महाराष्ट्र का चुनावी चमत्कार
हरियाणा की अप्रत्याशित जीत के बाद महाराष्ट्र की भारी जीत से भाजपा और उसका वर्तमान नेतृत्व गदगद है और लोक सभा चुनाव में मिले झटके को काफी पीछे छोड़ चुका है;
- अरविन्द मोहन
नतीजों ने सबको चौंकाया- सबको माने जीते लोगों को भी। दोनों गठबंधनों के बीच 14 फीसदी वोट का अंतर आ गया अर्थात लोक सभा चुनाव की तुलना में महायुति को पंद्रह फीसदी का लाभ हुआ। और अघाडी की ऐसी हार हुई कि किसी दल को विपक्ष का नेता बनने लायक सीटें नहीं मिलीं।
हरियाणा की अप्रत्याशित जीत के बाद महाराष्ट्र की भारी जीत से भाजपा और उसका वर्तमान नेतृत्व गदगद है और लोक सभा चुनाव में मिले झटके को काफी पीछे छोड़ चुका है। उसके पुराने तेवर भी वापस हो गए हैं और मीडिया का समर्थन भी। इस बीच उसने अपना कोर्स करेक्शन किस तरह किया इस बारे में बड़े दावे हैं तो विपक्ष की भूलों (खासकर हरियाणा के मामले में) को लेकर भी कांग्रेस के अंदर और चुनावी पंडितों के बीच काफी गरमा-गरम चर्चा जारी है। इस बीच हरियाणा और अब महाराष्ट्रकी जीत में अपने कार्यकर्ताओं की बड़ी भूमिका को लेकर एक और दावेदार-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सामने आ चुका है। वह भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की उस अपमानजनक टिप्पणी को भुला चुका है या अपना अपना पलड़ा ऊपर रखने में इस्तेमाल कर रहा है जिसमें उन्होंने कहा था कि अब भाजपा खुद से इतनी बड़ी और शक्तिशाली हो गई है कि उसे संघ के समर्थन की जरूरत नहीं रह गई है। लेकिन इन सबके बीच महाराष्ट्र की जीत का आश्चर्य सबके चेहरे पर बना हुआ है क्योंकि इसी महाराष्ट्र में पांच महीने हुए चुनाव में भाजपा की अगुवाई वाली महायुति कांग्रेस की अगुवाई वाले महा विकास अघाडी से 30-17 से पिछड़ गई थी।
तब यह भी दिखा था कि कांग्रेस का संगठन काफी नीचे स्तर तक काम करने लगा है और शिवसेना तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस के विभाजन से नाराज मराठी मतदाताओं ने शरद पवार और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले धड़ों को ही असली पार्टी माना और तोड़-फोड़ कराने वाली भाजपा के खिलाफ उनके मन में गुस्सा है। यही कारण है कि सरकार होने और तीन दलों का मजबूत गठजोड़ होने के बावजूद महायुति को अघाडी की तुलना में एक फीसदी कम वोट मिला था। सीटों का हिसाब तो एकदम उलट गया था और जब महाराष्ट्र के चुनाव हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधान सभाओं के साथ न कराके बाद में कराने का फैसला लिया गया तो इसे महायुति के डर से जोड़ा गया। बीच में सरकार ने कुछ लोक-लुभावन कार्यक्रमों चुनाव के दौरान महायुति में ज्यादा खटर-पटर रही और अजित पवार के नेतृत्व वाला एनसीपी तो कई बार महायुति की लाइन से एकदम अलग चलती लगी। मतदान के बाद एक्•िाट पोलों में भी लड़ाई करीबी बताई गई हालांकि महायुति को बढ़त दिख रही थी। चुनाव का सबसे अच्छा अंदाजा रखने वाले उम्मीदवार और चुनाव के मुख्य खिलाड़ी नतीजे आने तक बहुत करीबी लड़ाई का अंदाजा लगाते रहे, विधायकों की 'घोडामंडी' में अपने खेमे को बचाने की तैयारी घोषित रूप से करते रहे।
