श्रमिक असंतोष बढ़ा सकते हैं नए लेबर कोड
लंबे समय से यह तर्क दिया जाता रहा है कि भारत के श्रम कानून- व्यापार, विशेष रूप से विनिर्माण क्षेत्र को कार्यप्रवण होने और देश की विकास गाथा में शामिल होने से रोकते हैं।;
—जगदीश रत्तनानी
भारत में उत्पादकता कम है, इसलिए नहीं कि भारतीय श्रमिक कम उत्पादक हैं बल्कि इसलिए कि उन्हें अधिक उत्पादक बनाने के लिए आवश्यक निवेश अक्सर कमजोर या न के बराबर होते हैं। इसके अलावा बिजनेस चेन एक ऐसे दृष्टिकोण के साथ काम करती है जो श्रम को खर्च करने के रूप में देखती है, जहां एक ढीली नियामक प्रणाली है और जहां श्रम कानून के उल्लंघन से बचना आसान है।
लंबे समय से यह तर्क दिया जाता रहा है कि भारत के श्रम कानून- व्यापार, विशेष रूप से विनिर्माण क्षेत्र को कार्यप्रवण होने और देश की विकास गाथा में शामिल होने से रोकते हैं। अब, भारत के 29 केंद्रीय श्रम कानूनों को चार श्रम संहिताओं (लेबर कोड) में समेकित कर 21 नवंबर को अधिसूचित किया गया है। इसे सरकार ने एक 'ऐतिहासिक कदम' कहा है जो 'परिवर्तनकारी बदलाव की शुरुआत करता है' और 'भविष्य के लिए तैयार कार्यबल की नींव रखता है'। कई पर्यवेक्षकों ने इसे भारत में सुधारों की यात्रा में सबसे बड़े कदमों में से एक बताते हुए इसका स्वागत किया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश में श्रम कानून और वास्तव में कई अन्य कानून, प्रथाएं और परंपराएं पुरानी हो चुकी हैं जिनमें से कई ब्रिटिश राज के जमाने से हैं और पुनरावलोकन के योग्य हैं। सामान्य तौर पर 29 कानूनों की आलोचना की जा रही है। इन कानूनों की समीक्षा एक स्वागतयोग्य कदम होना चाहिए लेकिन इस तरह के विशाल परिवर्तन को कम से कम कुछ आम सहमति के साथ तैयार किया जाए ताकि यह सभी को साथ ले जा सके, विशेष रूप से ट्रेड यूनियंस को।
नई श्रम संहिताओं के सामने पहली बाधा यह है कि यह वास्तविक हितधारक ट्रेड यूनियन्स को सबसे अधिक प्रभावित करेगा और उन्हें इस प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया है। इससे ये बहु-प्रशंसित सुधार उन बदनाम कृषि कानूनों की श्रेणी में आ गए हैं जिन्हें इसी तरह पारित किया गया था और बाद में बड़े पैमाने पर अशांति के बाद वापस लिया गया था। वास्तव में कृषि कानूनों और अब अधिसूचित श्रम संहिताओं के बीच कुछ समानताएं हैं: दोनों को सितंबर, 2020 में संसद द्वारा पारित किया गया था, दोनों को जोरदार विरोध के बीच पारित किया गया था और दोनों को लाए जा रहे बदलाव के महत्व को न समझते हुए बिना किसी बहस के पारित कर दिया गया था। उन दिनों सरकार को विश्वास था कि वह कठोर कदम उठाएगी जिससे कृषि कानून पारित हो गए लेकिन बाद में किसानों के जोरदार विरोध से हैरान रह गई और कृषि कानूनों को वापस ले लिया गया। दूसरी ओर, श्रम संहिताओं को प्रभावी ढंग से ठंडे बस्ते में स्थानांतरित कर दिया गया जिसे अब पुनर्जीवित किया गया है। श्रमिक संघ कमजोर हैं इसलिए श्रमिक आंदोलन इतनी आसानी से शुरू नहीं हो सकते हैं; पर इसमें कोई संदेह नहीं है कि नया प्रयास नकारात्मक नोट पर खुलता है।
कोई भी यह तर्क नहीं दे रहा है कि श्रम कानूनों में महत्वपूर्ण बदलाव नहीं होने चाहिए जैसा कि कृषि कानूनों के मामले में तर्क दिया गया था। भारतीय संदर्भ में समस्या कानूनी संहिताओं के बारे में नहीं है बल्कि जमीनी स्तर पर काम करने की स्थिति के बारे में है और जो सत्ता के गलियारों, मालिकों और निदेशकों के बोर्ड रूम से स्पष्ट रूप से विपरीत हैं। बाजार की यह वास्तविकता जब एक ऐसी सरकार से मिलती है जिसने श्रमिकों के साथ पूंजी का निर्माण नहीं किया है और जिसे व्यापार लॉबी के पक्ष में काम करने के रूप में देखा जाता है, तो वास्तव में विश्वास गायब हो जाता है। सरकार ने खुद को और तथाकथित सुधारों को उन उपायों के माध्यम से आगे बढ़ाकर नुकसान पहुंचाया है जो भयंकर प्रतिरोध को ट्रिगर करेंगे।
