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क्या नालंदा ज्ञान की वापसी करेगा?

बुधवार को बिहार के उस नालंदा विश्वविद्यालय के नये भवन का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकार्पण किया जो करीब दो हजार साल स्थापित हुआ था

क्या नालंदा ज्ञान की वापसी करेगा?
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बुधवार को बिहार के उस नालंदा विश्वविद्यालय के नये भवन का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकार्पण किया जो करीब दो हजार साल स्थापित हुआ था। तकरीबन 600 वर्षों तक भारत ही नहीं, सम्पूर्ण दक्षिण एशिया का महत्वपूर्ण विद्या-केन्द्र रहा। मूलत: यह बौद्ध धर्म की महायान शाखा द्वारा बनाया गया था परन्तु इसमें हीनयान शाखा के साथ अन्य धर्मों के दर्शन तथा कई विषयों का अध्ययन होता था। इसमें भारत से बाहर के कई छात्र व विद्वान रहकर पढ़ने आते थे। कई विदेशियों, विशेषकर चीन के ह्वेनसॉंग और इत्सिंग के यात्रा वृत्तांतों में भी इसका वर्णन है जो इसमें रहे भी। कहते हैं कि इसमें 10 हजार छात्रों के लिये 2000 शिक्षक हुआ करते थे। मोदी ने जब इसका लोकार्पण किया तो उस अवसर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तथा 17 देशों के राजदूत मौजूद थे। कुछ समय पहले भारत में सम्पन्न हुए जी-20 के सम्मेलन में दिये अपने भाषण में मोदी ने इसका एक बड़ा सा चित्र सभी को दिखलाया था और भारत की गौरवमयी विरासत के परिप्रेक्ष्य में इसका जिक्र किया था।

इसमें कोई शक नहीं कि नालंदा विवि भारत की ज्ञान परम्परा का एक बड़ा संस्थान रहा था। दूसरा तक्षशिला विश्वविद्यालय भी था जो अब पाकिस्तान (रावलपिंडी) के हिस्से में चला गया है। बहरहाल, इतिहास बताता है कि साल 1199 में इसे कुतुबुद्दीन ऐबक के सेनापति मोहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने आग लगवा दी थी। अब मोदी सरकार इसका पुनरुत्थान करने जा रही है। बिहार की राजधानी पटना से करीब 88 किलोमीटर दूर नालंदा जिले के राजगीर में स्थित इस विश्वविद्यालय में 24 कक्ष हैं जिनका पुनर्निर्माण किया जा रहा है। देश की हर ऐसी विरासत का लौटना खुशी व गर्व का विषय है। इसलिये यह एक स्वागत योग्य कदम है। वैसे यह तो सच है कि नालंदा विवि के जलने से भारत की विशाल ज्ञान सम्पदा को बड़ा नुकसान हुआ था; और जैसा कि कहा जाता कि उनमें इतनी पुस्तकें थीं कि उसकी लाइब्रेरी कई माह तक जलती रही।

दूसरी तरफ यह भी सच है कि इस सम्पदा के नुकसान को भारत ने जल्दी ही वापस पा लिया था। कालांतर में जो मुसलमान शासक आये, उन्होंने अरबी, फारसी के साथ उर्दू, रेख़्ता और हिन्दी साहित्य को बढ़ावा ही दिया। संस्कृत के साथ अनेक भाषाएं फलती-फूलती रहीं। अवधी, ब्रज जैसी कई लोकभाषाओं में कई रचनाएं लिखी गयीं और उनके जरिये भी ज्ञान गंगा सतत प्रवाहित होती रही। अमीर खुसरो से प्रारम्भ खड़ी बोली के बाद अंग्रेज जब आये तो वे अंग्रेजी के साथ पाश्चात्य देशों का ज्ञान लेते आये।

