भाजपा की राजनीति का दारोमदार अब 'घुसपैठ' पर!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने 1951 में भारतीय जनसंघ के नाम से अपनी जिस राजनीतिक शाखा का गठन किया था;

By :  Deshbandhu
Update: 2025-10-28 22:07 GMT
  • अनिल जैन

सरकार क्या सचमुच घुसपैठ की समस्या का समाधान करना चाहती है? यह सवाल इसलिए है क्योंकि पिछले 11 साल से केंद्र में लगातार भाजपा की सरकार है और अभी तक उसकी ओर से घुसपैठ रोकने का एक भी गंभीर प्रयास होता नहीं दिखा है। अमित शाह पिछले छह वर्षों से देश के गृह मंत्री हैं। इस बात का खूब ढिंढोरा पीटा जाता है उन्होंने सबसे लंबे समय तक गृह मंत्री बने रहने का रिकॉर्ड बनाया है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने 1951 में भारतीय जनसंघ के नाम से अपनी जिस राजनीतिक शाखा का गठन किया था, उसका मुख्य लक्ष्य था- सांप्रदायिक धु्रवीकरण के जरिये कांग्रेस का विकल्प बनना और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना। इसके लिए उसके तीन प्रमुख मुद्दे थे- देश में समान नागरिक संहिता, जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 का खात्मा और गौहत्या पर प्रतिबंध। करीब तीन दशक बाद जनसंघ के नेताओं ने जब जनता पार्टी से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया तो उसके एजेंडे में भी ये तीन मुद्दे शामिल रहे। फिर भी इन मुद्दों से बात बन नहीं बन रही थी, सो उसने 1987 के आते-आते अयोध्या में बाबरी मस्जिद की जगह पर राम मंदिर बनाने के मुद्दे को भी अपने एजेंडे में शामिल कर लिया। यह मुद्दा उसके लिए बहुत लाभदायी रहा और इसी के सहारे वह सत्ता तक पहुंची।

साल 1989 से लेकर 2024 तक हर चुनाव उसने सांप्रदायिकता की खेती करते हुए इसी मुद्दे पर लड़ा। हालांकि 2024 के चुनाव से पहले जैसे-तैसे अयोध्या में राम मंदिर भी बन गया था, इसलिए यह मुद्दा उस चुनाव में नहीं चल पाया। भाजपा न सिर्फ अयोध्या में हारी बल्कि उत्तर प्रदेश की 80 में से आधी से ज्यादा सीटों पर उसे हार का सामना करना पड़ा। केंद्र में उसकी सरकार भी जैसे-तैसे ही बन सकी। राम मंदिर बनने से पहले ही 2019 में अनुच्छेद 370 का मुद्दा भी खत्म हो चुका था। रही बात समान नागरिक संहिता लागू करने की, तो उसके लिए कुछ कवायदें हुईं लेकिन देश भर में लागू करना कई कारणों से संभव नहीं हो सका। इसलिए राज्यों के स्तर पर उसे लागू करना शुरू किया गया। उत्तराखंड पहला राज्य बना, जहां समान नागरिक संहिता लागू हुई। उसी की तर्ज पर गुजरात, असम, मध्य प्रदेश आदि भाजपा शासित राज्यों की सरकारों ने इसे अपने यहां भी लागू करने की बात कही है।

जहां तक गौहत्या पर राष्ट्रव्यापी पूर्ण प्रतिबंध की बात है, तो यह भाजपा की सरकार के लिए व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं है। इसकी अहम वजह यह है कि गोमांस के वैश्विक बाजार में भारत दूसरे नंबर का सबसे बड़ा खिलाड़ी है और भाजपा के कई वित्त पोषक कारोबारी भारत में इस धंधे से जुड़े हुए हैं। इसलिए विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल जैसे भाजपा-आरएसएस के आनुषंगिक संगठन अपने कार्यकर्ताओं को व्यस्त रखने, समर्थकों को बहलाने और मुसलमानों को डराने-चिढ़ाने के लिए समय-समय पर यह मुद्दा उठाते रहते हैं। इससे ज्यादा उनके लिए इस मुद्दे की कोई अहमियत नहीं है।

अब सवाल है कि इन मुद्दों के निबटारे के बाद आगे क्या? हिंदुत्व की ध्वजा फहराते हुए वोटों की खेती तो धु्रवीकरण वाले किसी मुद्दे के जरिये ही हो सकती है। इस सिलसिले में लगता है कि भाजपा और आरएसएस ने अब घुसपैठ के मुद्दे को अपनाने का फैसला किया है। अब हर चुनाव में इस मुद्दे को जोर-शोर से उछाला जाएगा और इससे निबटने के नाम पर वोट मांगे जाएंगे। जाहिर है कि ऐसा करते हुए घुसपैठ की समस्या के लिए कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी पार्टियों पर घुसपैठ को बढ़ावा देने का आरोप लगाया जाएगा। यह बताने की जरूरत नहीं कि इसी मुद्दे के जरिये मुसलमानों के खिलाफ़ नफ़रत भी फैलाई जाएगी।

हालांकि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि यह मुद्दा भाजपा को चुनाव जीता देने में कितनी कारगर भूमिका अदा करेगा, क्योंकि झारखंड में यह मुद्दा पिट चुका है। वहां असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा को इस मुद्दे के चैंपियन के तौर पर उतार कर भाजपा ने बड़े जोर शोर से यह मुद्दा उठाया था लेकिन उसे बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी थी। इसके बावजूद भाजपा ने हार नहीं मानी है और वह बिहार विधानसभा के चुनाव में इसे आजमा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह वहां अपनी हर चुनावी रैली में इस मुद्दे को प्रमुखता से उठा रहे हैं।