श्रम कानूनों की दिशा कार्यबल को औपचारिक बनाने की ओर है जबकि औपचारिक क्षेत्र में भी कई कमियां हैं। जिस बात का दावा किया जाता है और जिसका वास्तव में अनुभव किया जाता है, उसके बीच काफी अंतर रहता है। बेशक कई क्षेत्रों में मामले निराशाजनक हैं। एक हालिया उदाहरण है भारतीय ऑटोमेटिव मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का। 'सेफ इन इंडिया' नामक स्वतंत्र गैर-लाभकारी संस्था की श्रमिकों की सुरक्षा पर सातवीं रिपोर्ट 'क्रश्ड 2025' में उल्लेख किया गया है कि ऑटोमोटिव सेक्टर सप्लाई चेन में हजारों श्रमिक अपनी उंगलियां (क्रश इंज) खो रहे हैं। 76 प्रतिशत श्रमिकों ने कहा है कि उन्हें सप्ताह में 60 घंटे से अधिक काम करने की सूचना दी गई है। यह ऐप्पल की फॉक्सकॉन समस्या की तरह है - क्या बड़े ब्रांड और सुरक्षा व स्थिरता का दावा करने वाले नेता जब उनके आपूर्तिकर्ता कानूनों का उल्लंघन करते हैं तो आंखें मूंद लेते हैं।
इनमें कई कार निर्माता नेता हैं। इसे रोकने के लिए कानून में पर्याप्त व्यवस्थाएं हैं लेकिन उन्होंने इस पर अमल क्यों नहीं किया? यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो नए कानून कैसे और क्यों काम करेंगे? खासकर उन परिस्थितियों में जब कानूनों को उद्योग के अधिक अनुकूल बनाने और जुर्माने के लिए जगह बनाने तथा अपराधों के गैरअपराधीकरण करने की दिशा में है?
ध्यान दें कि 22 सितंबर, 2020 को लोकसभा ने चार श्रम संहिताओं में से तीन को पहली बार पारित किया था, उसी दिन सरकार ने सदन में बताया था कि लॉकडाउन के दौरान अप्रैल और मार्च, 2020 में पैदल यात्रा करने वाले लोगों सहित 1.06 करोड़ से अधिक प्रवासी श्रमिक अपने गृह-राज्य लौट आए। कोविड-19 लॉकडाउन के प्रभावी होने के बाद ठेकेदारों और प्रतिष्ठानों ने अपने यहां काम करने वाले श्रमिकों को उनके हाल पर छोड़ दिया था और वे अपनी सुरक्षा के लिए मीलों पैदल चल कर कंगाल, बदहाल, भूखे-प्यासे अपने गांव पहुंचे थे।
बहरहाल, जैसे ही लॉकडाउन हटाया गया तो जो दूसरा सबसे शर्मनाक कृ त्य था कि उद्योग संघों ने श्रम मंत्री से मुलाकात की और श्रम कानूनों की सुरक्षा को हटाने के लिए कहा ताकि व्यवसाय फिर से शुरू हो सके! यह सब हाल ही का इतिहास है। उस समय व्यवसायों के साथ सांठगांठ कर श्रम संहिताओं का जन्म हुआ था। यह देखते हुए कि भारतीय श्रमिक कम शिक्षित, कम जागरूक, कम कुशल, कम समर्थित और इतने कम उत्पादक हैं और अक्सर नौकरी, किसी भी नौकरी के लिए बेताब होते हैं, यदि हम कार्य प्रणाली पर विचार करें तो देख सकते हैं कि समस्या की जड़ में श्रम शक्ति के प्रति एक निश्चित अवहेलना है जो वैसे भी शोषणकारी प्रथाओं के लिए प्रवृत्त है।
भारत में उत्पादकता कम है, इसलिए नहीं कि भारतीय श्रमिक कम उत्पादक हैं बल्कि इसलिए कि उन्हें अधिक उत्पादक बनाने के लिए आवश्यक निवेश अक्सर कमजोर या न के बराबर होते हैं। इसके अलावा बिजनेस चेन एक ऐसे दृष्टिकोण के साथ काम करती है जो श्रम को खर्च करने के रूप में देखती है, जहां एक ढीली नियामक प्रणाली है और जहां श्रम कानून के उल्लंघन से बचना आसान है। भारतीय व्यापार क्षेत्र जब श्रम को एक संपत्ति के रूप में देखना और मानना शुरू कर देंगे, उनके विकास और कल्याण में निवेश करेंगे तो अगले आर्बिट में चले जाएंगे एवं श्रम कानूनों का उल्लंघन करने वालों को लाल रेखाओं को पार करने के लिए महंगा भुगतान करना होगा। हो सकता है कि नई श्रम संहिताएं हमें वहां तक न ले जाएं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)