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जेन-जी प्रदर्शन: इतने गुस्से में क्यों हैं एशिया के नौजवान?

दक्षिण और दक्षिण–पूर्व एशिया के युवाओं में नेताओं के प्रति भारी नाराजगी है

जेन-जी प्रदर्शन: इतने गुस्से में क्यों हैं एशिया के नौजवान?
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दक्षिण और दक्षिण–पूर्व एशिया के युवाओं में नेताओं के प्रति भारी नाराजगी है. कम होती नौकरियों और बढ़ती असमानता के बीच युवाओं के विरोध प्रदर्शन देशों की राजनीति को हिला रहे हैं.

पिछले दो महीनों में, युवाओं के प्रदर्शनों ने दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की राजनीति को हिला कर रख दिया है. काठमांडू से लेकर जकार्ता तक और दिली से लेकर मनीला तक हर जगह इनका असर दिख रहा है. युवाओं के हालिया विरोधों ने जहां एक तरफ नेपाल की सरकार गिरा दी. वहीं, दूसरी तरफ दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों में नेताओं को मिलने वाली विशेष सुविधाओं पर कार्रवाई करने के लिए सरकार को मजबूर किया है.

हालांकि, हर देश में विरोध की वजह अलग है. लेकिन उसकी जड़ में, देश में पनपने वाला असंतोष ही है. युवाओं के बीच बढ़ रही असमानता और मोबाइल स्क्रीन पर रोज दिखने वाला अमीरों और गरीबों के बीच का अंतर इस आग को हवा देता है.

विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट भी इसी ओर इशारा करती है. जिसके अनुसार, चीन और इंडोनेशिया में हर सातवां युवा बेरोजगार है. फिर इन देशों में ज्यादातर नौकरियों भी कम वेतन वाली आ रही हैं.

हालांकि, सबसे चिंताजनक बात यह है कि जो लोग "गरीबी की कगार पर” है. उस सबसे अधिक संख्या युवाओं की ही है. कई देशों में तो यह हाल है कि ऐसे युवाओं की संख्या देश के मध्यम-वर्ग से भी ज्यादा बड़ी है.

संपत्ति की असमानता युवाओं के गुस्से की जड़

एशिया ह्यूमन राइट्स एंड लेबर एडवोकेट्स के निदेशक फिल रॉबर्टसन ने डीडब्ल्यू को बताया कि यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि हाल के विरोध प्रदर्शनों की अगुवाई युवा कर रहे हैं. सोशल मीडिया पर अमीरों की चमक-दमक भरी जिंदगी के दिखावे को अक्सर सरकारी भ्रष्टाचार के तौर पर देखा जाता है. यह युवाओं के गुस्से को और भड़काता हैं.

रॉबर्टसन ने कहा, "पूरे इलाके में सरकारों की नाकामी, अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बढ़ाती ही जा रही हैं. इससे युवाओं के अंदर विरोध पैदा हो रहा है. और युवा जानते हैं कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है, इसलिए ही वह बेधड़क सड़कों पर उतर रहे हैं.”

युवाओं के नेतृत्व में उठी विरोध की लहर

नेपाल में हुए आंदोलन ने प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद शर्मा ओली की सरकार को गिरा दिया और संसद को भंग करने पर मजबूर कर दिया.

जिसके कुछ समय बाद इंडोनेशिया में भी कई हफ्तों तक हिंसक विरोध प्रदर्शन हुए. जब वहां आम जनता महंगाई से जूझ रही थी. तब सांसदों को विशेष सुविधाओं दी जा रही थी. जिसके बाद यह गुस्सा फूटा. अगस्त के अंत में शुरू हुए यह विरोध प्रदर्शन देशभर में फैल गए. इस दौरान कम से कम दस लोगों की मौत हुई और अधिकारियों ने हजारों लोगों को हिरासत में लिया.

