ के भूस्वामी देखे जा सकते हैं।
सामंती सामाजिक मूल्य पितृसत्ता पर आधारित होता है।इस व्यवस्था में सम्पत्ति जो मुख्यत: ज़मीन होती है, का हस्तानांतरण पिता से पुत्र में होता है। इसलिए पुत्र की 'चाह' सबसे बड़ी चाह होती है। ऐसा नहीं कि पुत्रियों का सम्मान नहीं होता या उनसे प्रेम नहीं किया जाता, यह सब होता है मगर चूंकि सम्पत्ति का 'वारिस' पुत्र होता है इसलिए उसकी केन्द्रीयता होती है। पुत्र का न होना दु:ख का कारण बन जाता है। यहां तक कि स्त्रियां भी इन 'मूल्यों' से 'सांस्कारित' होती हैं और बहुधा अपनी स्थिति को सहज और 'उचित' मानती हैं।
चूंकि भूमि की मिल्कियत से ही इन भुस्वामियों की शक्ति और प्रतिष्ठा रहती है, इसलिए इसके लिए संघर्ष भी होते हैं। अपने तमाम धार्मिक-नैतिक-सामाजिक मूल्यों की 'व्यवस्था' के बावजूद व्यावहारिक जीवन की शक्ति की चाह तमाम 'नियमों' से परे होती है और जरूरत के अनुसार उसे ध्वस्त भी कर देती है।यह भी ग़ौरतलब है कि ये 'मूल्य' आम जनता में अधिक प्रभावशाली हुआ करते हैं; प्रभु वर्ग के लिए इससे बच निकलने के हजार रास्ते होते हैं।
ऐसा नहीं कि सामंती प्रभु वर्गों में अच्छे और बुरे लोग नहीं होते। अपने वर्गीय हितपरक मूल्यों से 'संचालित' होते हुए भी वैयक्तिक गुणों-दुर्गुणों का प्रभाव सर्वत्र होता है। फ़िल्म 'वारिस' का 'दुल्ला सिंह' अयोग्य और आपराधिक प्रवृत्ति का है जिसके कारण उसके पिता ने उसे और उसकी संतानों को उनके हिस्से के अलावा अपने लिए रखी ज़मीन में हिस्सेदारी नहीं दी, और जिसके कारण दुल्ला ने उसकी हत्या कर दी। जबकि गज्जन सिंह और उसका बेटा श्रवण मानवीयता से लबरेज हैं। इस व्यक्तिक दुर्गुण के कारण ही दुल्ला अपने भाई और उसके पुत्र की हत्या करता है।
'पारो' सामान्य किसान की बेटी है। उसका विवाह श्रवण से होता है मगर उसकी हत्या दुल्ला और उसके बेटों द्वारा करा दी जाती है, ताकि उनके ज़मीन का कोई वारिस न हो और अंतत: उन्हें मिल जाये। मगर पारो उनकी चाल समझती है और ज़मीन के वारिस के लिए अपनी छोटी बहन शिबो का विवाह अपने ससुर से करा देती है जिससे सम्पत्ति का वारिस 'पुत्र' पैदा होता है। इस नाटकीय घटनाक्रम में कई मोड़ आते हैं और दुल्ला और उसके बेटे मारे जाते हैं मगर पारो भी मारी जाती है। बचते हैं शिबो उसका बेटा और शिबो का प्रेमी बिंदर। इस तरह अंतत: सम्पत्ति का सही 'वारिस' बच जाता है।
फ़िल्म में 'पारो' (स्मिता पाटिल) के चरित्र को संघर्षशील रचा गया है। वह दुल्ला के षड्यंत्रों का बराबर जवाब देती है, साहसिक निर्णय लेती है, हथियार भी उठाती है। अपने व्यक्तिक दु:खों को भूलकर ज़मीन की हिफाज़त करती है, उसकी सही वारिस तैयार करती है। एक जगह वह स्त्रियों को पितृसत्ता के गुलामी के लिए लताड़ती भी है।
मगर इन तमाम संघर्षों के बीच वह पितृसत्तात्मक मूल्यों से ही संचालित होती रही है। उसे वारिस चाहिए मगर वारिस बेटा ही हो सकता है! इसके लिए अपने बहन की खुशियों का गला घोंट देती है। कारण वही बेटा चाहिए! वह यह नहीं सोच पाती की वह स्वयं ज़मीन की वारिस है और आगे अपने अनुसार उसका नियमन कर सकती है। मगर उसके ज़ेहन में तो रक्त सम्बन्ध आधारित वारिस की छवि है! वह आगे स्वयं विवाह कर सकती थी मगर फिर वही वारिस 'दूसरे' रक्त का होता!
दरअसल ये प्रश्न इसलिए भी उठते हैं क्योंकि फ़िल्म का सामंती समाज आधुनिक है, जरूर परिवेश ग्रामीण है, मगर यदि पारो को स्त्री अस्मिता और संघर्ष का उदाहरण बनाया जाय तो ये प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठते हैं। बहरहाल एक मनोरंजक फ़िल्म से इस तरह तार्किक अन्विति की अपेक्षा सम्भव है जरूरत से ज्यादा हो!
कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो.9893728320