उर्दू पर संकीर्ण सोच
सियासी लाभ उठाने के फेर में कभी-कभी मंजे हुए राजनेता भी ऐसी गलती कर जाते हैं, जिसमें सच बाहर आ जाता है;
- सर्वमित्रा सुरजन
ऐसा नहीं है कि देश में भाषा को लेकर इस तरह का विवाद पहली बार खड़ा हुआ है, यह सिलसिला बरसों से चला आ रहा है। भाजपा के शासन के दौर में इसमें तल्खी थोड़ी और बढ़ गई है। बहरहाल, पहले देख लेते हैं कि श्री योगी ने उर्दू का विरोध करते हुए कैसे अपनी ही पोल खोल दी। ग्रामीण अंचलों में शिक्षा की हालत कितनी खराब है, इस सच से हर कोई वाकिफ है। संपन्न ग्रामीण अपने बच्चों को शहरों में भेजकर पढ़ाने का खर्च उठा सकते हैं, लेकिन गरीब ग्रामीणों के लिए गांव के विद्यालय में बच्चों को भेजने की मजबूरी होती है, जहां कई तरह के अभावों में बच्चों को पढ़ाने की औपचारिकता निभाई जाती है।
सियासी लाभ उठाने के फेर में कभी-कभी मंजे हुए राजनेता भी ऐसी गलती कर जाते हैं, जिसमें सच बाहर आ जाता है। अभी हाल ही में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने ऐसी ही गलती कर दी। दरअसल मंगलवार को उप्र विधानसभा में कार्य संचालन नियमावली में एक संशोधन के बाद अंग्रेजी के अलावा, अवधी, ब्रज, बुंदेली और भोजपुरी में भी संबोधन को मान्यता दी गई। इस संशोधन का उद्देश्य यह था कि ग्रामीण अंचल के लोग अपनी स्थानीय भाषा में सुन सकें कि विधानसभा में क्या कार्रवाई हो रही है। इस फैसले पर नेता प्रतिपक्ष माता प्रसाद पाण्डेय ने अंग्रेजी पर आपत्ति जताई और उसकी जगह उर्दू और संस्कृत शामिल करने का सुझाव दिया।
लेकिन उर्दू का नाम आते ही यह मुद्दा भाजपा के लिए सांप्रदायिक सवाल खड़े करने का सबब बन गया। मंगलवार को उर्दू के सवाल पर मुख्यमंत्री योगी ने जो कुछ कहा, उसमें एक तरफ उनकी संकुचित सोच का परिचय मिला और दूसरी तरफ एक सचबयानी भी हो गई। श्री योगी ने कहा कि समाजवादियों का चरित्र दोहरा हो चुका है, ये अपने बच्चों को पढ़ाएंगे इंग्लिश स्कूल में और दूसरों के बच्चों के लिए बोलेंगे कि गांव के उस विद्यालय में पढ़ाओ, जहां संसाधन भी नहीं हैं। श्री योगी ने समाजवादियों पर आरोप लगाया कि ये आपके बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते। आपके बच्चे उर्दू पढ़ें ये उनको मौलवी बनाना चाहते हैं। सपा के नेता क्या देश को कठमुल्लापन की और ले जाना चाहते हैं यह नहीं चलने वाला है।
ऐसा नहीं है कि देश में भाषा को लेकर इस तरह का विवाद पहली बार खड़ा हुआ है, यह सिलसिला बरसों से चला आ रहा है। भाजपा के शासन के दौर में इसमें तल्खी थोड़ी और बढ़ गई है। बहरहाल, पहले देख लेते हैं कि श्री योगी ने उर्दू का विरोध करते हुए कैसे अपनी ही पोल खोल दी। ग्रामीण अंचलों में शिक्षा की हालत कितनी खराब है, इस सच से हर कोई वाकिफ है।