नतीजों ने सबको चौंकाया- सबको माने जीते लोगों को भी। दोनों गठबंधनों के बीच 14 फीसदी वोट का अंतर आ गया अर्थात लोक सभा चुनाव की तुलना में महायुति को पंद्रह फीसदी का लाभ हुआ। और अघाडी की ऐसी हार हुई कि किसी दल को विपक्ष का नेता बनने लायक सीटें नहीं मिलीं। जीत पर खुशी और हार पर वोटिंग मशीन का दोष बताने वाले विपक्ष की तरफ से इस बार भी यह स्वर उठा लेकिन पहले की तुलना में कम ऊंचा और कम लोगों ने उस पर भरोसा किया। लेकिन मशीन पर शक की जगह चुनाव आयोग और उससे भी बढ़कर चुनाव की स्थानीय मशीनरी (जो राज्य सरकार के अधीन ही होती है) पर शक ज्यादा किया गया। हरियाणा चुनाव में यह स्वर मद्धिम था। पड़े मतों के हिसाब में लगातार ऊपर-नीचे होने का हिसाब हर किसी को शक का आधार देता है और दुर्भाग्य से अभी तक चुनाव आयोग इसकी कोई बहुत भरोसे लायक सफाई नहीं दे पाया है। मध्य प्रदेश के बाद हरियाणा चुनाव में भी यह सवाल जोर से उठा था। वोटिंग मशीन या इस गिनती पर सवाल उठाने वालों को भी गड़बड़ के ज्यादा ठोस प्रमाण के साथ आगे आने की चुनौती है और उसके बगैर उनकी बात अविश्वसनीय ही बनी रहेगी।
इस सवाल के जोर पकड़ने का कारण यह भी है कि पांच महीनों के दौरान राज्य सरकार का कोई काम इतना बड़ा न दिखा कि वह पंद्रह फीसदी वोट दूसरी तरफ करा दे। सबसे भरोसेमंद और व्यावसायिक समेत हर तरह के दबाव से काफी हद तक मुक्त माने जाने वाले सीएसडीएस के पोस्ट-पोल के आंकड़े भी इस शक को बढ़ाते हैं। उसमें महायुति को बढ़त दिखती है लेकिन सिर्फ चार फीसदी वोटों की ही। नतीजों के बाद के विश्लेषणों में जिस लाडली बहना योजना को भारी फर्क लाने वाला बताया जा रहा है उसे सर्वे में आए 2 से 3 फीसदी लोगों ने फायदा देने वाला माना जबकि किसानों के उपज का मूल्य, महंगाई और बेरोजगारी को मतदान का आधार बताने वालों का अनुपात उससे ज्यादा था। आम राय ही नहीं महायुति के की नेताओं और अजित पवार दल का घोषित मानना था कि 'बंटेंगे तो कटेंगे' जैसे नारों से महाराष्ट्र में चुनाव नहीं लड़ा जा सकता। अजित पवार के इरादों पर शुरू से अंत तक अविश्वास करने वालों का मानना था कि यह भी उनकी और महायुति की एक रणनीति हो सकती है। इतना एकतरफा चुनाव बिना किसी लहर या भावनात्मक उभार के बगैर नहीं हो सकता, इस बात के पक्ष में कोई तर्क या सबूत नहीं आ रहा है।
चुनाव बीतने और धूल बैठने के बाद इस सवाल पर गौर करने पर लगता है कि भाजपा की अगुवाई वाली महायुति को अपनी राज्य और केंद्र की डबल इंजन सरकार के फैसलों और लोक सभा चुनाव के बाद किए कोर्स करेक्शन से जितना फायदा नहीं हुआ उतना हिन्दू मुसलमान सवाल को केंद्र में रखने से हुआ। भाजपा ने इसके सहारे अपने बिखरे-छिटके मतदाताओं को वापस अपनी तरफ समेटा बल्कि उसने जनाब उद्धव ठाकरे को सेकुलर कांग्रेस के खेमे में जाने को बाल ठाकरे की राजनीति उलटने वाला बनाने का जतन किया। इससे भी फायदा हुआ। चुनाव टालकर कोर्स करेक्शन करना और एक साथ पांच किस्त का पैसा लगभग ढाई करोड़ महिलाओं के खाते में भेजना भी लाभकर रहा। विपक्ष का सुस्त होना या नए मुद्दे न उठा पाना भी कारण बना और अंतिम धक्का मुल्ले मौलवियों ने बाजाप्ता प्रेस कांफ्रेंस करके अघाडी के पक्ष में 'फतवा' जारी करके दिया। लोकतांत्रिक चुनाव में अलोकतांत्रिक ढंग से चुने गए मुल्ला मौलवियों को यह विरोधाभास समझ न आया होगा लेकिन आम मतदाता तो यह समझ गया। खास तौर पर तब जब यह समझ आने के लिए भाजपा, संघ और लगभग पूरी मीडिया तत्पर बैठी थी।