रामकृपा से वंचित आडवाणी-जोशी
इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि अयोध्या में जिस भव्य राममंदिर का उद्घाटन होने जा रहा है उसके निर्माण की परिस्थितियां निर्मित करने में सर्वाधिक श्रेय अगर किसी को दिया जाना चाहिये तो वे हैं भारतीय जनता पार्टी के बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी;
इस बात से शायद ही कोई इंकार करेगा कि अयोध्या में जिस भव्य राममंदिर का उद्घाटन होने जा रहा है उसके निर्माण की परिस्थितियां निर्मित करने में सर्वाधिक श्रेय अगर किसी को दिया जाना चाहिये तो वे हैं भारतीय जनता पार्टी के बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी। कुछ और भी लोग हैं जिनका योगदान रहा है, परन्तु उनमें से ज्यादातर दिवंगत हो चुके हैं या वे दरकिनार कर दिये गये हैं। ऐसे लोगों में प्रमुख हैं-पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, विश्व हिंदू परिषद के अध्यक्ष अशोक सिंघल, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज, शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे आदि। जीवितों में हैं उमा भारती व वीएचपी के डॉ. प्रवीण तोगड़िया। दोनों ही नाराज हैं भाजपा से; और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से भी।
22 जनवरी, 2024 को बहुप्रतीक्षित राममंदिर के उद्घाटन की न केवल तैयारियां पूरी हो चुकी हैं बल्कि तय हो गया है कि इसकी प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर होने वाली मुख्य पूजा के प्रमुख अतिथि कहें या यजमान स्वयं मोदी होंगे। देश भर में इसके लिये राममंदिर की लघु आकृति भेजी जा रही है और समस्त भारतवासियों को इसके लिये आमंत्रित किया जा रहा है कि वे हिंदू पुनर्जागरण के इस महान क्षणों के साक्षी बनकर श्रीराम का आशीर्वाद प्राप्त करें। आडवाणी और जोशी को भी बाकायदा आमंत्रण भेजा गया है, पर इस अनुनय के साथ कि वे इस कार्यक्रम में न पधारें। कारण है उनका उम्रदराज़ होना। उत्तर भारत में पड़ने वाली कड़ाके की ठंड से उन्हें बचाये रखना भी आयोजकों ने अपना कर्तव्य समझा है। तभी तो श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र के महासचिव चंपत राय ने प्रेस कांफ्रेंस में बतलाया कि 'उन्हें न्यौता दिया गया है लेकिन उनकी उम्र व स्वास्थ्य को देखते हुए उनसे कार्यक्रम में न आने का अनुरोध किया गया है।Ó यानी न आने का नेह आमंत्रण।
आमंत्रण भेजकर न आने के अनुरोध को समझने की आवश्यकता है। वैसे भी जब 5 अगस्त, 2020 को राममंदिर का भूमिपूजन हुआ था तब भी मोदी ने ही इसकी पूजा की थी। इसमें भी किसी और को न बुलाने से जो संकेत मिले थे, वे ही आगे बढ़कर मिल रहे हैं। याद हो कि सुप्रीम कोर्ट ने 9 नवम्बर, 2019 को फैसला कर इस जमीन पर हिन्दुओं का अधिकार बताया था जिसके बाद मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हुआ था। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में 5 सदस्यीय बेंच ने यह निर्णय सुनाया था। यह अलग बात है कि उन्हें बाद में राज्यसभा का सदस्य बनाया गया। बेंच के एक अन्य सदस्य अशोक भूषण रिटायर होने के चार माह बाद नेशनल कंपनी लॉ अपीलीय ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष बने तथा एक अन्य सदस्य जस्टिस नज़ीर आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बने थे।
बहरहाल, इस मौके पर याद करना होगा 1990 का वह समय जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के कारण वीपी सिंह सरकार से भारतीय जनता पार्टी ने अपना समर्थन वापस ले लिया था और भाजपा सत्ता पाने कमंडल के मार्ग पर चल पड़ी थी। आडवाणी ने देश भर में वीएचपी के सहयोग से रथ यात्रा की शुरुआत की थी।सोमनाथ से निकली यह यात्रा कई राज्यों से गुजरती हुई जब बिहार पहुंची तो वहां मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने आडवाणी, मुख्य संयोजक प्रमोद महाजन आदि को गिरफ्तार करवा दिया था। इसका भी फायदा अंतत: भाजपा को मिला था। 6 दिसम्बर, 1991 को देश भर से लाखों रामभक्त अयोध्या पहुंच गये थे और उन्होंने विवादित बाबरी मस्जिद को ढहा दिया था। जो प्रमुख नेता उस समय घटना स्थल पर मौजूद थे उनमें आडवाणी, जोशी, उमा भारती आदि प्रमुख थे। अनेक उपस्थित व अनुपस्थित नेताओं के खिलाफ मामले दर्ज हुए। मोदी का नाम उनमें नहीं था, जबकि वे भी रथ यात्रा के प्रमुख संयोजकों में से एक थे। आडवाणी के साथ जिन लोगों ने हिंदुत्व की मशाल को खूब भड़काया, उनमें जोशी भी थे। प्रधानमंत्री कांग्रेस के नरसिम्हा राव थे।
भाजपा इसे अपनी बड़ी उपलब्धि मानती रही है। इसके लिये आडवाणी को श्रेय भी मिलता रहा है। तो भी जब 1996 से 1998 तक तीन बार (13 दिन, 13 माह एवं 5 वर्ष के लिये) प्रधानमंत्री बनने की बारी आई तो हर बार अधिक वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी के नाम का चयन होता गया। 2004 में भाजपा व एनडीए गठबन्धन की सरकार चलती बनी तथा यूपीए गठबन्धन की सरकार बनी- डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में। 2014 तक वह चली। इस बीच किसी फिनोमिना की तरह उभरे नरेन्द्र मोदी की पीएम की दावेदारी पर भाजपा व उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मुहर लगा दी- आडवाणी व जोशी को दरकिनार कर। उनके लिये मार्गदर्शक मंडल का निर्माण किया गया जिसकी दर्शक दीर्घा में बैठकर दोनों 10 वर्षों से मोदी का सियासी आकाश में छा जाना देख रहे हैं। उनके जन्मदिन पर कभी-कभार उन्हें गुलदस्ते मिल जाते हैं- उनके भूले-बिसरे दिनों की सुनहरी यादों को लेकर। तब से एकाकी आडवाणी व जोशी नये हिन्दू हृदय सम्राट का सतत उभार ही देख रहे हैं।
इस मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में दोनों पितृपुरुषों को न बुलाना किसी नसीहत व नज़ीर के रूप में देश के इतिहास में दर्ज होगा कि बुनियादी व ठोस मुद्दों पर प्राप्त हुई उपलब्धियों को कोई नहीं छीन सकता। भावनात्मक व सतही मुद्दों पर रचे गये आभामंडल का जीवन बहुत छोटा होता है। जिस रास्ते पर देश की राजनीति को आडवाणी-जोशी ने बढ़ाया था, उसका इसी मुकाम पर पहुंचना तय था जहां श्रेय की होड़ होती है और लोग अपनों से ही आशंकित रहते हैं।