इन चुनावों के बाद एकदम अलग-थलग पड़ जायेंगे मोदी?
तेलंगाना की बात करें तो कह सकते हैं कि पहले सत्तारुढ़ भारत राष्ट्रीय समिति (बीआरएस) का जो मुकाबला भाजपा के साथ माना जा रहा था

- डॉ. दीपक पाचपोर
तेलंगाना की बात करें तो कह सकते हैं कि पहले सत्तारुढ़ भारत राष्ट्रीय समिति (बीआरएस) का जो मुकाबला भाजपा के साथ माना जा रहा था, वह अब कांग्रेस के साथ हो गया है। पिछले साल अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने तेलंगाना में जो 12 दिन बिताये तथा हाल ही में तीन दिन और जनसम्पर्क किया, उसने भाजपा को लड़ाई से बाहर कर दिया है। राहुल के साथ प्रियंका गांधी की राज्य के मुलुगु जिले में हुई सभा का बड़ा असर बतलाया जा रहा है।
अगले महीने विभिन्न चरणों में होने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को लेकर भारतीय जनता पार्टी में जैसे घटनाक्रम हो रहे हैं, उनसे भाजपा का चिंतित होना स्वाभाविक तो है लेकिन सबसे अधिक चिंता होनी चाहिये खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जो लगातार अकेले पड़ते जा रहे हैं। ये घटनाक्रम जो संकेत दे रहे हैं और जैसे नतीजे अनुमानित हैं, उससे मोदी अपनी ही पार्टी में एकदम अलग-थलग पड़ सकते हैं। ऐसी हालत में क्या वे 2024 के लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी का प्रतिनिधि चेहरा रहेंगे? रहे भी तो क्या वे पार्टी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एनडीए) को बहुमत दिला पाएंगे? राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के 3 दिसम्बर को आने वाले परिणाम ही इन सवालों का जवाब दे पायेंगे। फिर भी साफ है कि मोदी इस समय 2019 की तरह सुविधाजनक स्थिति में बिलकुल नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि अगला लोकसभा चुनाव पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले एकदम अलग रहेगा।
2019 में जो हुआ, उसका दोहराया जाना अब सम्भव नहीं होगा। जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें उसके लिये राजस्थान और मध्यप्रदेश सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह इसलिये कि इन्हीं दोनों राज्यों से भाजपा को उम्मीद है- एक में कांग्रेस से सत्ता छीनने और दूसरे में बचाये रखने की। हालांकि दोनों टास्क उसके लिये अब आसान नहीं। छत्तीसगढ़ में पहले से कांग्रेस की बेहद मजबूत सरकार है। भाजपा की वर्तमान स्थिति कम से कम ऐसी नहीं दिखती कि बिना किसी बड़े चमत्कार के वह सत्ता पा ले। आम आदमी पार्टी, अरविंद नेताम की हमर राज पार्टी जैसे कुछ अन्य दलों के द्वारा कांग्रेस के कुछ वोट काटने से शायद उसे फायदा मिल सकता है। लोग यह तो मान रहे हैं कि कांग्रेस की चाहे सीटें घट जायें परन्तु सत्ता के लिये आवश्यक जादुई आंकड़े को वह छू लेगी।
तेलंगाना की बात करें तो कह सकते हैं कि पहले सत्तारुढ़ भारत राष्ट्रीय समिति (बीआरएस) का जो मुकाबला भाजपा के साथ माना जा रहा था, वह अब कांग्रेस के साथ हो गया है। पिछले साल अपनी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने तेलंगाना में जो 12 दिन बिताये तथा हाल ही में तीन दिन और जनसम्पर्क किया, उसने भाजपा को लड़ाई से बाहर कर दिया है। राहुल के साथ प्रियंका गांधी की राज्य के मुलुगु जिले में हुई सभा का बड़ा असर बतलाया जा रहा है। अब 31 अक्टूबर को प्रियंका यहां के महबूबनगर में आ रही हैं। अपने एक चुनावी भाषण में मोदी द्वारा यह बतलाना कि हैदराबाद कौंसिल के चुनावों के बाद उनकी पार्टी का मेयर बनाने के लिये मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने उनसे भाजपा का समर्थन मांगा था, केसीआर पूरी तरह से बेनकाब हो गये हैं। राहुल को भी यह कहने का मौका मिल गया कि 'बीआरएस को वोट देने का मतलब है भाजपा को वोट देना'। उन्होंने यह भी कहा कि 'ज़रूरत पड़ने पर केसीआर हमेशा मोदी की मदद करने के लिये आगे आते हैं।'
