कांग्रेस महाधिवेशन : उत्साह के बीच ऐतिहासिक भूमिका निभाने का अवसर
लोगों को स्वतंत्रता व अधिकारों के प्रति जागरूक करते रहना एक अनवरत प्रक्रिया है;
- डॉ. दीपक पाचपोर
लोगों को स्वतंत्रता व अधिकारों के प्रति जागरूक करते रहना एक अनवरत प्रक्रिया है। यह काम सरकार से कहीं अधिक विपक्ष का है। इसी लिहाज से एक मजबूत विपक्ष ज़रूरी है। इस साल के चुनावों वाले राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनें या न बनें, अगले साल के लोकसभा के चुनाव में वह जीते या न जीते, लोगों की कांग्रेस से अपेक्षा है कि अकेली पार्टी के रूप में हो या संयुक्त विपक्ष के रूप में, सरकार से बड़ा प्रतिरोध का मंच बनाने की जिम्मेदारी उसी की है।
'भारत जोड़ो यात्रा' की सफलता, नये कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे की ताजपोशी, कई-कई मुसीबतों से केन्द्र व अनेक राज्यों की सत्ता में बैठी भारतीय जनता पार्टी की होती घेराबन्दी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की धूमिल होती छवि के चलते उत्साह से लबरेज कांग्रेस छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में इसी शुक्रवार से अपना तीन दिवसीय महाविधेशन ऐसे वक्त में करने जा रही है जब उत्तर-पूर्व के 3 राज्य विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और उन्हें मिलाकर कुल 9 राज्यों (अगर जम्मू-कश्मीर के भी हुए तो 10) में उसे मतपेटियों के समक्ष परीक्षा देनी है। अगले ही साल यानी 2024 में देश के आम चुनाव भी होंगे। महाधिवेशन न केवल अपने आप को मुकाबले के लिये तैयार करने का अवसर होगा बल्कि यह भी देखना होगा कि जिस विपक्षी एकता की उससे नेतृत्व करने की अपेक्षा की जा रही है, वह उसके लिये तैयार होती है या नहीं। कांग्रेस की सतत मजबूती ने इस प्रकार का माहौल खड़ा कर दिया है कि देश की ज्यादातर विपक्षी पार्टियां उसके साथ आने के लिये अब तैयार हैं।
देश के सबसे पुराने व ऐतिहासिक महत्व के राजनैतिक दल के इस समागम में यह तय हो जायेगा कि क्या कांग्रेस इस उत्तरदायित्व का निर्वाह अन्य दलों के साथ मिल-जुलकर निभाने की हामी भरती है या मोदी-भाजपा सरकार के सामने मैदान में अकेले ही उतरने की चुनौती स्वीकारेगी। संकेत तो यही हैं कि वह गिने-चुने राज्यों में ही चुनाव पूर्व गठबन्धन करेगी और जिन राज्यों में उसका स्थानीय दलों के साथ वैचारिक व सैद्धांतिक मतभेद है वहां वह 'एकला चलो रे' की राह पकड़ेगी। जो भी हो, रायपुर महाधिवेशन इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत का लोकतांत्रिक भवितव्य देश के मध्य में स्थित इस राज्य से तय होगा। इस आयोजन का महत्व इस बात से भी लगाया जा सकता है कि बौखलाई हुई भाजपा ने अपनी परम्परा के अनुसार इस सम्मेलन के प्रारम्भ होने के ऐन पहले अपनी जांच एजेंसी ईडी को ही मैदान में उतार दिया है। देखना होगा कि क्या कांग्रेस डर के आगे जीत की मंजिल को साध सकेगी?
यह महाधिवेशन पिछले कुछ वर्षों के हुए कांग्रेस सम्मेलनों की तुलना में काफी अलग तरह की भूमिका एवं सन्दर्भों के साथ होने जा रहा है। बहुत पहले न जायें तो पिछला एक दशक ही देखें 2013 के भाजपा के दुष्प्रचार तंत्र का मुख्य निशाना कांग्रेस ही रही। भाजपा व उसकी मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रणीत प्रचार में स्वतंत्रता संग्राम से लेकर भारत के नवनिर्माण में उसकी भूमिका व योगदान को नकारने या बदनाम करने, उस परम्परा के राष्ट्र नायकों को लांछित करने, कांग्रेसमुक्त भारत जैसी अलोकतांत्रिक अवधारणा की स्थापना करने व उस एजेंडे को आगे बढ़ाने, एक समावेशी संविधान के प्रति लोगों की आस्था को मिटाने, देश को सम्प्रदाय व जातियों के आधार पर विभाजित करने आदि ऐसे सुनियोजित कृत्य किये गये जिसके कारण कांग्रेस लगातार सिमटती गई। जिन मूल्यों, सिद्धांतों व आदर्शों के बल पर कांग्रेस ने मेलजोल वाला देश रचा था, उसे विभिन्न नीतियों व कार्यक्रमों के जरिये पिछले 9 वर्षों के मोदी काल में तहस-नहस कर दिया गया। अपने स्तर पर कांग्रेस अपने मूल्यों के लिये लड़ती तो रही परन्तु उसकी राजनैतिक शक्ति चुनावी पराजयों व भाजपा के उन उपायों के कारण घटती चली गई जिनमें विरोधी दलों के जनप्रतिनिधियों व नेताओं को प्रलोभन देकर खरीदना या डरा-धमकाकर अपने खेमे में लाना शामिल है। पूरी सरकारी मशीनरी एवं संवैधानिक संस्थाओं को इसी काम में लगा दिया गया कि कांग्रेस समेत सारे विरोधी विचारधारा वाले लोग, संगठन व दल नेस्तनाबूद हो जायें।
