- डॉ श्यामबाबू शर्मा
आजु दिवाली काल्हि दिवाली
धरती माता जागो-जागो
खो गए
कासा के फूल के पटाखे
बहनों-बेटियों का घरौंदा बनाना
जहरीले रंगों-रसायनों ने पोंछ दिया
सोंधी माटी और गोबर की पुताइयां-लिपाइयां
खो गए सेठ काका के चिरइया-गट्टा
पतऊ भाई के पेंड़ा
पुरिखा दादा की माटी की दिवाली
खत्म होती गई जरूरत करवा-नंदवा की
ऑनलाइन कटलरी सेटों से
अपने तक सीमित उजालों के बियाबान में
बुझे दीये सहेजना कहीं खो गया
हेरा गये दिवाली के खेल और लड़कपन भी
लग गई सेंध कच्ची-पक्की परई में
खो गया काजल पारना और इससे
सत्य-असत्य की पहचान का रीति-रिवाज
दिवाली पर अशीषते जन नहीं कहते 'बने रहौ'
बताया जाता इससे देश-परदेश में भी बने रहते इंसान
अब सब पूछते हैं-'क्या हो, कमाते क्या हो'
कहीं चर्चा नहीं होती 'बने रहौ' इंसान पर
बाबा की आंखें निहारती हैं किस तरह
माटी के गणेश-लक्ष्मी तब्दील हुए
चमकौआ चीनी प्रतिमाओं में
प्रतिमायें बिजुरिया चकाचौंध में
और प्रार्थनायें तुकबंदी में, भौंड़े रतिजगा में
रतिजगा, अश्लील सांस्कृतिक नृत्य में
नृत्य अपमानित हुआ छिछोरी फब्तियों से
और जो बचा सरे-आम नीलाम हुआ बाजार में
रुंधता कंठ भर आयीं उनकी आँखें
कोई महरूम नहीं उधार की बख्शीशों से
गाँव-जवारि, दुनिया-जहान मिलकर
नहीं जगा पा रहे अपने को, अपनपौ को
और न कराहती तड़पती धरती माता को ।