यात्रा से पहले देवड़ा के जरिए माहौल खराब करने की कोशिश

राहुल की दूसरी यात्रा शुरु होने से पहले मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद देवड़ा यह कहकर कांग्रेस छोड़ गए कि 55 सालों का संबंध खत्म! 55 साल तो उनकी उम्र भी नहीं है;

Update: 2024-01-15 02:44 GMT

- शकील अख्तर

राहुल की अकेली हिम्मत से यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। उन्हें टीम बनाना होगी। अभी खरगे जी ने जो टीम बनाई है वह नई बोतल में पुरानी शराब है। कांग्रेस में काम करने वालों की कमी नहीं है। मगर उन्हें जिस तरह इन्दिरा गांधी या भाजपा में आडवानी ढूंढ कर निकालते और तराशते थे वह काम अब नहीं हो रहा है। भाजपा में तो जरूरत नहीं है। वह अब केवल मोदी की दम पर चलने वाली पार्टी बन गई है। मगर कांग्रेस को जरूरत है निष्ठावान लोगों को आगे लाने की। जो पार्टी और नेतृत्व दोनों के प्रति वफादार हों।

राहुल की दूसरी यात्रा शुरु होने से पहले मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद देवड़ा यह कहकर कांग्रेस छोड़ गए कि 55 सालों का संबंध खत्म! 55 साल तो उनकी उम्र भी नहीं है। केवल 47 साल के हैं। मगर वे अपने उन पिता के कांग्रेस के संबंधों को भी अपने साथ ले जा रहे हैं, जिन्होंने कांग्रेस की वजह से ही मुंबई में खूब नाम और उससे ज्यादा पैसा बनाया। सीकर राजस्थान से वे मुंबई गए और वहां राजनीति और व्यवसाय दोनों में कांग्रेस की मदद से स्थापित हुए। बेटे मिलिंद को खुद दोनों क्षेत्रों में कोई मेहनत नहीं करना पड़ी। पिता के कांग्रेसी संबंधों की वजह से सब बना बनाया मिला। दस साल पूरे 2004 से 14 तक यूपीए सरकार में मंत्री रहे। अभी कांग्रेस में उनके किसी पैरोकार ने उन्हें पार्टी का उप कोषाध्यक्ष भी नियुक्त करवा दिया था। मगर उन्होंने कांग्रेस को धोखा देने के लिए ठीक समय चुना। जब रविवार को राहुल अपनी यात्रा शुरू करने वाले थे तो उन्होंने कहा कि- मैं 55 साल के संबंध खत्म करके यहां से जा रहा हूं। कोई उनसे पूछे कि 55 साल में उनके पिता और खुद उन्होंने जो पैसा और नाम कमाया है क्या वह भी वापस करके जा रहे हैं।

राजस्थान से उनके पिता क्या लेकर निकले थे। यह भी बता दें! मगर कांग्रेस में कोई पूछने वाला नहीं। उनसे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह भी यूपीए के दस साल मंत्री पद का सुख भोग कर 2014 के बाद पार्टी छोड़ चुके हैं। और यह क्या! लगभग 45 साल सरकार में मंत्री और संगठन में टाप पदाधिकारी रहने वाले गुलाम नबी आजाद तक कांग्रेस छोड़ गए। जिन्हें अगर 1977 में उस समय के जम्मू-कश्मीर के कांग्रेस अध्यक्ष मुफ्ती मोहम्मद सईद दिल्ली लाकर इन्दिरा जी के पास नहीं छोड़ जाते तो वे अभी तक किश्तवाड़ ( डोडा) में नगरपालिका और पंचायत के चुनाव लड़ रहे होते।

वह तो राहुल गांधी डरे नहीं, लड़ते रहे। लगातार सफल हुए तो कांग्रेस छोड़ कर जाने वालों की तादाद थोड़ी रुकी रही। नहीं तो जो गैंग 23 ( जी-23) बनाई थी। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को जो पत्र संयुक्त रूप से लिखा था, के बाद सब भागने को तैयार थे। मगर एक तो भाजपा को इनमें से ज्यादातर अनुपयोगी लगे। दूसरे राहुल ने जिस तरह कोविड में मजदूरों के साथ खड़े होकर, किसानों के आन्दोलन में जाकर जो जननेता का दर्जा पाया उससे इन लोगों की उम्मीदें फिर से हरी हो गईं। कांगेसियों को मूलत: सत्ता चाहिए। संघर्ष से इनका कोई वास्ता नहीं है। कांग्रेस में एक शब्द सबसे ज्यादा चलता है। एडजस्ट! आप आश्चर्य करेंगे कि बड़े से बड़ा नेता भी यह कहते हुए पाया जाता है कि हमें कोई नहीं पूछ रहा। एडजस्ट करवा दो। अब जब हम बड़े से बड़ा नेता लिख ऱहे हैं तो आप समझ सकते हैं ये सबसे बड़े वालों पर भी समान रूप से लागू होता है।

और फिर जो एक बार एडजस्ट हो गया। वह फिर किसी को नहीं पूछता। काम तो करता ही नहीं है। सिर्फ अपनी कुर्सी बचाए रखना और दूसरों के खिलाफ साजिश करना ही उसका काम होता है। लेकिन इस सबके लिए दोषी तो सबसे ज्यादा परिवार है।

