प्रकृति से जुड़ा है कमारों का जीवन
छत्तीसगढ़ में गरियाबंद जिले में कमार आदिवासियों की आबादी है;
- बाबा मायाराम
जलवायु बदलाव के दौर में जल संरक्षण व हरियाली का बने रहना, गांव में दो सबसे बड़ी ज़रूरतें हैं, वनों की रक्षा से दोनों काम हो रहे हैं,जंगल होगा तो पानी व मिट्टी का भी संरक्षण होगा। हमें वन खाद्य, चारे, वन, मिट्टी संरक्षण के साथ स्थानीय वृक्षों को महत्व देना चाहिए। इस गांव के लोगों ने यह काम कर दिखाया है, जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।
छत्तीसगढ़ में गरियाबंद जिले में कमार आदिवासियों की आबादी है। कमार, विशेष पिछड़ी जनजाति समूह (पीवीटीजी) के अंतर्गत आते हैं। ये आदिम जनजातियों में से एक हैं। इनकी पारंपरिक जीवनशैली प्रकृति के करीब है। कमारों की आजीविका बांस के बर्तन बनाकर बेचने और जंगल से भी जुड़ी से है। हाल के कुछ वर्षों से कमार खेती की ओर भी मुड़े हैं। इस कॉलम में सुदूर जंगल के गांवों में कमार आदिवासियों के जीवन में झांकने की कोशिश है, जिससे उनका प्रकृति से जुड़ाव को समझा जा सके।
मैंने हाल ही में इस इलाके का दौरा किया था। मुझे प्रेरक स्वयंसेवी संस्था के कोमलराम साहू ने गरियाबंद के कुछ गांव के लोगों से मिलवाया था और जंगल दिखाया था। जंगल में हवा की खुशबू थी। गर्म लू के थपेड़ों की बजाय हवा में कुछ नमी थी। एक ओर चिड़ियों की आवाज आ रही थी और दूसरी ओर पैरी नदी कल-कल बह रही थी, उसकी आवाज आ रही थी। हवा की ताजगी, पेड़ों की चमकीली पत्तियां, कीट-पतंगों की भिनभिनाहट और पानी की झिलमिलाहट मुझे खींच रही थी।
यह बहुत ही खूबसूरत इलाका है। यहां राजिम में त्रिवेणी संगम है। जलप्रपात और जतमई माता का मंदिर है। महानदी और पैरी नदी है। इसी प्रकार, यहां सांस्कृतिक विविधता भी देखने को मिलती है।
राजिम स्थित प्रेरक स्वयंसेवी संस्था इस इलाके में लंबे समय से काम कर रही है। देसी बीजों की जैविक खेती, शिक्षा, बुजुर्गों के लिए आश्रम, मानसिक स्वास्थ्य की समस्या से ग्रस्त युवाओं के लिए केन्द्र इत्यादि। पिछले कुछ वर्षों से वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक वनाधिकार के लिए लोगों को जागरूक करने से लेकर वन प्रबंधन, पौधारोपण, जल संरक्षण कई कामों में संस्था सहयोग कर रही है।
यहां के आमझर गांव के ग्रामीण बताते हैं कि वैसे तो हम जंगल की रखवाली व देखभाल लम्बे समय से करते आ रहे हैं, पर इसे व्यवस्थित रूप से दो-तीन सालों से कर रहे हैं। जब से वन अधिकार कानून के तहत् वन संसाधन का अधिकार मिला है, उसके बाद वन प्रबंधन समिति का गठन किया गया है।
गांव की महिलाओं ने बताया कि बांस से खुमरी, मोरा, टुकना, झिंझरी, सूप, चांप, झाड़ू और चटाई बनाते हैं, जिन्हें बेचकर पेट पालते हैं। जंगल से बहुत सारी खान-पान की चीजें मिलती हैं, जैसे फल, फूल, हरी पत्तेदार भाजियां इत्यादि। फुटू ( मशरूम) भी कई तरह के मिलते हैं, जैसे भिमोरी फुटू, भदेली फुटू, पैरा फुटू इत्यादि।
इसी प्रकार, कई प्रकार की भाजियां मिलती हैं- जैसे चरौटा भाजी, अमटी भाजी, कोलियारी भाजी इत्यादि। फलों में तेंदू, चार, आम, कुसुम, मोकाई और भिलवां मिलते हैं।
ग्रामीण बताते हैं कि इस गांव के जंगल में पिछले साल आग नहीं लगी, क्योंकि गांव के लोग बारी-बारी से इसकी रखवाली करते हैं। जबकि आसपड़ोस के जंगल में आग लगी है, उनके जंगल में नहीं लगी। जंगल में आग लगना आम बात है। इसका मुख्य कारण महुआ संग्रह के लिए पेड़ के नीचे कचरा व पत्तों में आग लगना है। इसके कारण आग फैल जाती है। चरवाहे व राहगीरों के माध्यम से आग लग जाती है। जंगल में आग की वजह से छोटी-मोटी झाड़ियां, फलदार पेड़ और कंद-मूल इत्यादि जलकर नष्ट हो जाते हैं।
