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क्या कारगर होंगे भाजपा के नये-पुराने हथियार?

जातिगत जनगणना के जरिये कांग्रेस के राहुल गांधी व जनता दल यूनाईटेड के नीतीश कुमार ने जो सामाजिक न्याय का विमर्श बढ़ाया है

क्या कारगर होंगे भाजपा के नये-पुराने हथियार?
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- डॉ. दीपक पाचपोर

जातिगत जनगणना के जरिये कांग्रेस के राहुल गांधी व जनता दल यूनाईटेड के नीतीश कुमार ने जो सामाजिक न्याय का विमर्श बढ़ाया है; और जिसे वे और बड़ा मुद्दा बना रहे हैं, उसे खेलने की शुरुआत भाजपा ने कर दी है। पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के ओबीसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ भाजपा द्वारा अपने ओबीसी राज्य अध्यक्ष अरूण साव का चेहरा लाया गया और हवा बनाई गई कि अगर पार्टी जीतती है तो उन्हें सीएम बनाया जा सकता है।

जैसे-जैसे लोकसभा के चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, भारतीय जनता पार्टी अपने शस्त्रागार में हथियार एकत्र कर रही है। इनमें से कुछ तो उसके पुराने हैं, कुछ नये। पुराने शस्त्रों को सहेजकर रखते हुए उसने हाल के सियासी घटनाक्रम से कई नये हथियार भी एकत्र किये हैं। आने वाले समय में उसके पास कुछ और शस्त्र उपलब्ध हो जायेंगे। देखना होगा कि इनके जवाब में मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल कांग्रेस और संयुक्त प्रतिपक्ष 'इंडिया' किस तरह से अपनी रणनीति बनाता है। सम्भव है कि जिस प्रकार से इंडिया मजबूत हो रहा है, उसके चलते भाजपा बहुआयामी रणनीति बना रही है क्योंकि उसे अगले चुनाव (लोकसभा) में अनेक दलों से विभिन्न मुद्दों पर चुनाव लड़ना होगा। इस लड़ाई में अगर कांग्रेस को बने रहना है तो उसे भाजपा के पुराने के साथ नये संग्रहित हथियारों की काट अभी से ढूंढनी होगी। उसका 'एक के खिलाफ केवल एक प्रत्याशी' का जो फार्मूला इंडिया के सहयोग से बन रहा है, वह तो काम करेगा ही, प्रभावशाली विमर्श ही गठबन्धन को चुनाव के पूर्व और पश्चात बांधे रखेगा।

भाजपा का पुराना अस्त्र कहें या शस्त्र क्या है, तो नि:संदेह वह धु्रवीकरण है। इस साल के मध्य में कर्नाटक विधानसभा के हुए चुनाव में उसे मिली हार से एकबारगी यूं प्रतीत हो रहा था कि वह इसका आगे उपयोग नहीं करेगी, लेकिन हाल ही में समाप्त हुए पांच राज्यों के चुनावों में से कम से कम राजस्थान व छत्तीसगढ़ में तो उसका साम्प्रदायिकता का कार्ड सफल होता दिखा है।साजा विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के कद्दावर नेता रवींद्र चौबे को ईश्वर साहू द्वारा परास्त करना बतलाता है कि उसका दांव कारगर साबित हुआ है।

ईश्वर साहू के पुत्र भुनेश्वर को साम्प्रदायिक झगड़े में मार डाला गया था। ऐसे ही, कवर्धा विधानसभा क्षेत्र से कद्दावर नेता मोहम्मद अकबर को हराने वाले विजय शर्मा को उपमुख्यमंत्री बनाना इस बात का इशारा है कि भाजपा की चुनावी रणनीति अब भी इस पर बड़े तौर पर आश्रित है। 2018 का चुनाव 60 हजार वोटों से जीतने वाले अकबर का 40 हजार मतों से हारने का अर्थ है कि भाजपा का ध्रुवीकरण का हथियार अब भी धारदार है। राजस्थान में भी भाजपा ने कन्हैयालाल दर्जी की हत्या को निर्णायक बना दिया जिसके आगे अशोक गहलोत के जमीनी मुद्दे धराशायी हो गये। यहां बाबा बालकनाथ, बालमुकुंद आचार्य समेत चार संन्यासी चुनाव जीते हैं। साम्प्रदायिकता के विमर्श को ये साधुगण कैसे आगे बढ़ाएंगे, इसकी एक बानगी आचार्य अपने क्षेत्र हवामहल में नॉन वेज के ठेले व दुकानों को बन्द कराकर दिखला चुके हैं।

जातिगत जनगणना के जरिये कांग्रेस के राहुल गांधी व जनता दल यूनाईटेड के नीतीश कुमार ने जो सामाजिक न्याय का विमर्श बढ़ाया है; और जिसे वे और बड़ा मुद्दा बना रहे हैं, उसे खेलने की शुरुआत भाजपा ने कर दी है। पहले छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के ओबीसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ भाजपा द्वारा अपने ओबीसी राज्य अध्यक्ष अरूण साव का चेहरा लाया गया और हवा बनाई गई कि अगर पार्टी जीतती है तो उन्हें सीएम बनाया जा सकता है। ऐसे ही, अमित शाह ने रायगढ़ के प्रत्याशी पूर्व आईएएस ओपी चौधरी को भी बड़ा ओहदा देने का संदेश उनके मतदाताओं को दिया था। वे भी ओबीसी से आते हैं। देखना यह होगा कि उन्हें कौन सा बड़ा पद मिलेगा। उधर मध्यप्रदेश में तो भाजपा ने डॉ. मोहन यादव को ही सीएम बना दिया है। यह एक तरह से संकेत हैं कि पार्टी ओबीसी कार्ड खेल रही है। यह अलग बात है कि यादव कभी भी ओबीसी नेता के रूप में स्थापित नहीं रहे, न ही मान्य।

