दिल का लोकतंत्र जीवंत है नेपाल का
नेपाल की नवीनतम क्रांति कथा सही लाइन पर आगे बढ़ती लग रही है। लेख मंगल को लिखा जा रहा है और पिछले मंगलवार को ही असली हंगामा था;
- अरविन्द मोहन
सोलह साल से चल रहे लोकतंत्र में सभी रंग के नेताओं का, अधिकारियों का और उनके आगे-पीछे जुटे व्यवसायियों का भला तो किया लेकिन नेपाल मजदूरी के लिए बाहर जाने वालों और अपनी खूबसूरती से विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करके कुछ कमाई करने के अलावा ज्यादा कुछ विकास न कर पाया।
नेपाल की नवीनतम क्रांति कथा सही लाइन पर आगे बढ़ती लग रही है। लेख मंगल को लिखा जा रहा है और पिछले मंगलवार को ही असली हंगामा था। तब लगा रहा था कि आंदोलन का कोई माई बाप नहीं है और यह सोशल मीडिया पर बैन के ओली सरकार के फैसले के खिलाफ नौजवानों का स्वत:स्फूर्त विद्रोह है। और बैन से भी बड़ी गलती करते हुए सरकार ने जब बच्चों पर गोली चलवा दी तो देश का आक्रोश आसमान पर पहुंच गया। अब स्कूली वर्दी में बच्चों को शहीद होता देखकर किसे गुस्सा नहीं आएगा। खुद फौज ने सारा इंतजाम होने के बावजूद आगे गोलियां नहीं चलाईं और आंदोलनकारियों से पिटती भी रही। करीब पचास लोगों की जान और अरबों की संपत्ति का नुकसान कराने के बाद नेपाल तेजी से शांत हुआ है। लाख अनिश्चितता के बावजूद एकमत से काम चलाऊ सरकार बन गई है और थोड़े मतभेद के साथ तीन मंत्री भी आ गए हैं। नई सरकार की प्रमुख सुशीला कार्की का साफ कहना है कि वे सत्ता सुख भोगने के लिए नहीं आई गईं। छह महीने के अंदर साफ-सुथरा चुनाव कराके वे वापस अपने रिटायर जीवन में लौट जाएंगी। वे सुप्रीम कोर्ट की मुख्य न्यायाधीश थी लेकिन उनके ईमानदार फैसलों से नेपाली सत्ता प्रतिष्ठानों को काफी तकलीफ थी। उनके खिलाफ महाभियोग लाया गया तो उन्होंने खुद से पद छोड़ दिया।
एक चर्चित राजनैतिक परिवार और दल से नाता रखने के बावजूद उनके मन में साफ था कि नेपाल में राजनेताओं, शासन के दूसरे हिस्सों और आर्थिक सत्ता पर हावी व्यवसायी वर्ग की तिकड़ी का आपसी मेल और ताकत ऐसी हो चुकी थी कि ईमानदारी से काम करना संभव नहीं है। अपने फैसलों का डंका बजाने के बावजूद सुशीला कार्की को तब सरेंडर करना पड़ा था। पर जब जेनरेशन जी के नाम से सचेत युवाओं को भी यही लगा और इसके बावजूद सरकार मनमानियां करती गई तो सोशल मीडिया पर प्रतिबंध एक चिंगारी बनाकर विद्रोह करा गया। बहुत भारी सूक्ष्मदर्शी यंत्र लेकर विदेशी हाथ तलाशने वाले लोग भी(इसमें हमारी मीडिया का एक वर्ग भी शामिल था) इस आंदोलन में कोई विदेशी हाथ या समर्थन नहीं ढूंढ पाए। इस इलाके में अपनी मौजूदगी बढ़ाने में लगा अमेरिका भी कुछ खास कर नहीं पाया। और लोकतंत्र के आगमन के बाद के सोलह वर्षों में नेपाली राजनीति और जीवन में काफी प्रभावी भूमिका निभाने वाला चीन भी हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। यह सही है कि उसकी चमत्कारी राजदूत होऊ यांगशी अब नेपाल में नहीं हैं जो बड़े आराम से आपस में लड़े और टूट चुके कम्युनिष्ट नेताओं को बार बार जोड़कर सत्ता में लाने का काम करती थीं, लेकिन चीनी कूटनीति किसी एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहती। संभवत: के पी शर्मा ओली ने अपनी मूर्खताओं से उसे भी नाराज कर दिया था।
