'डब्ल्यूटीओ' का मंत्रिस्तरीय सम्मेलन : खेती की वैश्विक फजीहत
अबूधाबी के 'नेशनल एग्जिबिशन सेंटर' में आयोजित तेरहवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में 'विश्व व्यापार संगठन' (डब्ल्यूटीओ) की वार्ता मुकाम पर नहीं पहुंच सकी

- जिल-कार हैरिस
भारत सरकार के लिए यह बड़े असमंजस की स्थिति है। एक तरफ तो वह कृषि उत्पादों के आयात-निर्यात के जटिल संबंधों पर किसानों से खुलकर समझौता नहीं कर पा रही है, दूसरी तरफ खाद्य सुरक्षा कायम रखने के लिए अनाज व अन्य उत्पादों की सरकारी खरीद नहीं कर पा रही है। खुशकिस्मती से 'डब्ल्यूटीओ' की कृषि संबंधी चर्चाएं (समझौते) किसानों के पक्ष में ही रहीं।
अबूधाबी के 'नेशनल एग्जिबिशन सेंटर' में आयोजित तेरहवें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में 'विश्व व्यापार संगठन' (डब्ल्यूटीओ) की वार्ता मुकाम पर नहीं पहुंच सकी। सदस्य देश कृषि और मत्स्य पालन नियमों पर सहमत नहीं हो पाए। वार्ता में अड़चन हो सकती है, लेकिन इसकी गंभीरता से इन्कार नहीं किया जा सकता। जैसा कि वार्ता समाप्ति के एक दिन पूर्व, प्रेस मीटिंग में नाम न बताने की शर्त पर, एक यूरोपियन कमिश्नर ने बताया कि -'बहुपक्षीय व्यापार की भावना खत्म हो चुकी है।' उन्होंने कहा कि सरकारें सिर्फ अपने लिए ही काम कर रही हैं, एक-दूसरे के लिए समझौता करने में किसी की रुचि अब नहीं रही।' ये वार्ताएं हर दो वर्ष में आयोजित होती हैं, जिनमें 166 देश भाग लेते हैं।
अपने जन्म से ही 'डब्ल्यूटीओ' मुसीबतों की जड़ रहा है, खासकर अमेरिका और पश्चिमी देशों के अत्यधिक दबाव में, लेकिन फिर भी इसका मूल-मंत्र यही रहा है कि 'व्यापार विकास को बढ़ावा देता है।' 'डब्ल्यूटीओ' द्वारा सबसे कम विकसित देशों तथा अन्य विकासशील देशों को विशिष्ट तथा अलग तरह से तरजीह देना सुनिश्चित किया जाता है, लेकिन इस सम्मेलन में एक नई सुधार प्रक्रिया प्रस्तावित की गई जो बेशक आगामी मंत्रिस्तरीय सम्मेलनों में भी जारी रहेगी। इसमें विकासशील देशों को दी जा रही खास तरजीह को 'गैर-वाजिब लाभ' देना माना गया है। इस नए शब्दकोष में 'सुधार' को 'समावेशी' बताया जा रहा है, परंतु हकीकत में यह कमज़ोर देशों की कीमत पर आर्थिक रूप से ताकतवर शक्तियों को भारी लाभ पहुंचाने का जरिया है।
'डब्ल्यूटीओ' में 'एकता परिषद' की भागीदारी 'ओडब्ल्यूआईएनएफएस' (अवर वर्ल्ड इज नॉट फॉर सेल'/ 'हमारी दुनिया बिकने के लिए नहीं है') की विस्तृत नीति के तहत थी। अंतरराष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था में 'कॉर्पोरेट वैश्वीकरण' का वर्तमान मॉडल एक महत्वपूर्ण अंग है। इसी मॉडल से लड़ने के लिए वैश्विक स्तर पर संगठनों और सामाजिक आंदोलनों का एक समूह 'ओडब्ल्यूआईएनएफएस' है। इसका लक्ष्य एक ऐसी बहुपक्षीय व्यापार व्यवस्था का विकास करना है, जो 'टिकाऊ, लोकतांत्रिक, उत्तरदायी तथा सामाजिक रूप से न्यायपूर्ण हो।'
'डब्ल्यूटीओ' को 'प्रभावित' लोगों के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिए किसान संगठनों, मछुआरों तथा प्रकृति पर निर्भर अन्य समुदायों को एक साथ लाना ही 'ओडब्ल्यूआईएनएफएस' की भूमिका है। भारत से 'संयुक्त किसान मोर्चा' (एसकेएम) के तीन सदस्य भी सम्मेलन में शामिल हुए थे। 'एसकेएम' एक गैर-राजनीतिक किसान संगठन है, जो दिल्ली की सीमाओं पर 'न्यूनतम समर्थन मूल्य' (एमएसपी) के मुद्दे पर अपना संघर्ष जारी रखे था।
