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डॉक्टर की तरह फैमिली फार्मर बनाना होगा

कुछ समय पहले महाराष्ट्र के नागपुर में देसी अनाजों के बीजोत्सव का आयोजन किया गया

डॉक्टर की तरह फैमिली फार्मर बनाना होगा
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- बाबा मायाराम

बीजोत्सव ने कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर लोगों का ध्यान खींचा है। इससे एक तरफ बिना रासायनिक खेती से परंपरागत बीजों, मिट्टी-पानी का संरक्षण-संवर्धन हो रहा है व - जैव विविधता व पर्यावरण का संरक्षण हो रहा है, तो दूसरी तरफ किसान और उपभोक्ताओं के बीच सीधा संबंध बन रहा है, जिससे खेती में बिचौलियों की भूमिका कम हो रही है और किसानों को उनकी फसलों का वाजिब दाम मिल रहा है।

कुछ समय पहले महाराष्ट्र के नागपुर में देसी अनाजों के बीजोत्सव का आयोजन किया गया। इसमें कई किसान उनके जैविक उत्पाद को बिक्री के लिए आए हुए थे। जैविक खेती पर चर्चा व संगोष्ठियां हुईं। इसमें कई राज्यों के लोगों ने बड़ी संख्या में शिरकत की।

मुझे इस कार्यक्रम के आयोजकों में से एक बसंत फुटाणे ने आमंत्रित किया था। इस मौके पर जैव विविधता प्रदर्शनी भी लगाई गई थी, जिसमें जैविक उत्पादों के अलावा, खादी और सूती कपास के कपड़े और देसी बीजों की कई प्रजातियां प्रदर्शित की गई थीं। गर्मी के कारण अम्बाड़ी के शरबत को काफी पसंद किया गया था। इसके साथ ही जैविक उत्पाद से बने स्वादिष्ट व्यंजन व भोजन आकर्षण के केन्द्र रहे। जिसमें महुआ के गुलगुले, खीर, सूरन के पकोड़े, गुड़ की जलेबी, और देसी चावल व आम की कढ़ी और ज्वार की रोटी इत्यादि शामिल थे।

बीजोत्सव के बारे में किसान अनंत भोयर बताते हैं कि इसकी शुरूआत वर्ष 2013 से हुई थी। उन्होंने बताया कि बीजोत्सव की शुरूआत किसानों की खुदकुशी की खबरों से चिंतित होकर की गई थी। यवतमाल जिले में कपास की खेती होती है, जहां से किसानों की खुदकुशी की खबरें लगातार आ रही थीं। वहां जैव तकनीक से तैयार बीटी कॉटन होता है। अधिकांश किसान बैंक से कर्ज लेकर खेती करते हैं और कर्ज के बोझ तले दबकर ही जान दे रहे थे।

वे आगे बताते हैं कि इस सबके मद्देनजर जैविक खेती से जुड़े किसानों व कार्यकर्ताओं को लग रहा था कि हमें मिलकर कुछ करना चाहिए। विचार-विमर्श के बाद यह सोच बनी कि रासायनिक खेती के विकल्प के रूप में जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। तभी से बीजोत्सव के आयोजन का सिलसिला चल रहा है।

बीजोत्सव में सुरक्षित व पौष्टिक खान-पान पर ज़ोर दिया जाता है। इसके साथ ही, देसी बीजों की गोबर खाद व हल-बैल वाली जैविक खेती को बढ़ावा देते हैं। खेती को पशुपालन से जोड़ने की सोच रखते हैं,जिससे मिट्टी को गोबर खाद से उर्वर बनाया जाए और दूध-घी से भोजन में पौष्टिकता भी बढ़े। किसानों की समस्याएं समझने की कोशिश करते हैं, इस पर गोष्ठियां व संवाद करने के प्रयास करते हैं। नए छोटे किसानों को भी इस प्रक्रिया से जोड़ते हैं। संकर बीजों और जैव तकनीक से तैयार (जेनिटिकली मोडीफाइड) के नुकसान के बारे में बात करते हैं।

बीजोत्सव के आयोजन से जुड़े बसंत फुटाणे कहते हैं कि जिस तरह हर परिवार का एक फैमिली डॉक्टर होता है, उसी तरह हर परिवार का एक फैमिली फार्मर होना चाहिए, जिससे उपभोक्ताओं व किसानों का संबंध बने और उपभोक्ता भी सुरक्षित अनाज के बारे में जागरूक हों। अगर उपभोक्ता व किसान में मानवीय रिश्ता बनेगा तो किसान को उत्पाद का उचित दाम मिलेगा और उपभोक्ता भी वाजिब दाम में पौष्टिक अनाज पाएगा।

वर्धा जिले के बावापुर गांव के दीपक बरडे ने बताया कि वे ज्वार गनेरी, दुधी कोडा, पीली ज्वार, तुअर ( सफेद, लाल), अलसी, मूंग, बंसी गेहूं, बैंगन, डांगरबारूक, दोडका (फल्ली), खडसेंग, करेला, बरबटी, चावरी, पालक, धनिया, हदगा, काकड़ी इत्यादि की खेती करते हैं।