मोदी की गारंटियों की चर्चा भी विधानसभा के इन चुनावों में बहुत हुई है। छत्तीसगढ़ में मतदाताओं ने कांग्रेस की किसानों को कर्ज माफी की बजाय उस पार्टी को चुना जो इस मामले में मौन है। धान के 3200 रुपए प्रति क्विंटल की जगह उसे भाजपा का 3100 रुपए का मूल्य पसंद आया है। ऐसे ही, उन्हें कांग्रेस की केजी से पीजी तक की लड़कियों को मुफ्त शिक्षा योजना के स्थान पर भाजपा की केवल पीजी की मुफ्त शिक्षा अधिक भायी। विवाहित महिलाओं को कांग्रेस 15 हजार रुपए सालाना देना चाहती थी पर वोटरों को भाजपा के वार्षिक 12 हजार रुपए अधिक लगे। उधर राजस्थान की 50 लाख तक की चिरंजीवी मुफ्त चिकित्सा योजना को उसने नकार दिया और भाजपा को तरज़ीह दी। वैसे भाजपा ने अन्य कई घोषणाएं की हैं, खासकर सस्ते गैस सिलेंडर व पीजी पढ़ने वाली लड़कियों को मुफ्त स्कूटी। मध्यप्रदेश में शिवराज चौहान की लाडली बहन योजना भी चर्चित रही। यह दीगर बात है कि मोदी ने वहां की अपनी सभाओं में उसका ज़िक्र तक नहीं किया। देखना होगा कि जिन वादों, गारंटियों व आश्वासनों के बल पर भाजपा ने तीन राज्य जीते हैं उन पर कितना अमल होता है। लोकसभा चुनाव में उनके नामों पर भाजपा तभी अपनी छाती ठोंक सकेगी जब इस अल्पावधि में उन पर प्रभावशाली अमल होगा।

अगर इस पर चर्चा करें कि आने वाले समय में भाजपा के तरकश में कौन से नये तीर रखे जा सकते हैं, तो कहा जा सकता है कि मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट द्वारा जम्मू-कश्मीर के मसले पर सरकार के पक्ष में दिये गये फैसले का वह लाभ लेने की कोशिश करेगी। शीर्ष कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने अनुच्छेद 370 को समाप्त करने वाले केन्द्र के निर्णय को सही ठहराया। इसे भाजपा सरकार अपनी तथा अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दुवादी विचारों की बड़ी जीत बता रही है। आश्चर्य नहीं होना चाहिये अगर इस फैसले का फायदा लेने का पूरा वह पूरा कार्यक्रम ही बना डाले। इसके अलावा जिस मुद्दे का वह सर्वाधिक लाभ लेने की तैयारी करती हुई दिख रही है, वह है अयोध्या का नवनिर्मित राममंदिर। इसका उद्घाटन स्वयं मोदी 22 जनवरी, 2024 को करने जा रहे हैं। इसका निमंत्रण देश के हर घर तक पहुंचाने की तैयारी चल रही है।

अब सवाल यह बनता है कि क्या इस बहुकोणीय नीति का भाजपा को लाभ मिलेगा? सम्भव है कि हिन्दी पट्टी में उसके वोट बैंक पर कुछ असर पड़े। विशेषकर, जो लोग मोदी सरकार प्रदत्त महंगाई, बेरोजगारी, प्रशासनिक नाकामियों के चलते उससे छिटक रहे हैं, वे फिर से भाजपा के समर्थन में आ सकते हैं। इसकी काट कांग्रेस समेत इंडिया के पास यह होगा कि उसके मतों का इस बार वैसा विभाजन नहीं होगा जैसा कि अब तक होता आया है। अभी तेलंगाना और कुछ अर्सा पहले कर्नाटक हारने के बाद दक्षिण में भाजपा के दरवाजे बन्द हो चले हैं।

मणिपुर की घटनाओं के बाद पूर्वोत्तर में वह बेहद अलोकप्रिय हो गई है। यह भी याद रखना होगा कि भाजपा का प्रचार अभियान पूर्णत: मोदी पर निर्भर है। देखना होगा कि बचे चार-पांच माह में वे देश के कितने हिस्सों दौरा कर सकेंगे। दूसरी तरफ उनके खिलाफ विभिन्न नेता राष्ट्रीय स्तर पर या अपने-अपने राज्यों में बड़े चेहरे हैं जो पहले भी मोदी-भाजपा को निष्प्रभावी कर चुके हैं। सबसे केवल दो लोगों को लड़ना है- मोदी व शाह। अंतिम बात, तीन राज्य हारकर भी कांग्रेस हतोत्साहित नहीं है क्योंकि इन चुनावों में उसने 40 प्रतिशत वोट हासिल किये हैं जो भाजपा से करीब 10 लाख ज्यादा हैं। 19 दिसम्बर को दिल्ली में इंडिया के सहयोगी दल मिल रहे हैं। देखना होगा कि वे किस तरह से अपनी रणनीति को अंतिम रूप देते हैं।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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