'हू आफ्टर औरंगज़ेब?'

एक बड़ा वर्ग एक ओर जहां इस बात को मानकर गदगद है कि भारत में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हो चुकी है क्योंकि लगभग एक हजार वर्षों के बाद कोई हिन्दू शासक दिल्ली के सिंहासन पर बैठा है;

Update: 2025-03-06 09:06 GMT

एक बड़ा वर्ग एक ओर जहां इस बात को मानकर गदगद है कि भारत में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हो चुकी है क्योंकि लगभग एक हजार वर्षों के बाद कोई हिन्दू शासक दिल्ली के सिंहासन पर बैठा है, तो वहीं उसे यह देखकर दुख भी होता है कि देश के सियासी गलियारे में अब भी मुगलिया शासकों की उपस्थिति बनी हुई है। जिस प्रकार से इस्लामी शासकों द्वारा हिन्दुस्तान पर राज किये जाने की एक ऐतिहासिक क्रोनोलॉजी है, वैसे ही जैसे-जैसे नरेन्द्र मोदी प्रवर्तित वर्तमान हिन्दू शासनकाल आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे मुस्लिम शासकों की शामत आ रही है। इस्लामोफोबिया को रंग व हवा देने के लिये बाबर से शुरु कर भारतीय राजनीति को इन दिनों औरंगज़ेब की याद ज़ोरों से आ रही है। सवाल यह है कि इस कथित 'जल्लाद' और 'हिन्दू विरोधी' के बाद किस शासक का नम्बर आयेगा क्योंकि उनके बाद से मुगलिया सल्तनत लगातार कमजोर हो चली थी जो बहादुरशाह ज़फ़र के बाद पूरी तरह खत्म हो गयी? औरंगज़ेब से ज़फ़र के बीच कोई भी उल्लेखनीय बादशाह तो हुआ नहीं, हुए भी तो इतने कमज़ोर कि उनके नाम भी किसी को मालूम नहीं। शुक्र है कि मुगलों के वारिस कोलकाता की झोपड़पट्टियों में जीवन बिता रहे हैं, वरना वे भी आज आलोचना के केन्द्र में होते- धु्रवीकरण के उपकरण के रूप में।

वैसे तो मुस्लिमों को लेकर होने वाली सियासत का दौर आजादी के पहले से ही शुरू हो गया था। यह सर्वज्ञात तथ्य है कि हिन्दू महासभा और मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग के कारण देश विभाजित हुआ। फिर भी जब देश दो हिस्सों में बंट ही गया और जिन्ना पाकिस्तान के गर्वनर जनरल बनकर चले गये तो यहां रह गये महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू तथा कांग्रेस जिन्हें देश को बांटने का जिम्मेदार माना गया। गांधी को इसी कारण से मार डाला गया तथा नेहरू की न केवल उनके जीवन पर्यंत वरन अब तक मुसलमानों के कथित तुष्टिकरण के लिये निंदा होती है। 2014 के बाद, यानी नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में नेहरू-मुसलमान सम्बन्धों की पुस्तक में नया अध्याय यह जुड़ गया कि नेहरू के पुरखे मुसलमान थे। यानी वे ऐसे परिवार के हैं जो पहले मुस्लिम था। भारतीय जनता पार्टी के आईटी सेल द्वारा रचित एवं वाट्सएप विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम के जरिये लोगों को ज्ञात हुआ कि उनका वंश किसी गियासुद्दीन ग़ाज़ी से सम्बद्ध है। जिस देश में ज्यादातर हिन्दुओं की कई पुश्तों का विवरण प्रयागराज और हरिद्वार में उन घाटों के पंडितों के सैकड़ों वर्षों से लिखे जा रहे बही-खातों में दज़र् हैं जहां पितरों का अस्थि विसर्जन होता है, उसी देश के लोगों ने नेहरू के मुस्लिम कनेक्शन को सच मान लिया। इंदिरा गांधी के पारसी पति फिरोज़शाह को भी मुस्लिम साबित करने में कोई दिक्कत नहीं आई। चूंकि राहुल व प्रियंका की मां सोनिया ईसाई परिवार से आती हैं तो इस तड़के में एक और जायका मिलाकर विमर्श आगे बढ़ा जिसके कई आयाम खुलते हैं।