लेकिन आखिरकार, राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो को कार्रवाई करनी ही पड़ी. उन्होंने सांसदों की सुविधाएं कम कीं और अपनी सरकार में भी बड़ा फेरबदल किया.

इसके बाद विरोध की यह लहर तिमोर-लेस्ते पहुंची. यह एशिया के सबसे गरीब देशों में से एक है. सितंबर के अंत में वहां संसद के बाहर छात्रों ने कई दिनों तक प्रदर्शन किए. वह सांसदों के लिए नई गाड़ियां खरीदने और उनको आजीवन पेंशन देने वाले कानूनों का विरोध कर रहे थे.

अंत में सरकार को झुकना ही पड़ा. सांसदों ने पेंशन कानून और कार खरीद की योजना को रद्द करने के लिए मतदान किया.

फिलीपींस में भी यही मंजर देखा जा रहा है. सितंबर में मनीला के रिजाल पार्क में हजारों युवा प्रदर्शनकारी जुट गए. और उन्होंने लगभग 1.8 अरब डॉलर के भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रदर्शन करना शुरू कर दिया.

आर्थिक अन्याय और अमीर वर्ग की सुविधाएं बने बड़े मुद्दे

ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी की शोधकर्ता गीता पुत्री दमयाना के अनुसार, युवाओं ने इन आंदोलनों को ऊर्जा और डिजिटल समर्थन दिया है. लेकिन उनके असली मुद्दे आर्थिक अन्याय और अमीर वर्ग को मिलने वाले विशेष अधिकारों से जुड़े हैं.

इंडोनेशिया और नेपाल में छात्रों के बाद यूनियन सदस्यों, मजदूरों और सामाजिक संगठनों ने भी इन विरोधों में हिस्सा लिया था.

यूनिवर्सिटी ऑफ नॉटिंघम में शोध सहयोगी ब्रिजेट वेल्श ने डीडब्ल्यू को बताया, "तिमोर-लेस्ते और इंडोनेशिया में युवाओं की भूमिका सबसे मजबूत रही है. हालांकि, फिलीपींस में भी उन्होंने अहम योगदान दिया.”

ओसाका के कानसाई गाइडाई विश्वविद्यालय में शांति और संघर्ष का अध्ययन करने वाले एसोसिएट प्रोफेसर मार्क कोगन ने डीडब्ल्यू को बताया कि यह कोई नया चलन नहीं है. 2020–21 के दौरान थाईलैंड में युवा आंदोलन ने सत्ता और राजशाही में सुधार की मांग की थी. लेकिन सरकार ने अंततः दमन का रास्ता अपना लिया था.

हालांकि, उनके अनुसार इन हालिया विरोधों का उद्देश्य तख्तापलट करना नहीं हैं. बल्कि इनका लक्ष्य मौजूदा व्यवस्था में जवाबदेही और बेहतर शासन लाना है.

क्या यह विरोध और बढ़ेंगे?

विश्लेषकों के अनुसार, दक्षिण-पूर्व एशिया की सरकारें अब समझ गई है कि अमीरों की दिखावटी सुविधाएं युवाओं को भड़का सकती हैं. जबकि कई देशों में अधिकारी युवाओं के आंदोलनों को "दंगे” या "विदेशी फंडिंग” बता कर कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन असली चुनौती है, इन विरोधों को ठोस सुधारों में बदलना. जैसे निष्पक्ष चुनाव कराना और भ्रष्टाचार विरोधी संस्था बनाना.

हालांकि, बढ़ती आर्थिक और राजनीतिक असमानताएं विरोधों को जन्म दे सकती हैं. रॉबर्टसन ने कहा कि सोशल मीडिया की मदद से एक देश में सफल युवा आंदोलन अन्य देशों में भी प्रेरणा दे सकते हैं. उनके अनुसार इन आंदोलनों के बाद बढ़ने वाली जवाबदेही, समानता की दिशा में सकारात्मक कदम हो सकता है.



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