क्या महाराष्ट्र की 'सर्जिकल स्ट्राइक' मोदीशाही को बचा पाएगी
महाराष्ट्र में शिव सेना के बाद, अब राष्ट्रवादी कांगे्रस पार्टी को भी तोड़कर, उसके विधायकों के एक उल्लेखनीय हिस्से को जिस तरह भाजपा के पाले में खींचा गया है

- राजेन्द्र शर्मा
हजार सवालों का एक सवाल यह है कि क्या महाराष्ट्र के अपने ताजातरीन खेल से और अगर दांव लगा तो बिहार समेत अन्य राज्यों में भी ऐसा ही खेल दुहराने के जरिए, मोदीशाही जनमत को फिर से अपने पक्ष में मोड़ सकती है। महाराष्ट्र के उदाहरण तक ही खुद को केंद्रित रखें, तब तो इस सवाल का जवाब एक जोरदार नहीं ही लगता है।
महाराष्ट्र में शिव सेना के बाद, अब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को भी तोड़कर, उसके विधायकों के एक उल्लेखनीय हिस्से को जिस तरह भाजपा के पाले में खींचा गया है, उसका अनुमान भले ही किसी को नहीं रहा हो, पर उसमें अचरज शायद ही किसी को होगा। मोदीशाही में विपक्षी पार्टियों के साथ ही नहीं, भाजपा का साथ देती रही पार्टियों के साथ भी तोड़-फोड़ की यह स्क्रिप्ट इतनी बार और इतने रूपों में दोहरायी गयी है कि इसमें अब किसी को हैरानी नहीं होती। यहां तक कि इतनी बार पुनरावृत्ति के बाद अब तो भक्त मीडिया तक ने इसे ''मास्टर स्ट्रोक'' और ''चाणक्य नीति'' जैसे विशेषण देना भी बंद कर दिया है। सभी जानते हैं कि बिहार के पिछले अगस्त के शुरू के उलट-घटनाक्रम के बाद, भाजपा की चुनावेतर तिकड़मों की ''जीतों'' का सिलसिला ही नहीं रुक गया था, यह व्यापकतर संकेत भी गया था कि मोदीशाही के ''खेलों'' को शिकस्त भी दी जा सकती है। इसने मोदीशाही-विरोधी ताकतों को एकजुट करने जरूरत और इस एकजुटता की कामयाबी की संभावनाओं को और रेखांकित कर दिया।
इसके बाद, पिछले वर्ष के आखिर में हुए गुजरात तथा हिमाचल के विधानसभाई चुनावों तथा दिल्ली के नगर निगम चुनावों में, मोदीशाही की हिमाचल तथा दिल्ली की पराजयों को, गुजरात की उसकी इकतरफा जीत से भी दबाया नहीं जा सका। जहां दिल्ली की मोदीशाही की हार, 2020 के आरंभ में दिल्ली के विधानसभाई चुनाव में उसकी करारी हार को ही दुहराती थी, वहीं हिमाचल की उसकी हार के संकेत, सिर्फ एक राज्य की सरकार उसके हाथ से निकल जाने से कहीं गहरे थे। यह मोदीशाही द्वारा गढ़े गए इस मिथक के दरकने शुरूआत थी कि वह जहां सत्ता में है, उसे नहीं हराया जा सकता है; खासतौर पर कांग्र्रेस सीधे मुकाबले में तो हर्गिज नहीं हरा सकती है; उत्तरी भारत में तो किसी भी तरह नहीं!