वे आगे बताते हैं कि महुआ बीनने से पहले गांव में बैठक हुई थी, उसमें तय हुआ कि कुछ जगह छोड़कर आग लगाएं। इसके लिए पतझड़ में जो पत्ते झड़ते हैं, उन्हें अलग करके रखते हैं, जिससे आग न लगे। इसके साथ ही, जंगल की सीमा में एक गड्ढा बनाया गया है, ताकि आग से जंगल को बचाया जा सके। आग से जलने वाली चीजों के इस्तेमाल पर रोक लगाई है।
वे बतलाते हैं कि वे सुबह से शाम तक जंगल की रखवाली करते हैं। अगर कोई व्यक्ति जंगल में मिलता है तो उसे हिदायत देते हैं कि जंगल में आग मत लगाना। जंगल में आग लगने से खेतों की नमी खत्म हो जाती है। इतना ही नहीं, तरह-तरह के कीट-पतंगें, सांप, मेढ़क और पक्षी, यह सब भी इस आग से जलकर मर जाते हैं। इनमें से कई खेती में उपयोगी हैं।
गांव की वन प्रबंधन समिति ने जंगल की सुरक्षा के लिए नियमावली बनाई गई है, जिससे जंगल को किसी प्रकार नुकसान न हो, यह सुनिश्चित किया जा रहा है। गीली लकड़ी न काटें। अगर गांव के बाहर से कोई व्यक्ति जंगल आता है तो उसे लकड़ी ले जाने के लिए मना करते हैं। बकरी व मवेशियों को भी जंगल में ले जाने से मना करते हैं, जिससे छोटे पौधों को नुकसान न हो।
इसी वर्ष राजस्थान के भेड़ चराने वालों को गांववालों ने जंगल में भेड़ चराने से रोका था, क्योंकि छोटे पौधों को इससे नुकसान होता है। गांव के मवेशियों के लिए एक ही जगह चराई हो, जिससे छोटे पेड़ पौधों को नुकसान न हो। इसके साथ ही दुर्लभ प्रजाति के पेड़ों को काटने पर रोक है।
वे आगे बताते हैं जलाने के लिए सूखी लकड़ी ही लाएंगे, जहां जंगल में पेड़ कम हैं, वहां पौधारोपण करेंगे, जंगल की कटाई नहीं हो, वनोपज सबको मिले, यह सुनिश्चित करेंगे, मशरूम के लिए किसी के लिए रोक-टोक नहीं है। अगर किसी व्यक्ति को नया मकान बनाना है या मरम्मत करना है तो लकड़ी के लिए ग्रामसभा की अनुमति लेनी होगी।
एक ग्रामीण ने बताया कि यहां घने जंगल होने के कारण जमीन में नमी होती है जो खेती के लिए बहुत अच्छी होती है। पेड़ की शाखाएं जैसे- कर्रा, हर्रा, तेंदू और चार से पानी होकर खेतों में जाता है, वह मिट्टी को बहुत उपजाऊ बनाता है। जंगली चूहा खेतों में बिल बनाकर रहता था, जिससे खेतों की जुताई हो जाती थी, चिड़िया भी कीटनाशक का काम करती हैं, इनके कम होने से फसलों में कीट ज्यादा लगते हैं।
गांव वालों ने बताया कि अगर जंगल की अच्छे से रखवाली की जाए, और उसे विश्राम दिया जाए तो कुछ ही सालों में नया जंगल हरा-भरा हो जाता है। उसमें कुछ भी करने की जरूरत नहीं है, सिर्फ रखवाली करनी जरुरी है। जो जगह खाली है, या वहां के पौधे छोटे हैं, वहां नए पौधे आ जाते हैं और छोटे पौधों को भी बढ़ने का मौका मिलता है। इस लिहाज से जंगल की रखवाली बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस कारण जंगल में विविधता तो देखी जाती है, तरह-तरह के पक्षियों का भी बसेरा होता है।
कुल मिलाकर, यहां के ग्रामीण अपने गांव के आसपास का जंगल, चारागाह, वन, जलस्रोत सुधार कर गांव के दीर्घकालीन विकास व गांव के पर्यावरण की रक्षा की संभावनाओं को निरंतर बढ़ा रहे हैं। कमार आदिवासियों का आत्मविश्वास बढ़ रहा है।
जलवायु बदलाव के दौर में जल संरक्षण व हरियाली का बने रहना, गांव में दो सबसे बड़ी ज़रूरतें हैं, वनों की रक्षा से दोनों काम हो रहे हैं,जंगल होगा तो पानी व मिट्टी का भी संरक्षण होगा। हमें वन खाद्य, चारे, वन, मिट्टी संरक्षण के साथ स्थानीय वृक्षों को महत्व देना चाहिए। इस गांव के लोगों ने यह काम कर दिखाया है, जो सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।