क्या मोदी राहुल को जवाब दे पाएंगे?
गुजरात की निचली अदालतों एवं वहां की हाईकोर्ट द्वारा एक अवमानना के मामले में सुनाई गई दो साल की सजा पर सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद लोकसभा में राहुल गांधी की सोमवार को वापसी अनेक मायनों में महत्वपूर्ण है

गुजरात की निचली अदालतों एवं वहां की हाईकोर्ट द्वारा एक अवमानना के मामले में सुनाई गई दो साल की सजा पर सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद लोकसभा में राहुल गांधी की सोमवार को वापसी अनेक मायनों में महत्वपूर्ण है। यह एक सांसद की देश की सर्वोच्च विधायिका में लौटना मात्र नहीं है वरन यह जनसामान्य की आवाज़ के संसद में फिर से गूंजने का आश्वासन है। अपने खिलाफ सत्ता समर्थित सारे षड्यंत्रों को परास्त कर राहुल गांधी के जरिये यह निरंकुशता के खिलाफ़ लोकतंत्र की वापसी भी है, जिसके अनेक तात्कालिक व उससे कहीं बढ़कर दूरगामी नतीज़े निकलेंगे।
2019 के मार्च महीने में कर्नाटक की एक चुनावी सभा में दिये एक भाषण के आधार पर करीब साढ़े तीन माह पहले राहुल को गुजरात की कोर्ट में दो साल की सज़ा सुनाई गई थी। जिस आतुरता से उनकी लोकसभा की सदस्यता छिनी गयी और उसी फुर्ती से उनका सरकारी आवास भी खाली कराया गया था, वह हास्यास्पद होने के साथ ही सत्ता पक्ष के भय का प्रदर्शन भी था। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले शुक्रवार को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए राहुल की सज़ा पर न केवल रोक लगा दी वरन गुजरात की अदालतों व वहां की उच्च न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया पर भी गम्भीर सवाल उठाये। दो साल की सजा इस अपराध में अधिकतम है और हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहीं भी यह नहीं बताया कि आखिर अधिकतम अवधि की सजा का औचित्य क्या है। लोग जानते हैं कि संसद की सदस्यता जाने के लिये पूरे दो वर्ष के कारावास की सजा आवश्यक है।
बहरहाल, करीब 136 दिन संसद से बाहर रहकर राहुल जिस प्रकार से भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जैसे आक्रामक हुए उससे दोनों (मोदी व पार्टी) का और भी नुकसान होने लग गया था। तिस पर राहुल इन दिनों जनता के बीच घूमते रहे। कभी वे मणिपुर के हिंसा पीड़ित लोगों को गले लगाते रहे तो कभी वे सुबह उठकर आजादपुर सब्जी मंडी पहुंच जाते थे।
छात्रों, युवाओं आदि के साथ उनकी नज़दीकियां बढ़ती चली गयीं। इतना ही नहीं, पिछले वर्ष की सितम्बर से निकली उनकी चार हजार किलोमीटर की (कन्याकुमारी से कश्मीर) पैदल यात्रा ने न केवल उन्हें नयी छवि प्रदान की बल्कि उनके भाषणों के जरिये मोदी की प्रशासकीय अक्षमता, निरंकुशता और क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ावा देने वाली नीतियों का भी पर्दाफाश होता चला गया।
इसी साल 30 जनवरी को जब उनकी यात्रा श्रीनगर में तिरंगा फहराने के साथ पूरी हुई तो कांग्रेस में न केवल नये प्राण पड़ चुके थे बल्कि देश के तमाम बड़े विपक्षी दल जो लोकतंत्र में भरोसा रखते हैं, उन्होंने भी कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकार कर विपक्षी गठबन्धन बना लिया। इस साल जून में पटना में 15 दलों के साथ प्रारम्भ हुई एकता की कोशिशें 18-19 जुलाई को बेंगलुरु पहुंचते-पहुंचते 2024 में होने जा रहे लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र भाजपा के लिये सही मायनों में एक मजबूत गठबन्धन 'इंडियाÓ के रूप में चुनौती बनकर खड़ी हो गयी।
यहां तक भी शायद मोदी और भाजपा के प्रमुख नेता इस खतरे से इस विचार के साथ निपटने के प्रति निश्चिंत रहे होंगे कि चुनाव में अपने चिर-परिचित एजेंडे यानी सामाजिक धु्रवीकरण व सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के बल पर गठबन्धन को परास्त कर लिया जायेगा, परन्तु अब जब संसद में राहुल लौट चुके हैं, मोदी और भाजपा पर नये हमले होने लाजिमी हैं। फिर, वे ऐसे वक्त में लौटे हैं जब मोदी के खिलाफ़ लाये गये अविश्वास प्रस्ताव पर मंगलवार व बुधवार को चर्चा होनी है। निश्चित ही ओम बिरला के लिये उनकी सदस्यता बहाली का बहुत कठिन फैसला रहा होगा पर अब सत्ता पक्ष के लिये उनके वार झेलने में निश्चित ही दिक्कत आयेगी क्योंकि राहुल एक विजेता तथा नैतिक रूप से पहले से सशक्त नेता के रूप में संसद में पुनर्प्रवेश कर रहे हैं जबकि भाजपा व सरकार पराजित एवं अपराध भाव से ग्रस्त कुनबे के रूप में दिखेगी।
तय है कि राहुल गांधी अविश्वास प्रस्ताव के प्रमुख वक्ता होंगे जिस दौरान वे पुराने मसले अर्थात मोदी एवं उनके कारोबारी मित्र गौतम अदानी के परस्पर संबंधों के साथ मणिपुर व नूंह (मेवात) की हिंसा और जयपुर-मुंबई एक्सप्रेस में मोदी व योगी (उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ) के नाम पर हुए गोली चालन (जिसमें तीन मुस्लिमों व एक मीणा सम्प्रदाय के पुलिस इंस्पेक्टर की मौत हो गयी थी) जैसे ताज़े मामले भी उठायेंगे । जाहिर है कि मोदी के पास इनके कोई जवाब नहीं होंगे। सवाल है कि क्या मोदी पहले से मजबूत होकर लौटे राहुल का सामना लोकसभा में कर पायेंगे या हमेशा की तरह सदन को किसी मंत्री के हवाले छोड़कर निकल लेंगे या फिर शोर-गुल कराकर लोकसभा को बार-बार स्थगित कराएंगे? संसद का सत्र शुक्रवार तक ही चलना है।
इधर सदन से बाहर की बात करें तो इंडिया सतत मजबूत हो रहा है जिसे राहुल की इस कानूनी जीत से बड़ा बल तो मिलेगा ही, कांग्रेस के प्रति जनविश्वास में और भी इज़ाफ़ा होगा जो भाजपा के लिये असली मुसीबत है। कश्मीर के नेता गुलाम नबी आज़ाद के साथ कांग्रेस छोड़कर जाने वाले कई नेता आज लौट आये हैं। मध्यप्रदेश में भी ऐसा ही सियासी मंज़र देखने को मिल रहा है। बेशक, राहुल गांधी की संसद में वापसी को केवल कानूनी जीत के रूप में नहीं देखना चाहिये। यह वापसी भारतीय लोकतंत्र में मील का पत्थर साबित होगी।