'डब्ल्यूटीओ' के महानिदेशक एन्गोज़ी ओकोंजो-इवेला ने दो स्वतंत्र सलाहकार निकाय नियुक्त किए थे - पहले में दस सिविल सोसाइटी संगठन शामिल थे, जबकि दूसरा एक व्यापार मंच था। 'डब्ल्यूटीओ' से विभिन्न मुद्दों पर सलाह मशविरा करने के लिए जून, 2023 में सलाहकार समूह स्थापित किया गया था। इसके प्रतिनिधि मुख्यत: उपभोक्ता संगठनों, पर्यावरण समूहों एवं ट्रेड यूनियनों के कार्यकर्ता थे।
जाहिर है, प्रभावित समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले 'ओडब्ल्यूआईएनएफएस' के साथ विभिन्न मुद्दों पर चर्चा करना आवश्यक था। अंतिम दिन 'डब्ल्यूटीओ' के महानिदेशक ने गैर-सरकारी संगठनों से मुलाकात की। लघु कृषि भूमि मालिकों तथा भूमिहीन श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने वाले सामाजिक संगठन की हैसियत से 'एकता परिषद' भी इस मुलाकात में शामिल हुई।
अबूधाबी सम्मेलन के दौरान 'डब्ल्यूटीओ' के महानिदेशक ने सिविल सोसाइटी संगठनों की मीडिया अथवा सदस्य राष्ट्रों से संवाद को प्राथमिकता नहीं दी। पूर्व के मंत्रिस्तरीय सम्मेलनों में ऐसा नहीं होता था। महानिदेशक की ओर से सहयोग न मिलने का नतीजा यह हुआ कि सिविल सोसाइटी संगठन अपने पर्चे नहीं बांट पाए, उनके घोषणा-पत्र जब्त कर लिए गए और उन्हें अपनी सामग्री बांटने व फोटो लेने से रोक दिया गया। कुछ सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें मीडिया के समक्ष अपना पक्ष रखने पर दंडात्मक कार्रवाई की धमकियां तक दीं, जबकि पूर्व के सभी सम्मेलनों में यह आम बात थी। अंतिम दिन महानिदेशक ने सिविल सोसाइटी संगठनों को संबोधित किया और जिसमें उन्होंने खुलकर अपने विचार सामने रखे।
'डब्ल्यूटीओ' के इस सम्मेलन में सबसे उग्र बहस कृषि मुद्दों पर हुई। कई देश, विशेषकर खाद्य उत्पादों के आयातक ब्राजील जैसे देश इस बात के पक्ष में थे कि खाद्य उत्पादों के व्यापार में अधिक उदारता लाई जाए। खाद्य सामग्री की कमी से जूझ रहे कई देशों के लिए यह बेहद कठिन है क्योंकि वे सस्ती खाद्य सामग्री, खासकर अनाज के आयात पर निर्भर नहीं रहना चाहते। यह कई सालों से तीखी बहस का मुद्दा रहा है, यहां तक कि इससे एक बहुपक्षीय निकाय के रूप में 'डब्ल्यूटीओ' के अस्तित्व पर ही संकट के बादल छा गए थे। वर्ष 2008 में वार्ताओं में आया यह व्यवधान बाद में एक अंतरिम समझौते च्च्पीस क्लॉजज्ज् से सुलझा, जिसे 2013 के 'बाली मंत्रिस्तरीय सम्मेलन' में पारित किया गया था।
कृषि उत्पादों का व्यापार हमेशा से ही विवादास्पद रहा है क्योंकि यह खाद्य सामग्री के निर्यात पर दिए गए प्रोत्साहन को, विशेषकर विकासशील देशों के वंचित समुदायों, खाद्य सुरक्षा आवश्यकताओं के विरुद्ध खड़ा कर देता है। हालांकि, पहले 'दोहा विकास कार्य सूची' (2001) और फिर 2013 के च्च्पीस क्लॉजज्ज् के जरिए भारत जैसे देशों की खाद्य सुरक्षा पर बात करने के प्रयास किए गए, किंतु कोई हल नहीं निकल पाया। 'पीस क्लॉज –2013' में कुछ छूट दी गई है, लेकिन यह इतना अस्पष्ट है और इसमें दी गई शर्तें इतनी ज्यादा है कि जुर्माने के डर से कोई इसका प्रयोग नहीं करता।