उनके जरिये औद्योगिक, तकनीकी व व्यवसायिक विकास हुआ। उन्हीं के खोले गये स्कूलों व कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में आधुनिक शिक्षा दी जाने लगी। मध्ययुगीन ज्ञान का स्थान नूतन ज्ञान ने लिया। यह कहने में किसी को कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि आजादी के बाद भारत ने बहुत कम समय में जो विकास किया उसका बड़ा कारण देश में पहले से पहुंच चुकी आधुनिक शिक्षा पद्धति थी। यह अलग बात है कि वाट्सएप यूनिवर्सिटी ने लोगों को अब बेमिसाल ज्ञान यह दिया है कि विदेशियों ने परम्परागत भारत की गुरुकुल परम्परा को खत्म कर दिया ताकि भारत की संस्कृति को नष्ट किया जा सके।

यह बात तो सही है कि प्राचीन शिक्षा पद्धति समाप्त हो गयी लेकिन यह भी सच है कि उसमें वर्तमान समय की चुनौतियों का कोई जवाब नहीं था और कथित गुरुकुल पद्धति अभिजात्य वर्ग के लोगों तक ही सीमित थी। कुछ धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन पर टिकी प्राचीन शिक्षा का दायरा बहुत संकीर्ण था और वह व्यवहारिक जीवन से मेल नहीं खाती थी। ऐसा नहीं कि वह सारा ही अध्ययन बेकार था जो वेद-वेदांगों, पुराणों, उपनिषदों सहित धर्म ग्रंथों पर केन्द्रित था लेकिन जैसे-जैसे पूरी दुनिया विकसित होती गयी, यह ज्ञान व्यापक परिप्रेक्ष्य में अप्रासंगिक होता चला गया। जिन्हें दिलचस्पी है, वे आज भी इनका अध्ययन कर आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करते हैं।

भारत के विकास में विदेशों से आए ज्ञान ने भारत को कल-कारखाने, बड़े बांध, अस्पताल, सड़कें, पुल, इमारतें दीं, कृषि उत्पाद बढ़ाने के उपाय बताये, विभिन्न बीमारियों से मुक्ति के टीके व दवाएं दीं, कपड़ा मिलें खोलीं और देश को आत्मनिर्भर बनाया। भारत की इस ज्ञान परम्परा को आजाद भारत ने इसलिये जारी रखा क्योंकि हमारे राष्ट्र निर्माता जानते थे कि आधुनिक शिक्षण संस्थानों से न केवल हमारी समस्याओं के हल निकलेंगे वरन ऐसे नागरिक बनेंगे जिनका दृष्टिकोण उदार हो तथा वे विवेकवान हों। इसे जो सबसे बड़ा झटका लगा वह भारतीय जनता पार्टी के इसी दस साल के कार्यकाल में। ज्ञान की जितनी तौहीन और उपेक्षा इस काल में हुई वैसी भारत के बुरे से बुरे काल में भी नहीं हुई थी।

नालंदा को जलाने का जो वक्त था वह मध्यकालीन था जब सब कुछ तलवारों से तय होता था। पिछले दशक भर से देखा यह गया कि सत्ता और तकनीकों का उपयोग आधुनिक ज्ञान को दबाने व मिटाने के लिये किया जा रहा है। राजनीतिक हिसाब चुकता करने के लिये ज्ञान के मुकाबले अज्ञान का साम्राज्य खड़ा किया गया ताकि उसके जरिये उस राजनैतिक विरासत को अपमानित किया जा सके जिसकी विचारधारा भाजपा व उसकी मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से नहीं मिलती। इसी दुर्भावना ने नालों से गैस बनाई, पकौड़े बनाने को रोजगार बताया और बादलों से राडार की नज़रों से लड़ाकू विमानों को छिपाया। इसलिये यह सवाल अपनी जगह से बिलकुल नहीं हटता कि पिछले दस वर्षों में देश में ज्ञान की जो दुर्दशा हुई है उसकी भरपायी क्या नालंदा के पुनर्जीवित होने से हो सकेगी?


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