दीपक बरड़े बतलाते हैं कि उनका गांव बहुत छोटा है। 85 घरों के गांव में करीब 300 आबादी है। पहले वहां संकर बीजों की खेती होती थी। जिससे कैंसर, बीपी और शुगर के मरीज ज्यादा होने लगे थे। इसके बाद वर्ष 1970 से उन्होंने उनके पिताजी के साथ परंपरागत खेती करना शुरू किया था। परंपरागत बीजों के साथ परंपरागत ज्ञान भी जुड़ा है।

उन्होंने बताया वे पूरी तरह स्वावलंबी हैं। उनका परिवार बाहर से नमक के अलावा कुछ भी नहीं खरीदता। मूंगफली से तेल मिल जाता है। खेत की अलसी से भी तेल मिल जाता है। देसी कपास हम वर्धा के ग्राम सेवा मंडल को देते हैं और उसके बदले में वहां से कपड़े ले लेते हैं। वस्तु विनिमय की परंपरा बरसों पुरानी है।

बेंगलुरू से आए सहज समृद्ध के कोमल कुमार मानते हैं कि बीज समुदायों के हैं, कंपनियों व किसी एक व्यक्ति के नहीं हैं। सहज समृद्ध किसानों की जैविक उत्पाद कंपनी है, जो धान, पौष्टिक अनाज, दालें, सब्जियां, फूल और गैर खेती भोजन (अनकल्टीवेटेट फूड) इत्यादि जैविक तरीके से उत्पादित करने को बढ़ावा देती है। उन्होंने बताया कि उनके पास रागी की 9 प्रजातियां और 5 पौष्टिक अनाज (मिलेट्स) की प्रजातियां हैं। इनके उत्पादन में वे रासायनिक खाद व कीटनाशक का इस्तेमाल बिलकुल नहीं करते हैं।

गढ़चिरौली से आम्ही आमचा आरोग्य साठी के कार्यकर्ता शहद लेकर आए थे। यह संस्था महिलाओं, आदिवासियों, किसानों, और वंचित तबकों के मुद्दों पर काम करती है। आदिवासी युवा जंगल से शहद एकत्र करते हैं, यह पद्धति पूरी तरह सुरक्षित, प्राकृतिक और जैविक है। इसमें किसी भी प्रकार का खर्च भी नहीं है। सतीश गोगुलवार बताते हैं कि पहले पारंपरिक रूप से शहद को आग लगाकर निकालते थे, जिससे मधुमक्खियां मर जाती थीं। लेकिन अब युवाओं को टिकाऊ तरीके से शहद निकालने के लिए प्रशिक्षित किया गया है।

गोपरी, वर्धा में स्थित ग्राम सेवा मंडल कपड़ा बनाने, जैविक खेती, तेल निकालने के काम में संलग्न है। यहां कई तरह के चरखा भी बनाए जाते हैं। देसी कपास से सूत कताई, बुनाई, रंगाई से लेकर कपड़ा बनाने तक का काम किया जाता है। बीजोत्सव में ग्राम सेवा मंडल की दुकान लगी थी, जिसमें शर्ट, जैकेट, और खादी के कपड़े बिक्री के लिए उपलब्ध थे।

परंपरागत खेती की वैकल्पिक तकनीक को बढ़ावा देने वाला भारतीय एग्रो इंडस्ट्रीज फाउंडेशन ( बी.ए.आई.एफ.) परंपरागत कृषि पद्धतियों व देसी बीजों को बचाने में लगा है और जहरमुक्त खेती को बढ़ावा दे रहा है। इस संस्था से जुड़े संजय पाटिल ने बताया कि उनकी संस्था के पास 400 देसी धान की प्रजातियां, 40 गेहूं की, 13 आलू, 12 मिर्ची, 6 दाल, 4 सरसों की प्रजातियां हैं। और इन देसी बीजों को किसानों को उनके खेत में ही उगाने के लिए दिया गया है, जिससे वहां की मिट्टी-पानी व हवा में उनका संरक्षण व संवर्धन हो सके।

कुल मिलाकर, बीजोत्सव ने कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर लोगों का ध्यान खींचा है। इससे एक तरफ बिना रासायनिक खेती से परंपरागत बीजों, मिट्टी-पानी का संरक्षण-संवर्धन हो रहा है व - जैव विविधता व पर्यावरण का संरक्षण हो रहा है, तो दूसरी तरफ किसान और उपभोक्ताओं के बीच सीधा संबंध बन रहा है, जिससे खेती में बिचौलियों की भूमिका कम हो रही है और किसानों को उनकी फसलों का वाजिब दाम मिल रहा है। उपभोक्ताओं की भी पहुंच पौष्टिक अनाज तक हो रही है। बढ़ती बीमारियों व ज़हरीली खेती को रोकने के लिए जैविक खेती की विविधतायुक्त खेती को विकल्प के रूप में पेश किया जाना जरूरी हो जाता है। जिससे पोषणकारी खेती को बढ़ावा मिले, और- मिट्टी-पानी व हवा के प्रदूषण से भी बचा जा सके। जलवायु बदलाव के दौर में मशीनीकरण के बिना हल-बैल व श्रम आधारित जैविक खेती से पर्यावरण भी सुरक्षित रहेगा। कुल मिलाकर, इससे पर्यावरण बचेगा, धरती बचेगी तो हम भी बचेंगे। यह पूरी पहल सार्थक, उपयोगी, सराहनीय व अनुकरणीय है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार व लेखक हैं)


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