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मानव तस्करी पर चिंताजनक रिपोर्ट

मानव तस्करी निषेध दिवस पर वर्ष 2016 से 2022 तक की जारी रिपोर्ट न केवल चिंताजनक है वरन वह विकास की पोल खोलती हुई भी नज़र आती है

मानव तस्करी पर चिंताजनक रिपोर्ट
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मानव तस्करी निषेध दिवस पर वर्ष 2016 से 2022 तक की जारी रिपोर्ट न केवल चिंताजनक है वरन वह विकास की पोल खोलती हुई भी नज़र आती है। यह रिपोर्ट रविवार को नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी द्वारा उन्हीं के नाम से स्थापित चिल्ड्रेंस फाउंडेशन एवं एनजीओ गेम्स 24 गुणा 7 की ओर से जारी की गयी। इसे 'चाइल्ड ट्रेफिकिंग इन इंडिया: इनसाइट्स फ्रॉम सिचुएशनल डाटा एनालिसिस एंड दी नीड फॉर टेक ड्रिवन इंटरवेंशन स्ट्रेटेजी' के नाम से प्रकाशित किया गया है। इसमें 2016-22 के दौरान हुई मानव तस्करी के विस्तृत आंकड़े व विवरण तो दिये ही गये हैं, इस अपराध की रोकथाम के उपाय भी सुझाए गये हैं। आवश्यकता इस बात की है कि मानव तस्करी रोकने के लिये सम्बन्धित कानूनों का कड़ाई से पालन करने के साथ उन सामाजिक परिस्थितियों को समाप्त किया जाए जो इस समस्या के मूल में हैं। वैसे इस रिपोर्ट के अनुसार कोरोना के बाद मानव तस्करी में बेतहाशा इज़ाफ़ा दर्ज हुआ है, विशेषकर बच्चों की तस्करी के मामले में।

देश के 21 राज्यों और 262 जिलों में किये गये सर्वेक्षणों के आधार पर तैयार रिपोर्ट में ऐसे अनेक चिंताजनक खुलासे हुए हैं जिन पर सरकार को तत्काल संज्ञान लेने तथा समग्र समाज को इस समस्या से मुक्तिपाने के लिये कमर कसने की ज़रूरत है। इसमें बताया गया है कि उपरोक्त बतलाई गयी अवधि में ज्यादातर बच्चों की ही तस्करी हुई है लेकिन महामारी के पश्चात ऐसे मामलों में 68 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। यह साबित करता है कि बच्चे और उनके परिवार घोर गरीबी व भुखमरी के शिकार हुए हैं तभी उनके बच्चों को उनकी मर्जी से अथवा बिना सहमति या मर्जी के उनके गृह नगर, गांव या कस्बों को छोड़कर अन्य शहरों का रुख करना पड़ा। जाहिर है कि बड़े पैमाने पर बच्चों को उनके जीवन जीने और शिक्षा के अधिकार से वंचित होना पड़ा है।

रिपोर्ट बतलाती है कि 13 से 18 वर्ष की आयु वर्ग के 15 फीसदी से अधिक बच्चे विभिन्न तरह की दुकानों, ढाबों एवं उद्योगों में काम करते हैं, तो वहीं 13 फीसदी कपड़े की दुकानों से आजीविका प्राप्त करते हैं। 11 फीसदी से ज्यादा बच्चे खुदरा दुकानों में काम करते हुए गुजारा कर रहे हैं। उपरोक्त उल्लेखित अवधि यानी 2016-22 के दौरान जिन बच्चों की तस्करी की गयी उनमें 13 फीसदी 9 से 12 वर्ष और 2 फीसदी 9 साल से कम उम्र के हैं। फाउंडेशन व सहयोगी संगठनों ने 13500 से ज्यादा बच्चों को उनके कामों (दुकानें, ढाबे, उद्योग) से छुड़ाया। जिन बच्चों को मुक्त कराया उनमें से 80 प्रतिशत 18 वर्ष से कम आयु के हैं जो यह बतलाने के लिये काफी है कि देश में बाल श्रम कानूनों का जमकर उल्लंघन हो रहा है। कुछ खतरनाक उद्योगों में भी काम करते हुए बच्चे मिले जिन्हें छुड़ाया गया। उत्तर प्रदेश, बिहार और आंध्र प्रदेश से सर्वाधिक बच्चों की तस्करी हुई। शहरों की बात करें तो जयपुर व दिल्ली में सबसे ज्यादा ऐसे बच्चों को विभिन्न तरह के कामों के लिये पहुंचाया गया।

