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मणिपुर को न्याय मिलेगा?

पिछले कुछ माह से उत्तर पूर्वी राज्य मणिपुर में हिंसा और उत्पीड़न के शिकार हुए लोगों के दर्द की अनेक कहानियां सामने आने लगी हैं परन्तु उन्हें न्याय मिलेगा या नहीं, इसके बारे में कोई भी निश्चिंत नहीं है

मणिपुर को न्याय मिलेगा?
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पिछले कुछ माह से उत्तर पूर्वी राज्य मणिपुर में हिंसा और उत्पीड़न के शिकार हुए लोगों के दर्द की अनेक कहानियां सामने आने लगी हैं परन्तु उन्हें न्याय मिलेगा या नहीं, इसके बारे में कोई भी निश्चिंत नहीं है। उसका कारण है केन्द्र व उस राज्य की सरकार की चुप्पी और वहां की स्थिति को छिपाने की निर्लज्ज कोशिशें। मई के पहले हफ्ते में हुई उस घटना के वीडियो वायरल होने के बाद देश-दुनिया में तो भारत की किरकिरी हुई ही, हर भारतीय का सिर शर्म से झुक गया जिसमें दो कुकी महिलाओं को निर्वस्त्र कर घुमाते हुए दिखाया गया है। उनमें से एक का सामूहिक बलात्कार भी हुआ। जुलाई में इस घटना के उजागर होने के बाद भी डबल इंजन की सरकार तो चुप रही परन्तु सुप्रीम कोर्ट सामने आया और उसने स्वत: संज्ञान लेकर दोनों ही सरकारों से सवाल किये।

इसके बाद भी सरकारों के मौन रहने के बाद लोगों को इस बात की कोई उम्मीद नहीं थी कि मणिपुर के पीड़ितों को न्याय मिल पायेगा क्योंकि वहां के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं हुआ कि 'ऐसी सैकड़ों घटनाएं उनके राज्य में घट रही हैं।Ó प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को वहां के लोगों से मिलकर उनके दुख-दर्द सुनने, उनके घावों पर मरहम लगाने और शांति बहाली की ज़रूरत महसूस तक नहीं हुई। मणिपुर को उसके हाल पर छोड़कर पीएम देश के भीतर चुनावी मोड में बने रहे या विदेश यात्राएं करते रहे।

संसद के मानसूत्र सत्र के ठीक पहले उन्हें इसलिये यह संक्षिप्त बयान देना पड़ गया कि वे मणिपुर की घटनाओं से क्रोध व पीड़ा से भर गये हैं. क्योंकि उसी सुबह सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर दोनों सरकारों को चेतावनी दे दी थी कि अगर वे कुछ नहीं कर सकतीं तो शीर्ष न्यायालय आवश्यक कार्रवाई करेगा। मोदी ने अपनी पीड़ा और क्रोध का इज़हार तो किया लेकिन सरकार क्या कर रही है इसके बारे में वे मौन रहे। संसद के भीतर भी उन्होंने कोई अधिकृत वक्तव्य नहीं दिया। उन्होंने यह भी नहीं बताया कि राज्य सरकार को उनके क्या निर्देश हैं और केन्द्र सरकार इस पर क्या करने जा रही है। कुछ माह पहले ही, यानी हिंसा व साम्प्रदायिक दंगों के दौरान केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी मणिपुर का दौरा कर आये थे और अधिकारियों की बैठक कर चुके थे। उन्होंने भी देश को वहां की वस्तुस्थिति से अवगत कराना मुनासिब नहीं समझा।

जहां तक बीरेन सिंह की बात है, वे तो बता ही चुके थे कि ऐसी घटनाएं बड़े पैमाने पर हुई हैं। अलबत्ता उन्होंने अपने समर्थकों के बीच इस्तीफा देने का नाटक ज़रूर किया था। जो हो, राज्य सरकार और केन्द्र की उदासीनता व मामले को सम्हाल न पाने का दुष्परिणाम यह हुआ कि मणिपुर की हिंसा की आग से समीपवर्ती राज्य मिजोरम व असम के कुछ हिस्से भी झुलसने लग गये हैं। फिर भी भारतीय जनता पार्टी प्रणीत सरकारों के कानों पर जूं तक न रेंगी और भाजपा व उनके नेता कोई ठोस व रचनात्मक पहल करने की बजाय इन घटनाओं का कांग्रेस कनेक्शन ढूंढ़ने में व्यस्त रहे।

मणिपुर की हिंसा तथा वहां बड़े पैमाने पर हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन पर धीरे-धीरे बातें सामने आने लगीं। पता चला कि मणिपुर में हिंसा की छह हजार से अधिक घटनाएं हुई हैं और उसके मुकाबले गिरफ्तारियों की संख्या शर्मनाक रूप से काफी कम है जो राज्य सरकार की विफलता और हिंसा को रोकने की इच्छा शक्ति के अभाव को बतलाता है। राज्य व केन्द्र सरकारें चाहे मणिपुर की घटनाओं की गम्भीरता को लेकर संजीदा न रही हों परन्तु सुप्रीम कोर्ट को इसका आभास ज़रूर हो गया है। सोमवार को उसने जांच और कानून के शासन में लोगों का भरोसा लौटाने की दिशा में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लिये। जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया गया है।

बॉम्बे हाईकोर्ट की पूर्व न्यायाधीश शालिनी जोशी एवं दिल्ली हाईकोर्ट की जस्टिस आशा मेनन अन्य सदस्य होंगी। इन जजों की समिति को राहत शिविरों को भी देखने के लिये कहा गया है। उम्मीद है कि इससे लोगों का कानून के राज में विश्वास लौटेगा और उनकी हिम्मत बंधेगी। यौन प्रताड़ना के 11 मामले सीबीआई को सौंपने के निर्णय पर भी सर्वोच्च अदालत ने मुहर लगाई लेकिन यह भी निर्देश दिये हैं कि इसके लिये हिन्दी भाषी राज्यों से प्रतिनियुक्ति पर उप पुलिस अधीक्षक रैंक के अधिकारी लाए जायें जो जांच की निगरानी करेंगे। इसके साथ ही जिन मामलों को सीबीआई को नहीं सौंपा गया है उनकी जांच 42 विशेष जांच टीमें (एसआईटी) करेंगी। एक छोटे से राज्य में इतनी बड़ी संख्या में एसआईटी का गठन हिंसा की विभीषिका और दायरा बतलाने के लिये काफी है।

दूसरी तरफ मणिपुर में हिंसा व उत्पीड़न रोकने में मिली विफलता के आधार पर ही लोकसभा में मोदी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर मंगलवार को चर्चा शुरु हुई जो गुरुवार तक जारी रहेगी और उसका समापन प्रधानमंत्री मोदी के जवाब के साथ होगा। देखना तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अलावा मोदी मणिपुर की जनता को न्याय दिलाने के लिये किन उपायों की घोषणा करते हैं; या ऐसा तो नहीं कि वे अब तक के अपने ट्रैक रिकार्ड को कायम रखते हुए इस बेहद संवेदनशील मामले का भी राजनीतिकरण कर उन सभी को निराश करते हैं जो भाजपा की हिंसक व विभाजनकारी नीति के चलते पीड़ा झेल रही मणिपुर की अवाम की तरह ही व्यथित हैं।


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