जेन-जी का यह आंदोलन एक मायने में स्वत:स्फूर्त था तो दूसरे अर्थ में बहुत महत्वाकांक्षी भी। इसने सभी राजनैतिक दलों और नेताओं के साथ सत्ता की प्रतीक बनी सभी संस्थाओं को निशाना बनाया तो व्यावसायिक ठिकाने भी अछूते नहीं रहे। यह सही है कि जो लूट-पाट हुई वह उनका काम न था लेकिन हिल्टन होटल से लेकर अनेक बड़े व्यावसायिक ठिकानों को निशाना बनाया गया क्योंकि उन्हें भी नेपाल की बदहाली और शासन के कुकर्मों में भागीदार माना गया। और संसद भंग कराने के साथ ही आंदोलनकारियों ने संविधान की उस व्यवस्था को भी नहीं माना जो सुशीला कार्की के शासन प्रमुख बनने में बाधक बन रहा था। इसलिए देखना होगा कि भवनों की रंगाई-पुताई और मरम्मत जैसे कामों के बाद चुनाव और नियमित सरकार का गठन कैसे होता है और क्या नया संविधान भी लिखा जाएगा। पर इससे ज्यादा दिलचस्पी यह देखने में होगी कि साठ के दशक में राणाशाही के खिलाफ और फिर राजतन्त्र के खिलाफ बगावत करने वाले नेपाल का लोकतंत्र कब व्यवस्थित रूप लेता है और कब वहां का शासन अपने लोगों के जीवन में जरा भी खुशहाली ला पाता है।
सोलह साल से चल रहे लोकतंत्र में सभी रंग के नेताओं का, अधिकारियों का और उनके आगे-पीछे जुटे व्यवसायियों का भला तो किया लेकिन नेपाल मजदूरी के लिए बाहर जाने वालों और अपनी खूबसूरती से विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करके कुछ कमाई करने के अलावा ज्यादा कुछ विकास न कर पाया। आज उनके यहां बेरोजगारी का प्रतिशत बहुत अधिक है और हर साल चार लाख नए लोग विदेशों में काम करने जाते हैं। यह भारतीय आईटी प्रोफेशनल वाला मामला भी नहीं है जो अच्छी कमाई करते हैं। यह सेना, चौकीदारी और मजदूरी वाला जमात है। और माना जाता है कि नेपाल के जीडीपी में इनके माध्यम से आने वाले धन का हिस्सा एक तिहाई हो गया है। पर्यटकों से होने वाली आमदनी के अलावा कुछ कमाई जंगल के उत्पादों से होती है। कारखाने और व्यवसाय का हिस्सा ही नहीं खेती का आकार-प्रकार भी सिकुड़ता गया है। और इस मामले में नेपाल की कथा अफगानिस्तान जैसी है जबकि क्रांति के बाद इसे बांग्लादेश और श्रीलंका के साथ गिना जाने लगा है। इन देशों की समस्याएं(और हमारे यहां की भी) काफी कुछ मिलती-जुलती हैं लेकिन उनके स्तर का फरक है। बांग्लादेश और श्रीलंका को वापस आर्थिक विकास के रास्ते पर आने में वक्त नहीं लगेगा लेकिन नेपाल में संरचना भी नहीं है।
लेकिन उससे बड़ी मुश्किल जेनेरेशन जी के नाम से हुई इस क्रांति के बाद सरकार बनाने, चलाने और दुनिया की बड़ी शक्तियों के दखल के बीच खुद के लिए राह बनाने की है। चीन और अमेरिकी दखल किस स्तर का है यह हम भी देख रहे है। यह अच्छी बात है कि इस बार भारत को लेकर भी कोई शिकायत नहीं सुनी गई है-जरूर कुछ मीडिया चैनलों के लोगों को गुस्सा झेलना पड़ा। लेकिन चीन और अमेरिका जैसे देश नेपाल जैसे छोटे मुल्क को अपनी आजाद राह लेने देंगे यह मुश्किल कल्पना है। दूसरी दिक्कत पुरानी व्यवस्था के लोगों से होगी। उसमें भी अभी पिटा समूह चुप नहीं बैठेगा। पर हर पार्टी के अपेक्षाकृत ईमानदार और जमाधार वाले लोग भी मिल जुलकर चुनौती दे सकते हैं। आखिर उनको अपने अस्तित्व की चिंता भी होगी। दस हजार से ज्यादा अपराधी जेलों से भागकर समाज में आ गए हैं। और अगर अभी भी राजशाही के समर्थक सक्रिय हैं तो भ्रष्ट तंत्र खड़ा करने वाले मौजूदा जमात के लोग क्यों शांत हों जाएंगे। उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है लेकिन पहले यह करने वाले को खुद मजबूत होना होगा। पर धीरज राखें। सब कुछ संभव है। लोकतंत्र दो स्तर पर काम करता है संस्थाओं के स्तर पर और दिल के स्तर पर। नेपाल बताता रहा है कि वहां दिल का लोकतंत्र पवित्र और मजबूत है। संस्थाओं को भ्रष्ट किया गया था। उसकी धुलाई-पुंछाई हो सकती है और वह हो भी रहा है।