रिपोर्ट समाज के इस दुखद पहलू की ओर भी ध्यान दिलाती है कि कोविड-19 ने देश में जो आर्थिक तबाही लाई है, उसका सीधा असर बच्चों पर भी पड़ा है। घर में रोटी कमाने वाले की मृत्यु होने या परिवार के मुखिया के रोजगार चले जाने जैसे कारण इसके पीछे हो सकते हैं जिसके चलते बच्चों के कोमल कांधों पर उनके अपने और सम्भवत: साथ में परिवारजनों के पेट भरने की जिम्मेदारी भी आन पड़ी होगी। पारिवारिक कलह भी एक कारण हो सकता है। चाहे जिन कारणों से भी बच्चों को घर छोड़कर कच्ची आयु में रोजी-रोटी के लिये संघर्ष करना पड़ा हो, बेशक यह स्थिति सरकार व समाज दोनों के ही लिये बहुत शर्मनाक है। यह भी ध्यान रहे कि यह देश की सच्चाई का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है। असली तस्वीर इसके मुकाबले बहुत बड़ी है। घरेलू नौकरों के रूप में या सुदूर गांवों आदि में ले जाये गये तथा वहां काम करते हुए बच्चे प्रशासन की निगाहों से बच जाते हैं। उनके लिये कानून के उल्लंघन से अधिक महत्वपूर्ण दो जून की रोटी का जुगाड़ है। बहुत से बच्चे काम खो जाने के भय व अपनी ज़रूरत के चलते प्रशासन या उन्हें छुड़ाने वाले संगठनों से स्वयं की जानकारी को छिपा जाते हैं।

यह रिपोर्ट विकास के खोखलेपन को भी उजागर करती है और अनेक विसंगतियों को सामने लाती है। एक ओर तो भारत दुनिया भर में अपनी महानता और विशाल अर्थव्यवस्था होने का दावा करता फिर रहा है, वहीं यह रिपोर्ट इस बात का साक्ष्य है कि देश का सामाजिक सुरक्षा का ढांचा बेहद ढीला-ढाला है और मानव विकास से संबंधित कार्यक्रमों को लागू करने वाली व्यवस्था एकदम से प्रभावहीन है। जिन बच्चों को कल के हिन्दुस्तान की तस्वीर कहकर महिमा मंडित किया जाता है वे छोटी-मोटी दुकानों में राशन-परचून बेचते, ढाबों व खानपान के ठेलों के पीछे जूठे बर्तन मांजते, उद्योगों में काम करते हुए या ऐसे ही किसी असंगठित क्षेत्र में मेहनत-मजदूरी करते हुए अपने वर्तमान को स्वाहा कर रहे हैं।

सरकार व समाज के पास उनके हाथों में किताबें थमाने व अच्छा जीवन देने की अब न तो इच्छा है और न ही समाज इसके लिये दृढ़ संकल्पित है। इस विश्वव्यापी (खासकर तीसरी दुनिया कहलाने वाले देशों की) समस्या की गम्भीरता को देखते हुए राष्ट्रसंघ ने माना है कि 'मानव तस्करी एक संगीन अपराध है और मानवाधिकार का बड़ा उल्लंघन है।' बच्चों को उनके अधिकार लौटाये बिना समृद्ध व खुशहाल देश की कल्पना करना बेकार है।


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