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रोजगार घटने के चिंताजनक आंकड़े

2018-19 से 2022-23 के दौरान देश में सभी तरह के रोजगार में बड़ी कमी होने के आंकड़े सामने आए हैं

रोजगार घटने के चिंताजनक आंकड़े
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2018-19 से 2022-23 के दौरान देश में सभी तरह के रोजगार में बड़ी कमी होने के आंकड़े सामने आए हैं। नौकरियां हों या दैनिक वेतनभोगी मजदूर, बड़ी संख्या में उन्होंने आजीविका खोई है। अधिक चिंताजनक यह है कि इनमें महिलाएं अधिक हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकानॉमी की इस अवधि की रिपोर्ट के अनुसार 31 लाख लोगों ने नौकरियां खोई हैं जिनमें पुरुष 5 लाख तो महिलाएं 26 लाख हैं। ऐसे ही, छोटे कारोबार एवं दैनिक वेतन पर काम करने वालों में 1.35 करोड़ रोजगार घटे हैं।

52 लाख महिलाएं तथा 83 लाख पुरुष थे। ये आंकड़े ऐसे वक्त में सामने आ रहे हैं जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत को खुशहाल देश बतला कर दावा कर रहे हैं कि जल्दी ही वह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जायेगा जिसकी अर्थव्यवस्था का आकार 5 ट्रिलियन होगा। यह तथ्य ऐसे भी वक्त सबके समक्ष आया है जब नारी शक्ति वंदन अधिनियम को संसद में पारित होकर एक सप्ताह भी नहीं हुआ है। विकसित व आर्थिक रूप से सशक्त समाज बनाने में कामकाजी महिलाओं की बड़ी भूमिका होती है, लेकिन जिस प्रकार से इन आंकड़ों के मुताबिक औरतों के जीविकोपार्जन के साधन छीने गये हैं, वे भारतीय अर्थव्यवस्था का क्रूर चेहरा भी उजागर करते हैं। समाज के तौर पर देश महिलाओं को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रस्त तो पहले से ही है।

जिन लोगों ने नौकरियां खोई हैं, वे संगठित क्षेत्रों के थे और उनके वेतन बढ़िया थे। नौकरियां जाने से उनके जीवन पर क्या असर हुआ होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। असंगठित क्षेत्रों में रोजाना वेतन पर काम करने वाले मजदूरों, जिन्हें दिहाड़ी मजदूर भी कहा जाता है, उनकी संख्या 2018-19 में 14.05 करोड़ थी, जो 2022-23 में घटकर 12.7 करोड़ रह गई। सीएमआईई के अनुसार देश में कामकाजी लोगों की संख्या 40.58 करोड़ है जिनमें से पुरुष 36.77 करोड़ तथा महिलाएं 3.82 करोड़ हैं- केवल 10 प्रतिशत के आसपास। व्यवसाय हो या कृषि, वेतनभोगी हों या दिहाड़ी मजदूर, सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है। वैसे छोटे व्यवसाय एवं खेती-किसानी में महिलाओं के रोजगार कुछ बढ़े हैं परन्तु अभी भी सभी सेक्टरों में व्यापक बेरोजगारी का आलम है। खासकर, महिलाओं की स्थिति दयनीय है।

यह तस्वीर मोदी सरकार के बेहद खराब प्रबन्धन का नतीजा है। 2016 में लाई गई नोटबन्दी और बाद में जीएसटी कानून ने अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर दिया है। इसके दुष्परिणाम अब तक देश भुगत रहा है। नोटबन्दी ने रातों-रात लाखों कारोबार और छोटे-मोटे कामों को बन्द कर दिया। रही-सही कसर जीएसटी ने पूरी कर दी। कई छोटे व लघु आकार की इकाइयों ने भी दम तोड़ दिया था। अनेक कारोबार व उद्योग उस वक्त जो बन्द हुए, आज तक या तो खुल नहीं पाये अथवा उनमें से बड़ी संख्या में लोगों को काम से हटाया गया। इसके बाद कोविड-19 भी कहर बनकर लोगों पर टूटा है। बड़ी तादाद में व्यवसाय और निर्माण इकाइयों को भी लॉकडाउन में बन्द करना पड़ा था। उनमें से कई उद्योगों व कारोबार के ताले आज तक नहीं खुले। सीएमआईई की ही पूर्ववर्ती रिपोर्ट में बताया गया था कि इसी साल (2023) जनवरी (7.14 प्रश) से अप्रैल (8.11) के दौरान ये आंकड़े भी सामने आये थे कि भारत में बेरोजगारी की दर हर माह बढ़ती जा रही है। अभी मई में इसका प्रतिशत 7.68 था जो जून में बढ़कर 8.45 हो गया है। हालांकि भारत सरकार इन आंकड़ों को गलत बताती है क्योंकि उसके राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (एनएसओ) के अनुसार देश में रोजगार की स्थिति सुधर रही है। वैसे लगभग सारे अर्थशास्त्री सीएमआईई के आंकड़ों को ही सही मानते हैं। आंकड़ों को एक ओर रख दिया जाये तो भी देश में बढ़ती बेरोजगारी नंगी आंखों से भी दिखती है।

वैसे भी केन्द्र सरकार रोजगार बढ़ाने के मामले में कभी भी गम्भीर नहीं रही है। उसके सारे आश्वासन कहीं दूर भविष्य में फलीभूत होने की बात करते हैं। तत्काल प्रभाव से मिलने वाले रोजगार कम ही हैं। 2014 में जब यह सरकार केन्द्र की सत्ता में आई थी, उसने हर वर्ष दो करोड़ रोजगार देने की बात कही थी। उलटे, बेरोजगारी इतनी बढ़ी है कि अब केन्द्र सरकार ने उससे सम्बन्धित आंकड़े रखने ही बन्द कर दिये हैं। इसका ऐलान भी वह कर चुकी है। अब सरकार या आर्थिक नीति पर काम करने वालों के पास ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं रह गई है जिसके आधार पर वे रोजगार बढ़ाने सम्बन्धी योजना बना सकें। सरकार की रोजगार बढ़ाने में कोई रुचि ही नहीं रह गई है। जो थोड़ी बहुत शासकीय नौकरियां निकलती हैं उनके नियुक्ति पत्र मोदी समारोहों के जरिये बांटते हैं और उसका उपयोग अपनी छवि सुधारने या फिर चुनावी लाभ लेने में करते हैं। गम्भीर प्रयासों का अभाव स्पष्ट दिखलाई देता है। ऐसे में बेरोजगारी और बढ़े तो आश्चर्य नहीं।

बेरोजगारों की बढ़ती संख्या का समाज पर क्या असर होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। जब देश के युवाओं के हाथों में रोजगार नहीं होंगे व जिनके पास काम हैं भी तो उन्हें जिस प्रकार से खत्म किया जा रहा है उससे एक निष्क्रिय समाज ही बनेगा जो गैर रचनात्मक होगा। वैसे भी जिस प्रकार से निजीकरण को बढ़ावा देकर लोगों की जीविका के सभी तरह के साधन छिने जा रहे हैं उसके दो कारण हैं। पहला तो यही कि कारोबार व उद्योग बंद होने से वे मोदी के मित्र उद्योगपतियों व व्यवसायियों के हाथों में चले जाएंगे। दूसरे, उन्हें सस्ता मानव संसाधन मिलेगा। महिलाओं की आय के साधन छीनना तो गरीबी को और तेजी से बढ़ायेगा।


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