नए समझौते न हो पाने से यथास्थिति बरकरार रहना एक तरह से भारत और अन्य देशों की जीत ही माना जा सकता है। यथास्थिति कायम रहने का अर्थ यह है कि अंतरिम 'पीस क्लॉज' बना रहेगा तथा भारत में सब्सिडी के लिए जरूरी सार्वजनिक स्टॉक होल्डिंग भी जारी रहेगी। अब 'डब्ल्यूटीओ' के लिए यह अनिवार्य हो गया है कि वह आगे की चर्चाओं के लिए अवसर उपलब्ध कराए। इस समस्या को देर तक अधर में लटकाना ठीक नहीं होगा। हालांकि, फिर भी यह साफ नहीं हो पाया कि आगामी चर्चाओं में इस खाई को कैसे पाटा जा सकेगा। अपने विशाल आकार के कारण भारत की यह मजबूरी रही है कि वह उदारीकरण की नीतियों के विरुद्ध खड़ा हो।
कृषि तथा विस्तृत सुधारों पर कोई सहमति न बन पाने पर यूरोपियन व्यापार आयुक्त व्लॉडिस डोम्ब्रोवस्की ने निराशा जताई। उन्होंने भारत को इसमें अड़चन डालने के लिए जिम्मेदार ठहराया। कई देशों ने दावा किया कि भारत ने नीति सुधारों में रोड़ा अटकाने का काम किया। भारतीय प्रतिनिधिमंडल दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन से व़ाकिफ था। घरेलू परिस्थितियों और अबूधाबी के दबाव में उनका पूरा जोर इस बात पर था कि 'डब्ल्यूटीओ' की कार्रवाई अमीर देशों के पक्ष में न होने पाए। भारत के व्यापार और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने कहा भी कि 'हम जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अबूधाबी आए थे, उन्हें हमने काफी हद तक हासिल कर लिया है और हम पूर्ण संतुष्ट होकर घर जा रहे हैं। हमारी सबसे बड़ी फिक्र अपने किसानों और मछुआरों के हितों की रक्षा करना है। हम यह काम शिद्दत से कर रहे हैं क्योंकि यह हमारे लिए अहम मुद्दा है।'
'डब्ल्यूटीओ' के अबूधाबी सम्मेलन के दौरान भारत और यूरोप में किसान आंदोलन चल रहे थे, अत: यह माना गया कि सम्मेलन के निर्णय इन आंदोलनों के प्रकाश में लिए गए। भारत में किसान आंदोलनकारियों ने 'डब्ल्यूटीओ' छोड़ने के भी नारे लगाए। किसान संगठनों के नेता बीजू के. ने बताया कि 'सबसे बड़ी समस्या यह है कि खाद्य श्रृंखला का निगमीकरण (कॉरपोरेटाइजेशन) हो गया है। बड़ी-बड़ी निजी कॉरपोरेट कंपनियों ने उत्पादन और वितरण के हर कदम पर कब्जा कर लिया है।'
जिस समय भारत के किसान दिल्ली कूच की तैयारी कर रहे थे, उसी समय जर्मनी, फ्रांस, बेल्जियम, स्पेन और ग्रीस के किसान भी विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। सामान्यत: भौगोलिक परिस्थितियों, सरकारी नीतियों और प्राथमिकताओं में अंतर की वजह से सभी देशों में विरोध प्रदर्शन होते हैं और उनका कोई अंतर्सबंध नहीं होता है, लेकिन इस बार स्थिति कुछ और ही है। ऐसा लग रहा है आमदनी में घटती सहायता, बढ़ती खाद्य असुरक्षा, दिनों-दिन बढ़ते कर्ज और गरीबी ने सारी दुनिया के छोटे और मध्यम किसानों को एक ही मुकाम पर ला दिया है।
ये निर्णय भारत में कृषि क्षेत्र के लिए गंभीर दुष्परिणाम ला सकते हैं। 'एमएसपी' के लिए किसान संगठनों की मांग को 'डब्ल्यूटीओ' एक गैरवाजिब सब्सिडी के रूप में देख सकता था। भारत सरकार के लिए यह बड़े असमंजस की स्थिति है। एक तरफ तो वह कृषि उत्पादों के आयात-निर्यात के जटिल संबंधों पर किसानों से खुलकर समझौता नहीं कर पा रही है, दूसरी तरफ खाद्य सुरक्षा कायम रखने के लिए अनाज व अन्य उत्पादों की सरकारी खरीद नहीं कर पा रही है। खुशकिस्मती से 'डब्ल्यूटीओ' की कृषि संबंधी चर्चाएं (समझौते) किसानों के पक्ष में ही रहीं, परंतु फिर भी कहीं-न-कहीं इन मसलों को हल करना जरूरी होगा।
(लेखिका एकता परिषद' से जुड़ी शांति एवं अहिंसा पर मैदानी काम कर रही हैं।)