संपन्न ग्रामीण अपने बच्चों को शहरों में भेजकर पढ़ाने का खर्च उठा सकते हैं, लेकिन गरीब ग्रामीणों के लिए गांव के विद्यालय में बच्चों को भेजने की मजबूरी होती है, जहां कई तरह के अभावों में बच्चों को पढ़ाने की औपचारिकता निभाई जाती है। देश की साक्षरता दर में इजाफा होता है कि इस साल इतने बच्चों ने दाखिला लिया, हालांकि इसमें कितने बच्चे विद्यालय में टिक पाते हैं, यह अलग मंथन का विषय है। इन स्कूलों में शौचालय जैसी मूलभूत सुविधा भी अक्सर नहीं होती है, जिस वजह से लड़कियां स्कूल नहीं जा पाती हैं।
गांवों के स्कूलों की बदहाली किसी एक राज्य या किसी एक सरकार में हुई है, ऐसा नहीं है। पूरे देश में यही हाल है। लेकिन इस बात को सरकारें स्वीकार नहीं करती हैं, बल्कि कभी भूले-बिसरे किसी नेता, मंत्री या शिक्षा अधिकारी के दौरे स्कूलों में हों, तो वहां साज-सज्जा कर कमियां छिपाने की कोशिश की जाती है। मंत्री और अधिकारी दोनों इस सच से वाकिफ होते हैं, लेकिन इसे सुधारने की कोशिश बिरले ही किसी ने की होगी।
अच्छा है कि मुख्यमंत्री योगी ने विधानसभा में आधिकारिक तौर पर यह बात स्वीकार कर ली कि गांवों के स्कूलों में संसाधन नहीं हैं। अब उनसे सवाल किया जा सकता है कि आप लगातार दूसरा कार्यकाल उत्तरप्रदेश में संभाल रहे हैं, फिर भी अगर आप गांवों के स्कूलों में संसाधन न होने की बात स्वीकार कर रहे हैं, तो इसमें दोष क्या आपका ही नहीं है। जब उप्र सरकार अयोध्या में हर साल करोड़ों रूपए के दिए जला सकती है, जब महाकुंभ के आयोजन में पानी की तरह पैसा बहाया जा सकता है, जब कांवड़ यात्रियों पर हेलीकॉप्टर से फूल बरसाने का खर्च भी सरकारी खजाने से किया जा सकता है, तो गांवों के स्कूलों में संसाधन जुटाने का खर्च अब तक क्यों नहीं किया गया।
हालांकि इस बात की उम्मीद कम ही है कि श्री योगी कभी ऐसे किसी सवाल का जवाब देंगे। उप्र के ग्रामीण स्कूलों में संसाधन जुटें या न जुटें नाम बदलने की कवायद जारी है।
हाल ही में परमवीर चक्र विजेता शहीद अब्दुल हमीद के नाम पर गाजीपुर में उनके पैतृक गांव धामूपुर में बने विद्यालय का नाम बदल दिया गया, गनीमत रही कि इस पर फौरन ही आपत्ति दर्ज हुई और गलती को मानते हुए इसे सुधारा गया। शिक्षा विभाग ने विद्यालय का नाम 'शहीद वीर अब्दुल हमीद पीएमश्री कंपोजिट विद्यालय' करने का निर्णय लिया है, साथ ही भविष्य में ऐसी गलतियां नही हों, इसके लिए उनके नाम को विद्यालय के अभिलेख में भी दर्ज करने की योजना बनाई गई है। विद्यालय के प्राचार्य ने अब्दुल हमीद के बेटे जैनुल हसन से इस भूल के लिए माफी भी मांग ली है। हालांकि यह महज भूल नहीं है, बल्कि इसमें सांप्रदायिक सोच ही नजर आ रही है।
नाम बदलने की सोच रखने वालों को अब्दुल हमीद ही नजर आया होगा, उसके आगे लगे शहीद का दर्जा देखने की जहमत नहीं उठाई गई। और अगर इस नाम के साथ परमवीर चक्र विजेता या शहीद का दर्जा न भी जुड़ा होता, तब भी अब्दुल हमीद नाम पर आखिर तकलीफ क्यों है। वहां पढ़ाई किस तरह की हो रही है, बच्चों को किस तरह भविष्य के लिए तैयार किया जा रहा है, असल सवाल तो यही होने चाहिए। लेकिन भाजपा हर मामले में हिंदू-मुसलमान की राजनीति ही ले आती है।