मोदीशाही की हिमाचल की हार ने, 2019 के आम चुनाव की पूर्व-संध्या में हुए विधानसभाई चुनावों के आखिरी चक्र के चुनाव नतीजों की याद दिला दी, जिनमें उत्तरी भारत में तीन महत्वपूर्ण राज्यों—मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़—में भाजपा को चुनाव में हारकर सत्ता खोनी पड़ी थी; हालांकि बाद में कर्नाटक का दांव मध्य प्रदेश में भी आजमाते हुए, सिंधिया के नेतृत्व में कांग्रेस विधायकों के अच्छे खासे हिस्से को तोड़कर और इस सेवा के लिए इनाम के तौर पर सिंधिया को बिना सरकारी एअरलाइन का नागरिक उड्डïयन मंत्री बनाकर, मोदीशाही ने फिर से सत्ता हथिया ली थी। बाद में वही दांव राजस्थान में भी आजमाया गया, लेकिन बैकफायर कर गया, जबकि छत्तीसगढ़ में ऐसी कोशिशें शुरू में ही टांय-टांय फिस्स हो गयीं। इन हालात में हिमाचल में कांग्रेस के हाथों मोदीशाही की हार के बाद, इस संभावना का वजन काफी बढ़ गया कि कांग्रेेस, इन तीनों विधानसभाओं में 2018 के आखिर की अपनी जीत को दोहरा भी सकती है। यह अगले आम चुनाव से पहले जनमत की हवा को, एक बार फिर पुलवामा से पहले की 2019 की चुनावी हवा बनने की ओर मोड़ सकता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि कर्नाटक में कांग्रेस के हाथों भाजपा की करारी हार ने, मोदीशाही को हराने के कांग्रेस के आत्मविश्वास को ही नहीं, विपक्ष को एकजुट करने के प्रयासों को बल देकर, जनमत के झुकाव के पुलवामा पूर्व-2019 की ओर मुड़ने को और गति दे दी है। इसी संदर्भ में लोकसभा में उत्तर प्रदेश के बाद, सबसे ज्यादा सीटें भेजने वाले दूसरे राज्य, महाराष्ट्र से आ रहे जनमत के रुझान खासतौर पर महत्वपूर्ण हो गए थे। पहले ग्रामीण तथा शहरी स्थानीय निकायों के चुनावों में इसके स्पष्टï संकेत मिले थे कि भाजपा-शिंदे गुट गठजोड़ पर, जनसमर्थन के मामले में महाविकास अघाड़ी, शिवा सेना में टूट के बावजूद, उल्लेखनीय रूप से भारी पड़ रही थी। इसके बाद, सी-वोटर के जनमत सर्वे के नतीजे मोदीशाही के लिए चेतावनी की कर्कश घंटी निकले।
इस सर्वे के अनुसार, जिसकी पुष्टिï बाद में दूसरे सर्वेक्षणों से भी हुई, तत्काल लोकसभा चुनाव हो जाते तो, मोदीशाही को बहुत तगड़ा झटका लगता। 47 फीसद वोट के साथ, महाराष्ट्र विकास अघाड़ी को राज्य की कुल 48 लोकसभा सीटों में से 34 मिलने का अनुमान था, जबकि मोदीशाही के पाले में सिर्फ 14 सीटें आने वाली थीं यानी 2019 के मुकाबले उसे पूरी 29 सीटों का घाटा होने जा रहा था! इसके आसपास ही यह खबर भी आई कि मध्य प्रदेश में, भाजपा के अपने एक अंदरूनी सर्वे के अनुसार, उसे सवा दो सौ के करीब की विधानसभा में कुल 55 से 65 तक सीटें ही मिलने की उम्मीद थी यानी कर्नाटक के हाल के विधानसभा चुनाव का नतीजा, लगभग ज्यों का त्यों मध्य प्रदेश में दोहराया जा सकता है। ऐसे में मोदीशाही का चुनावी तैयारी के इमर्जेंसी ऑपरेशन के मोड में आना स्वाभाविक था।
इसलिए, अमेरिका यात्रा से लौटते ही प्रधानमंत्री मोदी, तब तक पचास दिन से ज्यादा से जल रहे मणिपुर की ''चिंता'' करने के नाम पर खाना-पूरी करने के फौरन बाद, मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार के अपने प्रिय मैदान में कूद पड़े। 27 जून को भोपाल में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने, विपक्षी एकता को भ्रष्टïाचार के लिए एकता साबित करने की कोशिश में, विपक्षी पार्टियों और नेताओं का नाम ले-लेकर गिनाया कि किस पर कितने रुपए के भ्ररष्ट्रचार का आरोप है। एक भी भ्रष्टï को नहीं छोड़ने के लिए अपनी छाती ठोकने से पहले प्रधानमंत्री ने, यह भी गिनाया कि कैसे राष्टï्रवादी कांग्रेस पार्टी 70,000 करोड़ रुपए के घोटाले की दोषी है। और प्रधानमंत्री की ''एक को भी नहीं छोड़ने'' की इस धमकी के चार दिन बाद ही, एनसीपी की ओर से विपक्ष के नेता और पूर्व-उपमुख्यमंत्री, अजित पवार के नेतृत्व में नौ एनसीपी विधायकों को मंत्रिपद की शपथ दिलाई जा चुकी थी। अजित पवार को उपमुख्यमंत्री बना दिया गया। और प्रफुल्ल पटेल को, जिन्हें शरद पवार ने दो हफ्ते पहले ही पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया था और संसद में एनसीपी का मुखिया बनाया था, अगले मंत्रिमंडल विस्तार में केंद्रीय मंत्रिमंडल में लिए जाने का आश्वासन दिया गया बताया जाता है।
