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लिखना, पढ़ना और निर्भीक रहना - पत्रकारिता के स्तंभ शेष नारायण सिंह के जन्म दिन पर विशेष

आज जब दुनिया में पत्रकारिता का रूप बदल रहा है. अख़बार की जगह इन-शार्टस ने ले ली है

लिखना, पढ़ना और निर्भीक रहना - पत्रकारिता के स्तंभ शेष नारायण सिंह के जन्म दिन पर विशेष
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विनीता द्विवेदी

आज जब दुनिया में पत्रकारिता का रूप बदल रहा है. अख़बार की जगह इन-शार्टस ने ले ली है और टीवी न्यूज़ ने यू-टूयब और ट्विटर का रूप धर लिया है, जब प्रेस की आज़ादी पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं और नए पत्रकार इस पेशे में आने से डरने लगे हैं, तो शेष नारायण सिंह को उनके जन्मदिन पर याद करने का सही तरीक़ा उनकी पत्रकारिता के तरीक़े को याद करना ही होगा.

शेष नारायण सिंह भारत के उन महान पत्रकारों की श्रेणी में थे जिन्हें देश के इतिहास और वर्तमान की जानकारी गूगल से नहीं लेनी पड़ती थी. उन्हें 1947 के बाद के भारत के उत्थान के सभी मुख्य स्तंभ, लोग, आंदोलन, और कानूनी निर्णय सब कुछ किस्सों की तरह याद थे. गाँधी बाबा पर तो वे चलता फिरता इनसाक्लोपीडिया थे. इतना पढ़ने के बाद भी, हमेसा एक जिज्ञासु बच्चे की तरह कुछ नया जानने ओर समझने के लिए हमेशा आतुर रहते थे और जीवन के अंत तक लिखते रहे.

कलम के सिपाही तो, कलम से प्यार था. एक छोटी नोटबुक और पेन के बिना घर से निकल ही नहीं सकते थे. कोई भी असाइनमेट छोटा नहीं, और संसद चल रही हो तो वहाँ जाना बेहद ज़रूरी. प्रेस क्लब में रोज़ की हाज़िरी. वो हमेशा कहते पत्रकार का काम है पता करना, सोचना, समझना, पढ़ना और लिखना. इनमें से किसी भी मामले में कोई चूक नहीं करते थे.

उनके लिखने का तरीका अजब था. मुँह अधेरे उठ जाते थे, और लिखने बैठ जाते. यह रोज़ का नियम था. घंटे, दो-घंटे टाइप करते रहते. कभी आर्टिकल, कभी कालम, और कभी सोशल मीडिया पर लंबा सा कुछ. और लिखते ऐसा थे कि जो मन को छू जाए. भाषा सरल और आडंबर विहीन, शैली मधुर और सामयकि, विचार निडर और नए.

लेकिन शायद ही कोई ऐसा दिन हो, जब लेखनी से उन्हे कोई हटा पाए. सोने से पहले सोच लेते थे कल क्या लिखूँगा. हर दिन नया होता था लेकिन उनकी लिखने की आदत पुरानी होती गई. उनकी मुख्य भाषा हिदीं थी, लेकिन कभी उर्दू में छपते, कभी अंग्रेजी में. पर नियम से लिखना उनका एक मुख्य दैनिक काम काम था.

फिर जब सुबह के अखबार आ जाते तो आलती-पालथी मार कर बैठ जाते और सारे एक बार में पढ डालते. दिल्ली के लगभग सभी अखबार वो लेते थे. उसके बाद अक्सर वे अपने उन मित्रो और गुरूजनों से बात करते जिनसे देश दुनिया की सभी मुख्य खबरों के बारे में सुबह-सुबह विवेचवा हो सके. नया जानने औऱ समझने की उनकी ललक कभी ख़त्म नहीं होती थी. न कोई बड़ा ना छोटा – जहाँ भी उनका मन मस्तिष्क मिल जाए, वहाँ वो समय बिताने में कतई नही हिचकिचाते थे.

सुबह का एक और ज़रूरी काम होता था – शुभकामना का. यदि परिवार में या किसी करीबी का जन्मदिन हो तो निश्चित था कि सबसे पहला मेसैज उनका ही लिखा हुआ होगा. प्यार भरा, यादों से भीगी हुई उम्मीद और आशीर्वाद से लबालब. किसी को भी विश्वास दिलाना कि तुमसा कोई नहीं –यह उनके बाँए हाथ का काम था.

किताबों का प्रेम उन्हें हमेशा था – उनके छोटे से घर में लाइब्रेरी की परिकल्पना शुरू से थी. दुनिया भर की एक से एक पुस्तकें. मंटो, प्रेमचंद का पूरा संग्रह, कानून, राजनीति, अर्थनीति, विज्ञान, धर्म हर विषय पर उनके पास किताबें थीं. और बहुत चाव से वो उनसे हमारा परिचय कराते, उनका उपयोग समझाते और अक्सर एक-दो पढनें को ज़रूर देते. किताबें उनके लिए सबसे बढ़िया तोहफ़ा था– देने के लिए भी और पाने के लिए भी.

एक अदम्य पत्रकार का साहस इससे आता है कि कोई उन पर पक्षपात का आरोप नहीं लगा सके. इस मामले में शायद ही कोई उनका सानी हो. चाहे कोई पार्टी हो या कोई नेता – हर किसी को मालूम था कि शेष जी निरपेक्ष हैं. इसी कारण उनकी धाक थी. टीवी पर डीबेट हो या प्रेस क्लब में, उनकी आवाज़ की खनक सबको सुनाई पड़ती थी. इस कारण बहुत से नए उभरते पत्रकार उन्हें अपनाआदर्श मानते थे – काजल की कोठरी में रह कर भी दाग़ कभी नहीं लगा.

समाजवाद, साम्यवाद, मार्क्सवाद, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक समानता, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति,और साहित्य पर शेष जी ने चार दशकों तक लिखा और मंथन किया. उन्होंने राष्ट्रीय सहारा, जेवीजी टाइम्स, एनडीटीवी, देशबन्धु में लंबे समय तक काम किया और बीबीसी हिंदी, टाइम्स नाउ, एबीपी न्यूज़,सीएनएन-आईबीएन और कई सोशल मीडीया प्लैटफ़ार्म पर अपनी बात रखी और उन्हें आगे बढ़ाने में मदद की. उन्होंने कई सस्थानों में पत्रकारिता सिखाई और और देश भर में विशेष व्याख्यान किए.

उनकी कलम की ताक़त और आवाज़ के जोश का एक और अन्य मुख्य कारण था उनका बङप्पन और दिलदारी. कोई कुछ माँग ले. किसी को कोई भी ज़रूरत हो. वो ना पात्र देखते ना पात्रता – जो बन पाता कर देते. दिल खोल कर उन्होंने दिया, मदद की, पथ प्रदर्शन किया, संबल दिया और समझा. अत्यंत संवेदनशीलता के साथ वो सहज ही कितने लोगों का सहारा बने कि आज उनके जाने के एक वर्ष बाद भी, उनकी कमी एक विशाल खालीपन है. उनके साथ भले ही बहुत सारा ज्ञान और कितनी ही कहानियाँ खो गईं, लेकिन उनका जीवन और पत्रकारिता एक देदिप्यमान प्रेरणा है.

शेष नारायण सिंह लंबे समय तक देशबंधु के राजनीतिक संपादक रहे.


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