उप्र विधानसभा में मंगलवार के बाद बुधवार को भी उर्दू को लेकर विवाद हुए और मुख्यमंत्री योगी ने एक शायरी सुनाई और कहा कि ध्यान देना, यह उर्दू में नहीं है। श्री योगी ने शायरी पढ़ी-
बड़ा हसीन है इनकी जुबान का जादू, लगा के आग बहारों की बात करते हैं
जिन्होंने रात को चुन-चुन के बस्तियों को लूटा वही अब बहारों की बात करते हैं
अब इस शायरी पर भाजपा के लोग बेशक दाद दें, लेकिन इसमें भाजपा नेताओं और सरकारों की संकीर्ण सोच ही दिखती है। एक बार मशहूर शायर जावेद अख्तर ने कहा था कि उर्दू का संबंध रीजन से है, रिलीजन से नहीं। यानी उर्दू का संबंध क्षेत्र से है, धर्म से नहीं। लेकिन संघ और उससे जुड़े लोगों ने हमेशा से पूरे देश में उर्दू को मुसलमानों से जोड़कर अनावश्यक विवाद खड़ा करने की कोशिश की। कभी दीवाली को जश्न ए चरागां कहा गया तो उस पर आपत्ति जताई गई, किसी ब्रांड के उत्पाद में अरबी में लिखा गया तो उसे धर्मभ्रष्ट करना बता दिया गया। उप्र विधानसभा में भी यही कोशिश दिखी। जबकि उर्दू देश के बड़े हिस्से में बोली और समझी जाती है।
गौरतलब है कि उर्दू तुर्की भाषा के शब्द 'ओर्दू' से निकला है, जिसका मतलब होता है सैन्य शिविर। 12वीं सदी में जब भारत के उत्तरी इलाकों में आक्रमण हुए और फारसी बोलने वाली फौज ने लाहौर, और दिल्ली होते हुए उत्तर भारत के इलाके को छुआ तो उस फौज का संपर्क ब्रज भाषा से हुआ, और फिर दो जुबानों के मेल से उर्दू वजूद में आई। 1780 तक उर्दू को हिन्दवी, रेख़्ता, रेख़्ती, देहलवी या हिंदुस्तानी कहा जाता रहा, बाद में इसे उर्दू नाम मिला और इसी उर्दू में मुंशी प्रेमचंद जैसे महान कहानीकार ने न केवल शिक्षा हासिल की, बल्कि उनका शुरुआती लेखन भी उर्दू में ही रहा। न जाने कितने अनमोल हिंदू और मुसलमान शायर इस ज़बान ने दिए और हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब को और मजबूत किया। और जहां तक सवाल मौलवी बनने का है, तो श्री योगी इस बात को याद कर लें इसके लिए उर्दू की नहीं, अरबी भाषा की जरूरत होती है, क्योंकि पवित्र कुरान अरबी भाषा में लिखी हुई है।
दिलचस्प बात ये है कि श्री योगी का भाषायी पूर्वाग्रह या दुराग्रह उस समय सामने आया जब कतर के अमीर शेख तमीम बिन हमद अल-थानी भारत दौरे पर आए थे और लोगों की कपड़ों से पहचान करने का नुस्खा बताने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने प्रोटोकाल तोड़कर विमानतल पर गले लगाकर उनका स्वागत किया। कतर से हमारी ऊर्जा जरूरतें काफी हद तक पूरी होती हैं और 29 लाख की आबादी वाले इस देश में आठ लाख भारतीयों को भी रोजगार मिला हुआ है। यानी श्री मोदी मुनाफे की भाषा अच्छे से समझते हैं। और वहीं देश में भाषा के नाम पर अनावश्यक धार्मिक विवाद खड़े करते हुए भाजपा अपना दोहरा चरित्र दिखाती है।