जाहिर है कि शिव सेना के बाद अब एनसीपी में भी इस तरह फूट पड़ने के पीछे, सिर्फ मोदीशाही द्वारा दिया गया सत्ता का लालच ही नहीं है। इससे ज्यादा नहीं तो कम से कम इतने ही महत्वपूर्ण रूप से इसके पीछे वर्तमान शासकों द्वारा वास्तविक-काल्पनिक भ्रष्टïाचार के मामलों के लिए, ईडी-आईटी-सीबीआई आदि केंद्रीय एजेंसियों के उनके पीछे छोड़े जाने का डर भी है। सभी जानते हैं कि उपमुुख्यमंत्री बनाए गए अजित पवार समेत, एनसीपी से मंत्री बनाए गए नौ विधायकों में से तीन के खिलाफ ईडी ने जांच खोल रखी थी, जबकि एक महिला विधायक के पिता के खिलाफ सिंचाई घोटाले के लिए एंटीकरप्शन ब्यूरो द्वारा जांच की गयी थी, हालांकि अंतत: चार्जशीट में उनका नाम नहीं है।
हसन मुश्रिफ भी मंत्री बनाए गए हैं, जिनकी चीनी घोटाले के लिए ईडी जांच कर रही है और फिलहाल जमानत पर हैं तथा पिछले हफ्ते ही ईडी ने फिर उनके यहां छानबीन की थी। छगन भुजबल पर पीडब्ल्यूडी मंत्री रहते हुए 100 करोड़ रुपए के घोटाले का आरोप लगा था और दो साल जेल में बंद भी रहे थे। अंतत: अदालत से छूट गए थे, पर मौजूदा सरकार ने उसके खिलाफ अदालत में अपील कर रखी थी। प्रफुल्ल पटेल के खिलाफ सीबीआई और ईडी अलग-अलग मामलों में जांच करती रही हैं। इन केंद्रीय एजेंसियों के अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ टारगेटेड इस्तेमाल को, मोदीशाही ने कला के स्तर पर पहुंंचा दिया है। इसीलिए, रवीश कुमार ने अब तो यह कहना शुरू कर दिया है कि ईडी का ही नाम बदल कर भाजपा कर देना चाहिए—भाजपा ने उतने लेागों को अपनी पार्टी में शामिल नहीं कराया है, जितने लोगों को ईडी आदि ने भाजपा में शामिल कराया है!
बहरहाल, हजार सवालों का एक सवाल यह है कि क्या महाराष्ट्र के अपने ताजातरीन खेल से और अगर दांव लगा तो बिहार समेत अन्य राज्यों में भी ऐसा ही खेल दुहराने के जरिए, मोदीशाही जनमत को फिर से अपने पक्ष में मोड़ सकती है। महाराष्ट्र के उदाहरण तक ही खुद को केंद्रित रखें, तब तो इस सवाल का जवाब एक जोरदार नहीं ही लगता है। पहली बात तो यही है कि शिव सेना को तोड़ने के बावजूद, मोदीशाही उसके आम समर्थकों को अपने पाले में खींचने में न सिर्फ नाकाम रही है बल्कि उसके खिलाफ आम शिव सेना समर्थकों के बीच और आम तौर पर जनता के बीच, काफी नाराजगी है। हालिया जनमत सर्वे इस मुद्दे पर लोगों की नाराजगी को भी दिखा रहे थे। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि राष्टï्रवादी कांग्रेस में फूट डलवाए जाने पर, उसके आम समर्थकों की और आम तौर पर महाराष्ट्र के लोगों की प्रतिक्रिया इससे अलग होगी। दूसरे, एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार ने अपनी पार्टी तोड़ने वालों की चुनौती को आगे बढ़कर स्वीकार किया है।
उन्होंने न सिर्फ प्रफुल्ल पटेल को पार्टी से निकालने का ऐलान कर दिया है बल्कि शिंदे सरकार में शामिल हुए सभी 9 विधायकों को दलबदल के लिए अयोग्य घोषित करने की चिट्ठी स्पीकर को भेज भी दी है। बेशक, तत्काल इस सबसे कोई खास नतीजा शायद ही निकले, फिर भी पवार ने अपनी पार्टी तोड़ने वालों को सीधी चुनौती दे दी है। और उनके इस दावे को कोरी शेखी मानकर खारिज नहीं किया जा सकता है कि वह नये सिरे से अपनी पार्टी को खड़ा करेंगे और तीन महीने में स्थिति बदल देंगे। याद रहे कि शरद पवार ने एक बार पहले भी ऐसे ही नये सिरे से पार्टी को खड़ा किया था। संयोग ही नहीं है कि अजित पवार अब भी विधायकों की किसी निश्चित संख्या के समर्थन का दावा करने की स्थिति में नहीं हैं। इन हालात में, मोदीशाही ने महाराष्ट्र में जो ताजातरीन हमला बोला है, उससे बेशक उसके खिलाफ एकजुट होते विपक्ष को कुछ धक्का लगा है और मोदीशाही को कुछ राहत मिली है। लेकिन, यह धक्का न तो स्थायी है और न इतना बड़ा है कि मोदीशाही के सिर पर मंडराते खतरे के घने होते बादलों को पूरी तरह से छांट सके।
(लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)