मिजोरम के चुनावों पर मणिपुर की घटनाओं का बड़ा असर बतलाया जा रहा है। है तो यहां सत्ताधारी मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ, 26 सीटें) की सरकार जिसने 2018 के चुनावों में भाजपा के साथ गठबन्धन किया था लेकिन भाजपा केवल एक सीट पर ही सिमट गयी थी। फिर भी वह खुद को सरकार का हिस्सा मानती रही है जबकि चुनाव जीतने के बाद वहां के मुख्यमंत्री जोरामथंगा ने साफ कर दिया था कि उसे अब भाजपा के सहयोग की आवश्यकता नहीं है। कुछ दिन पहले यहां भी राहुल ने दो दिवसीय दौरा किया। जिस पैमाने पर लोग उनसे जुड़े, उससे साफ हो गया कि यहां भी अब एमएनएफ का मुकाबला कांग्रेस के साथ हो गया है जबकि दूसरे नंबर की पार्टी जोराम पीपुल्स मूवमेंट पीछे ढकेल दी गयी है। भाजपा को यहां से कोई उम्मीद नहीं हो सकती। म्यांमार के घुसपैठियों को रोकने और शरणार्थियों का बायोमेट्रिक डाटा एकत्र करने का केन्द्र का आदेश मानने से मिजोरम सरकार ने साफ कर दिया था। इससे दोनों सरकारों व पार्टियों की दूरियां बढ़ गयी हैं।
रहा राजस्थान और मध्यप्रदेश! अब भाजपा केन्द्रित विमर्श इन्हीं दोनों राज्यों के सन्दर्भ में होता है। राजस्थान में भाजपा को पहले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत तथा असंतुष्ट चल रहे सचिन पायलेट के बीच चल रहे मनमुटाव से आशा थी कि उसका उसे फायदा मिलेगा। ऐसा नहीं हुआ। उलटे भाजपा को अपनी ही 3 बार मुख्यमंत्री रही वसुन्धरा राजे सिंधिया की नाराजगी का सामना करना पड़ा। उनकी राज्य इकाई द्वारा तो अवहेलना हुई ही, राज्य के चुनावी दौरों पर रहते मोदी ने भी महारानी साहिबा की उपेक्षा की। उन्हें अब टिकट तो दे दी गयी है परन्तु इस विलम्ब से जो नुकसान होना था वह हो चुका है। यहां सिंधिया को टिकट देकर भाजपा ने स्थानीय नेताओं के आपसी झगड़े को हवा दे दी है। लगता नहीं कि सिंधिया अपने अपमान को इतनी आसानी से भुलाएंगी।
मध्यप्रदेश में टिकटों को लेकर सबसे ज्यादा स्थिति खराब है। जबलपुर के भाजपा मुख्यालय में हुई झूमाझटकी, ग्वालियर में ज्योतिरादित्य सिंधिया का पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा किया गया घेराव आदि जैसी घटनाएं तो सामने आईं ही, अन्य कई जिलों में अनेक भाजपाई बगावती हो गये हैं। वे निर्दलीय या किसी अन्य पार्टी की टिकटों पर चुनाव लड़ने की तैयारियां कर रहे हैं। सर्वाधिक दयनीय हालत तो सबसे कद्दावर नेता शिवराज सिंह की है। बीच के 18 माह की कमलनाथ सरकार को छोड़ दिया जाये तो पिछले लगभग दो दशकों से वे मुख्यमंत्री रहे हैं परन्तु उनका नाम पहली सूची में तो आया ही नहीं, चुनावी मंचों से भी उनका मोदी ने न तो नामोल्लेख किया न ही उनकी उपलब्धियां गिनाईं। फिर, मोदी ने वहां की जनता को जो पत्र लिखा है उसमें एक तरह से बता दिया कि वे ही चुनाव लड़ रहे हैं इसलिये जनता भाजपा को वोट करें।
इन दोनों राज्यों में अनेक सांसद उतारे गये हैं जो उधर राजस्थान में वसुंधरा राजे और इधर मप्र में शिवराज सिंह चौहान को पर्याप्त परेशानी में डाल रहे हैं। जीतने पर, जिसकी सम्भावना कम ही है, मुख्यमंत्री पद के लिये और हारने पर नेता प्रतिपक्ष के लिये होने वाली सिर-फुटौव्वल के नज़ारे देखने के लिये दोनों ही राज्यों की जनता और भाजपा इकाइयां तैयार बैठी हैं। कहने को छत्तीसगढ़ में भी कई सांसद चुनावी मैदान में हैं लेकिन यहां इसलिये समस्या नहीं है कि इस राज्य में नतीजे लगभग साफ हैं। प्रदेश की दोनों ही मुख्य पार्टियों (भाजपा-कांग्रेस) के कुछ सीटों को लेकर उठापटक व मनमुटाव है लेकिन अब जबकि तकरीबन सारे ही प्रत्याशियों के नामों की घोषणा हो चुकी है, मतभेदों को पीछे छोड़कर सारे उम्मीदवार प्रचार में जुट गये हैं।
भाजपा का असली संघर्ष राजस्थान और मध्यप्रदेश में है पर जिस तरह से पांचों राज्यों में मोदी अपने ही नाम पर चुनाव लड़ना चाहते हैं, वह उनके पार्टी में अकेले पड़ने की शुरुआत हो सकती है। अभी भी मोदी के साथ सिर्फ उनके दो प्रमुख सिपहसालार यानी केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह व पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ही दिखते हैं। संगठन एक तरह से सीमित अधिकारों के साथ अंदरूनी विवादों में उलझा है। प्रत्याशियों को खुद के भरोसे चुनाव जीतने हैं। मोदी का ध्यान 2024 के लोकसभा चुनाव पर है; लेकिन क्या वे संगठन तथा प्रमुख नेताओं को दरकिनार कर फिर से पीएम बन सकते हैं?
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


