रेणु से पहचान को विस्तार सहित गहराता अंक
अभी इस पत्रिका का फणीश्वरनाथ रेणु शताब्दी स्मरण अंक आया है। आपकी क्या प्रतिक्रिया है;
(बनास जन रेणु शताब्दी स्मरण अंक)
प्रो नवल किशोर से डॉ ललित श्रीमाली की बातचीत
आपका बनास जन से जुड़ाव रहा है। अभी इस पत्रिका का फणीश्वरनाथ रेणु शताब्दी स्मरण अंक आया है। आपकी क्या प्रतिक्रिया है
बनास जन से मेरा जुड़ाव है, लेकिन प्रत्यक्ष नहीं अप्रत्यक्ष। इसलिए आपने पूछा है तो मैं संकोच छोड़ एक पाठक के नाते अपनी प्रतिक्रिया दे रहा हूँ। पहले भी बनास जन के जो कई विशेषांक निकले हैं, उनका भी अच्छा स्वागत हुआ है और उन्हीं के जरिए अपने सामान्य अंकों के साथ बनास जन ने अपनी ख़ास पहचान बनाई है।
अन्य विशेषांकों में पल्लव ने अतिथि संपादक का सहयोग भी लिया है, यह अंक अकेले ही निकाला है। शताब्दी-स्मरण पर निकले अन्य पत्रिकाओं के अंकों की तुलना में यह अंक भारी-भरकम है तो इसलिए कि यहाँ संपादक ने रेणु की समग्र सर्जनात्मकता कथा और कथेतर के पुन: स्मरण और पुनर्मूल्यांकन का प्रयास किया है. हम यहाँ लगभग सारे रेणु साहित्य पर फिर से निगाह डालते हैं।
दृष्टिसंपन्नता के साथ 15 प्रभागों में 45 लेखों और तीन सौ साठ पृष्ठों में रेणु-चर्चा संयोजित की गई है। वरिष्ठ लेखकों की तुलना में और उभरते नए लेखक-आलोचक कहीं अधिक हैं। रेणु संबंधित पूर्व प्रसिद्ध किसी आलेख को दोहराने के मोह से बचा गया है। कुल मिलाकर अंक रेणु से हमारी पहचान को विस्तार सहित गहराता है।
थोड़े विस्तार से बताएंगे तो अच्छा लगेगा।
सबसे पहले प्रभाग को ही लें। पहला आलेख भारत यायावर का रेणु जन्मकथा। भारत जी रेणु के रंग में इतने रंगे हैं कि उनकी कलम से एक शिशु जन्म कथा एक बड़े कथा गायक के अवतरा की एक अति रोचक और असाधारण कहानी बन गई है। दूसरा आलेख रेणु के ही अंचल के उनके अनुवर्ती कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर का है, जो प्रसिद्ध होते और शिखर छूते रेणु से हमें मिलाता है।
तीसरा आलेख संजय जायसवाल का है, जिसमें उन्होंने रेणु की जीवन-यात्रा और साहित्य साधना को समानता में रखते हुए रेणु के महत्व को सही शब्दों में बखाना है। रेणु सच में ऐसे मनई और ऐसे लेखक थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन सबार ऊपरे मानुष सच को बचाने में लगा दिया।
आप उपन्यासों के आलोचक रहे हैं। अंक में मैला आँचल जैसे उपन्यास पर पूरा खंड है। आप उस पर कुछ कहेंगे।
दूसरे प्रभाग में रेणु सृजन के कीर्ति-स्तंभ मैला आँचल को लिया गया है। कुछ ही अरसा पहले मैंने नया पथ के अप्रैल-जून 2020 के डिजिटल संस्करण में नित्यानंद तिवारी जी का इस उपन्यास पर पुनर्लिखित लेख पढ़ा था। आंचलिकता जुगत डिवाइस नहीं वास्तविकता है। वे जोर देकर कहते हैं कि कोई रचना सिर्फ साहित्यिक कारणों से युगांतरकारी नहीं होती।
समाज और जीवन में उभरी नयी वास्तविकता का साक्षात्कार उसे ऐसा बनाता है। रेणु इस उपन्यास में कथानक की जगह देस को देते हैं। इस देस का गरीब किसान, मजदूर अज़हद गरीबी में भी अद्भुत साहस का धनी है। जिसे हमने अभी हाल लॉकडाउन में उसके देस लौटते में देखा भी है। मुझे पता नहीं समुद समाना बूँद में सोकत हेरा जाए की लेखिका रेणु व्यास ने नया पथ वाला लेख पढ़ा है या नहीं, अगर पढ़ा भी हो तो फर्क नहीं पड़ता।
यही बात उसने अपने ढंग से विचारी और लिखी है. कोरोना काल में इस भूखे पूर्णिया को फिर से कटिहार से अपने मेरीगंज तक वापसी का रास्ता तय करना पड़ा. साइकिल पर, पैदल, नंगे पैर, लाठी-डंडा खाते हुए। खुद झरथमाता हो रही है। यह एक उदाहरण है कि किस तरह यहां रेणु की रचनाओं पर लेखकों ने अध्यापकीय लेखन न कर समकालीन संदर्भ में कुछ नया लिखने का प्रयास किया है।
आपने भी इस अंक के इस प्रभाग में लिखा है। तो उस पर कोई टिप्पणी।
इस प्रभाग में कुछ लेख सचमुच कुछ नया सा करते लगते हैं। अब विस्तार में मैं नहीं जाना चाहूँगा। समीक्षा की ओर बढ़ना मेरे लिए उचित नहीं होगा। परती परिकथा पर अपने लेख के बारे में सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि इसमें रेणु के महत्व स्वीकार संबंधी अविस्मरणीय विवाद की ओर संकेत है।
इस अंक का सबसे यादगार लेख किसे कहेंगे
हाँ, मैं यह अवश्य कहना चाहूंगा कि इसका सबसे अनूठा लेख शीर्ष चिंतक-आलोचक रवि भूषण का है। रेणु साहित्य में बजते वाद्ययंत्र। एकदम अछूता विषय। रवि भूषण जी जैसा संगीत-प्रेमी ही रेणु के विलक्षण ध्वनि ज्ञान से हमें अवगत करा सकता था। यह संसार ध्वनिमय है, गंधमय है, लययुक्त और संगीत युक्त है। रेणु ने उसे सुना नहीं, जिया भी है और क्या रेणु शत वार्षिकी में इसे नहीं सुना जाना चाहिए।
अंत में आपका आभार।
अंत में केवल इतना कि संपादक को साधुवाद। निजी रिश्ते से अलग पाठक के नाते।
तब देख बहारें होली की
नज़ीर अकबराबादी
जब फ़ागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारे होली की
ख़म शीशए जाम छलकते हों तब देख बहारे होली की
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारे होली की
हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़ो अदा के ढंग भरे
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़के रंग भरे कुछ ऐश के दम मुंहचुग भरे
कुछ घुंघरू ताल झनकते हों तब देख बहारे होली की