2019 में दोबारा बड़ा बहुमत हासिल कर जब मोदी लौटे, वे अधिक स्वच्छंद होकर काम करने लगे। संवाद और सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना उनमें पहले ही से नहीं थी, अधिक शक्ति ने उन्हें पहले से भी अधिक स्वेच्छाचारी बना दिया। विरोधी दलों को कुचलकर कई राज्यों में हारने के बाद भी सरकारें बनाई गईं। अनेक विपक्षी दलों के नेताओं, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं आदि को खास निशाने पर लिया गया। बड़ी संख्या में लोग अब भी जेलों में हैं। सत्ता से जुड़े कुछ कारोबारियों के हाथों में तमाम उपक्रम बेचे जाने या औने-पौने भावों में सौंपने को राष्ट्रहित में बताया गया। सम्पत्ति कुछ हाथों में सिमटती गई और देश गरीब होता गया।
यह बात हमेशा याद रखी जायेगी कि आजादी की लड़ाई में देश का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस के कुछ लोग ही सही, इस सबके बाद भी भाजपा सरकार के खिलाफ डटकर खड़े रहे। जिस गांधी परिवार के तीनों प्रमुख सदस्यों- सोनिया, राहुल व प्रियंका को डराया या बदनाम किया जाता रहा, वे अविचलित रहे और चुनौतियों को स्वीकार करते रहे। 7 सितम्बर, 2022 को राजनीति ने नई करवट ली। देश में लोगों के बीच नफ़रत मिटाने के लिये राहुल गांधी कन्याकुमारी से कश्मीर तक साढ़े तीन हजार किलोमीटर पैदल चले। इस यात्रा में जहां एक ओर वे लोगों से मिलते गये वहीं वे देश की समस्याओं को सुनते और मोदी सरकार की करतूतों का पर्दाफाश करते चले।
लोगों को निर्भीक बनाने उन्होंने 'डरो मत' का नारा दिया। जिसका मजाक उड़ाने और भाजपा-संघ व उनके करोड़ों सदस्यों ने अरबों रुपये फूंक दिये, उसी राहुल ने मोदी को अपनी प्रेस कांफ्रेंसों व आम सभाओं में बेनकाब कर दिया। देश में मोदी ने किस प्रकार घृणा फैलाई, कैसे अपने मित्र उद्योगपति व कारोबारी मित्रों को उन्होंने लाभ पहुंचाया, क्योंकर आज देश में भीषण गरीबी व भुखमरी है- यह सब खोलकर रख दिया। भाजपा की बेचैनी इसलिये और बढ़ गई है क्योंकि बीबीसी फिल्म, हिंडनबर्ग व फोर्ब्स की रिपोर्ट, जार्ज सोरोस आदि के चलते मोदी की छवि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बिखर गई है। जिस कांग्रेस को प्रयोजनहीन व अप्रासंगिक बतलाने की कोशिशें भाजपा व संघ करते रहे, वह कांग्रेस फीनिक्स की तरह अपनी ही राख से खड़ी होती दिख रही है।
सच कहा जाए तो रायपुर के इस महाधिवेशन में कांग्रेस 3570 किलोमीटर की यात्रा करके आ रही है। 138 वर्षों से उसकी यह यात्रा सतत जारी है। इस यात्रा ने पार्टी को नवजीवन प्रदान किया है। अब देखना यह है कि महाधिवेशन के करीब डेढ़ हजार पदाधिकारी कैसी रणनीति बनाते हैं जो देश में संविधान सम्मत ऐसा समाज बनाने का मार्ग प्रशस्त करे जिसमें समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व और धर्मनिरपेक्षता के मूल्य पुर्नस्थापित हों। वह समाज जो समावेशी हो और जिसमें सभी लोगों व वर्गों की व्यक्तिगत व सामूहिक तरक्की की राहें खुलती हों। वह समाज जो गैर बराबरी को नकारे और एक न्यायपूर्ण देश की नींव को मजबूत करे।
लोगों की अपेक्षाएं पहले के मुकाबले कांग्रेस से बढ़ी हैं क्योंकि वे अब जान गये हैं कि देश का नेतृत्व करने और उसे मजबूती प्रदान करने में केवल वही सक्षम है। अन्य विपक्षी पार्टियों का व्यवहार भी यह देश पिछले 9 सालों से देख रहा है। जिस निर्भीकता और मुखरता से कांग्रेस ने भाजपा और उसकी सरकारों के खिलाफ आवाजें उठाई हैं, उसकी विश्वसनीयता और स्वीकार्यता दोनों ही बढ़ी है। जिन लोगों में नागरिक बोध है, वे जानते हैं कि जिस मात्रा में लोगों के, खासकर नई पीढ़ी में झूठ के जरिये ज़हर भरा गया है, रातों-रात परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती। लोगों को स्वतंत्रता व अधिकारों के प्रति जागरूक करते रहना एक अनवरत प्रक्रिया है।
यह काम सरकार से कहीं अधिक विपक्ष का है। इसी लिहाज से एक मजबूत विपक्ष ज़रूरी है। इस साल के चुनावों वाले राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनें या न बनें, अगले साल के लोकसभा के चुनाव में वह जीते या न जीते, लोगों की कांग्रेस से अपेक्षा है कि अकेली पार्टी के रूप में हो या संयुक्त विपक्ष के रूप में, सरकार से बड़ा प्रतिरोध का मंच बनाने की जिम्मेदारी उसी की है। इतिहास ने उसे एक बार फिर से यह अवसर दिया है।
(लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)