परिवार की निष्ठा और मेहनत पर तो किसी को कोई शक नहीं है। मगर इनका अंधविश्वास कांग्रेस को बहुत नुकसान पहुंचाता है। और कांग्रेस को क्या खुद इनको भी। राहुल 2019 में अमेठी हारे ही इसीलिए। 2014 से कहा जाने लगा था कि अमेठी-रायबरेली में कांग्रेस जिन लोगों के भरोसे छोड़ रखी है उनसे कार्यकर्ता बहुत दु:खी है। कार्यकर्ताओं की सुनी ही नहीं जाती है। जनता के काम नहीं हो रहे हैं। सोचिए 2004 से 14 तक केन्द्र में सरकार थी। और राज्य में भी बीजेपी की नहीं मुलायम, मायावती और अखिलेश की सरकार रही। जिन्हें बहुत मित्रवत न भी कहो तो शत्रुवत तो नहीं थे। उस समय भी यह बहाना बनाया जाता था कि राज्य में हमारी सरकार नहीं है इसलिए अमेठी रायबरेली में काम नहीं हो रहे। जबकि राहुल और सोनिया गांधी के निर्वाचन क्षेत्रों के लिए कोई मना नहीं करता था। और मान लो कोई करता भी था तो आप केन्द्र से उसकी किसी दूसरी मद में ज्यादा मदद करके अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए मदद ले सकते थे। सब नेता यही करते हैं। अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए दूसरी पार्टी की सरकारों से भी मदद लेते हैं। बदले में उनकी भी करते हैं।

मगर 2014 में राहुल बड़ी मुश्किल से जीते। आखिरी दिन उन्हें और प्रियंका का जायस में संयुक्त रैली निकालना पड़ी। जो इससे पहले कभी नहीं निकाली थी। तब कहीं जाकर जीत पाए। बाकी और भी कहानियां हैं कि कैसे सतीश शर्मा ने रात-रात भर घूम कर रूठे कार्यकर्ताओं को मनाया। कुछ जगह प्रियंका को भी रौद्र रूप दिखाना पड़ा कि-क्या मैं बताऊं कि पार्टी से तुमने क्या-क्या लिया है!

खैर 2014 तो जीते मगर हार के करीब क्यों पहुंचे थे इसके मूल कारणों पर फिर भी ध्यान नहीं दिया। नतीजा 2019 की हार थी। अब भी दोनों जगह स्थिति कोई अच्छी नहीं है। स्मृति ईरानी के कमजोर होने का मतलब राहुल का मजबूत होना नहीं है। वह भाजपा है किसी और तोप को भी अमेठी रायबरेली से उतार सकती है। रायबरेली भी अब पहले की तरह अजेय नहीं रही है। वहां भी परिवार का जीवंत संपर्क टूट गया है। बीच के लोगों से जनता और कार्यकर्ता दोनों की नाराजगी है। मगर परिवार इस मामले में किसी की नहीं सुनता है। विश्वास करना अच्छी बात है मगर मानिटर नहीं करना ( नजर नहीं रखना) राजनीति में आत्मघाती साबित होता है। 2012 के बाद यही हुआ। अन्ना का नकली आंदोलन बढ़ता गया। और जिन पर जिम्मेदारी थी वे बस खुद को बचाने में लगे रहे।

सोनिया गांधी अगर उस समय अपने हाथ में कमान लेतीं और सरकार एवं संगठन दोनों के लोगों को टाइट करतीं थीं तो अन्ना वापस महाराष्ट्र के अपने गांव में उसी तरह पहुंच जाते जैसे अब पहुंचा दिए गए हैं।

खैर वह सब अब पुरानी बातें हैं। मगर नए की इमारत बनती तो पुरानी जमीन पर ही है। और इसलिए यह सब याद दिलाने की जरूरत महसूस हुई कि एक तरफ राहुल एक नया इतिहास बनाने जा रहे हैं। देश में यह पहली बार है कि कोई नेता दूसरी बार फिर इतनी बड़ी यात्रा कर रहा हो। यह राहुल की ही हिम्मत और हौसला है। मगर क्रिकेट की तरह राजनीति भी कोई व्यक्तिगत खेल नहीं है कि एक व्यक्ति की दम पर पूरा मैच निकल जाए।

राहुल को आदमियों की परख पर ध्यान देना होगा। क्रिकेट में जितने भी कप्तान सफल हुए हैं- गांगुली, धोनी, नवाब पटौदी वह इसलिए हुए हैं कि उन्होंने अपनी टीम बनाई। दोस्ती, लिहाज, संबंध अलग चीज हैं। जीत, सफलता एक अलग चीज। वह कहते हैं ना 'खेलत में को काको गुसैंयां!' यह सुरदास का पद है। जिसमें वे बड़ी अच्छी तरह समझाते हैं कि खेल में कोई किसी का नहीं होता। बालक कृष्ण को भी कोई अतिरिक्त महत्व नहीं है।

राजनीति भी वही खेल है। वफादारी, मेहनत, त्याग सब मालूम पड़ जाता है। बस केवल दृष्टि चाहिए। राहुल सफल होते हैं भीड़ लग जाती है आसपास। मगर जब 2019 में कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देते हैं तो एक आदमी साथ में नहीं देता।

राहुल की अकेली हिम्मत से यह लड़ाई नहीं जीती जा सकती। उन्हें टीम बनाना होगी। अभी खरगे जी ने जो टीम बनाई है वह नई बोतल में पुरानी शराब है। कांग्रेस में काम करने वालों की कमी नहीं है। मगर उन्हें जिस तरह इन्दिरा गांधी या भाजपा में आडवानी ढूंढ कर निकालते और तराशते थे वह काम अब नहीं हो रहा है। भाजपा में तो जरूरत नहीं है। वह अब केवल मोदी की दम पर चलने वाली पार्टी बन गई है। मगर कांग्रेस को जरूरत है निष्ठावान लोगों को आगे लाने की। जो पार्टी और नेतृत्व दोनों के प्रति वफादार हों।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)

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