मोदी ने इसी साल 15 अगस्त को लाल किले से ऐलान किया था कि सरकार एक उच्च अधिकार प्राप्त डेमोग्राफी कमीशन बनाएगी, जो घुसपैठ की समस्या का आकलन करेगा और इससे निबटने के उपाय सुझाएगा। गौरतलब है कि मोदी और उनकी सरकार की चिंता के केंद्र में चीन से होने वाली सैन्य घुसपैठ कतई नहीं है, जो कि अक्सर होती रहती है- कभी अरुणाचल प्रदेश में तो कभी लद्दाख में। उनकी चिंता का पूरा फोकस पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार से होने वाली घुसपैठ पर है।

मोदी अब तक कु ल 12 मर्तबा बतौर पीएम लाल किले से भाषण दे चुके हैं तो उनमें से शुरू के 11 बार उनके भाषण में घुसपैठ की समस्या का कोई जिक्र नहीं हुआ। पहली बार घुसपैठ का जिक्र उन्होंने अपने 12वें भाषण में किया। जाहिर है कि राम मंदिर, अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता के बाद पैदा हुए खालीपन को भरने के लिए एक नए मुद्दे की तलाश थी, जो घुसपैठ पर जाकर खत्म हुई है। हालांकि झारखंड के चुनाव में यह मुद्दा बेअसर रहा है लेकिन भाजपा ने हार नहीं मानी है। उसे मालूम है कि राम मंदिर और अनुच्छेद 370 के मुद्दों को भी दशकों तक सींचने के बाद वोटों की फसल लहलहाई है। इसलिए वह घुसपैठ का मुद्दा भी पूरे जोर-शोर से उठाती रहेगी। बिहार के बाद पश्चिम बंगाल और असम में भी इसे आजमाया जाएगा। इन तीन राज्यों के चुनावों को ध्यान में रखकर ही इस मुद्दे को चुना गया है।

सवाल है कि सरकार क्या सचमुच घुसपैठ की समस्या का समाधान करना चाहती है? यह सवाल इसलिए है क्योंकि पिछले 11 साल से केंद्र में लगातार भाजपा की सरकार है और अभी तक उसकी ओर से घुसपैठ रोकने का एक भी गंभीर प्रयास होता नहीं दिखा है। अमित शाह पिछले छह वर्षों से देश के गृह मंत्री हैं। इस बात का खूब ढिंढोरा पीटा जाता है उन्होंने सबसे लंबे समय तक गृह मंत्री बने रहने का रिकॉर्ड बनाया है। अलबत्ता गृह मंत्री के रूप में उनकी नाकामियों की कोई चर्चा नहीं होती है। हालांकि पिछले दिनों एक अखबार के कार्यक्रम में भाषण देते हुए अमित शाह बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को रोकने में तो अपनी नाकामी खुद कु बूल कर चुके हैं। उन्होंने कहा, 'बांग्लादेश से लगी सीमा पर कई झरने, महासागर जैसी नदियां, बहुत सारी पहाड़ियां और विशाल जंगल हैं, जहां बाड़ नहीं लगी है और वहां से घुसपैठ कोई नहीं रोक सकता।'

बांग्लादेश की सीमा से होने वाली घुसपैठ के लिए 11 साल पहले की यूपीए सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाता है और पश्चिम बंगाल सरकार पर हमला किया जाता है कि वह जमीन नहीं दे रही है। माना कि बंगाल सरकार जमीन नहीं दे रही है लेकिन सवाल यह है कि असम और त्रिपुरा से लगी सीमाओं पर बाड़ लगाने में क्या समस्या है? असम में 10 और त्रिपुरा में भी आठ साल से भाजपा की सरकार है। वहां 'डबल इंजन' की सरकारें होने के बावजूद बांग्लादेश से लगी सीमाओं पर बाड़ नहीं लगाई जा सकी है और इंसानों से लेकर पशुओं तक की तस्करी जारी है। पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकारें हैं लेकिन म्यांमार से आने वाले रोहिंग्या घुसपैठियों को नहीं रोका जा सका है। रोहिंग्या घुसपैठियों की समस्या तो बढ़ी ही पिछले 11 वर्षों में है।

अमित शाह ने घुसपैठ की समस्या को बड़ा मुद्दा बताते हुए कहा है कि इससे देश की जनसंख्या संरचना बदल रही है। इसके लिए उन्होंने सीमावर्ती जिलों के अधिकारियों को सचेत करते हुए निगरानी बढ़ाने को कहा है। सवाल है कि कोई चार साल पहले जब राज्यों के विरोध के बावजूद केंद्र सरकार ने सीमावर्ती राज्यों में सीमा या नियंत्रण रेखा से डेढ़ सौ किलोमीटर के अंदर तक निगरानी करने, जांच करने, छापा मारने और गिरफ्तार करने का अधिकार सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) को सौंप दिया है, फिर भी घुसपैठ क्यों नहीं रूकी, जो अब सीमावर्ती जिले के अधिकारियों को सचेत किया जा रहा है? गौरतलब है कि पहले बीएसएफ को सीमा से 50 किलोमीटर अंदर तक जांच करने और संदिग्ध लोगों को गिरफ्तार करने का अधिकार था, जिसे बढ़ाकर डेढ़ सौ किलोमीटर कर दिया गया है। जब सीमा से लेकर 50 किलोमीटर तक की निगरानी बीएसएफ कर रही थी तो घुसपैठ कैसे बढ़ी और अब जबकि डेढ़ सौ किमी तक निगरानी उसके जिम्मे है तब भी घुसपैठ क्यों जारी है? सरकार के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं है। उसके पास है सिर्फ विपक्षी दलों और उनकी राज्य सरकारों पर लगाने के लिए आरोप, जो उसके नेता चुनावी रैलियों में लगाते रहते हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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