1991 में देश की राजनीति में बाबर का प्रवेश गाजे-बाजे के साथ भाजपा द्वारा किया गया- अयोध्या के रामजन्मभूमि मंदिर को मुद्दा बनाकर। देश में मुगल सल्तनत की नींव रखने वाले बाबर के सेनापति मीर ब़ाक़ी द्वारा इसे तुड़वाकर (1528-29) बाबरी मस्जिद बनवाई गयी थी। इसे लेकर भाजपा का रामजन्मभूमि आंदोलन हुआ। लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से लेकर निकली रथयात्रा ने देश की राजनीति का विमर्श कुछ यूं बदला कि पहले अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में 3 बार (क्रमश: 13 दिन, 13 माह व पूर्णकालिक) सरकारें बनीं। इस दौरान किसी को बाबर याद नहीं आया। कभी-कभार उसका उल्लेख इन शब्दों में ही होता था कि 'काबुल में उसके मकबरे पर कोई नहीं जाता पर भारत में उसकी पूछ-परख बनी हुई है।' इस तंज के निशाने पर कांग्रेस होती थी। संविधान की भावना के अनुरूप अल्पसंख्यकों की सरकार की ओर से देखरेख को 'तुष्टिकरण' बतलाया जाता रहा।

2014 के बाद से यह विमर्श सघन तो हुआ ही, बहुस्तरीय भी बन गया। एक तरफ भाजपा ने खुद को हिन्दुओं की पार्टी बना डाला तो वहीं सरकार ऐसे कानून बनाने लग गयी जिसके निशाने पर किसी न किसी तरह से मुस्लिम ही होते हैं। फिर चाहे वह नागरिकता कानून हों या जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 की समाप्ति, तीन तलाक का खात्मा या वक्फ़ बोर्ड में बदलाव। स्वयं मोदी चुनावी सभाओं से लेकर संसद के भीतर अपने भाषणों में मुस्लिम विरोधी विमर्श के सूत्रधार बने हुए हैं। एक तीसरा वर्ग है जो ट्रेनों-बसों में किसी मुस्लिम को देखकर हनुमान चालिसा का पाठ करने लगता है या फिर हिन्दू त्यौहारों पर मंदिरों की बजाये मस्जिदों या चर्चों के सामने (घुसकर भी) धार्मिक नारे लगाता है। उसे किसी मुसलमान के घर की छत पर इस्लामी झंडा फहराने से लेकर किसी मज़ार को खोदने अथवा ताजमहल में पूजा करने में कोई उज्र नहीं है। किसी पुस्तक को हाथ भी न लगाने वालों को वर्षों पहले नालंदा विश्वविद्यालय के जलाये जाने का दुख अब जाकर साल रहा है।

इसी के तहत फिलहाल भारत की राजनीति में औरंगज़ेब तहलका मचाये हुए हैं। दो साल पुराना एक वीडियो वायरल हुआ है जिसमें एक युवा सार्वजनिक शौचालय में औरंगज़ेब की तस्वीर चस्पां कर रहा है तो वहीं मुम्बई में समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आजमी के खिलाफ़ इसलिये एफआईआर हो रहा है क्योंकि वे औरंगज़ेब की शासन प्रणाली की तारीफ़ कर देते हैं। उन्होंने चाहे अपना बयान वापस ले लिया हो लेकिन उन्हें विधानसभा के जारी बजट सत्र से निलम्बित कर दिया गया है। राजद्रोह का मामला चलाने की मांग भी हो रही है।

बाबर द्वारा मुगल साम्राज्य की स्थापना का गुस्सा, अकबर के हरम के किस्से, शाहजहां द्वारा कथित रूप से महातेजालय मंदिर को तोड़कर ताजमहल बनाने के आरोपों के बाद औरंगज़ेब भी निपट गये हैं। अब आगे कौन? आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि 'हू आफ्टर इंदिरा?' या 'हू आफ्टर मोदी?' की तज़र् पर अब पूछा जाने लगे- 'हू आफ्टर औरंगज़ेब?'

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