भारतीय और पाकिस्तानी मुस्लिमों की तुलना क्यों?
यह अपने आप में विचित्र सी बात है कि जब भी भारतीय मुस्लिमों की परिस्थितियों पर चर्चा की जाये तो बात सीधे पाकिस्तान तक ले जाई जाती है

यह अपने आप में विचित्र सी बात है कि जब भी भारतीय मुस्लिमों की परिस्थितियों पर चर्चा की जाये तो बात सीधे पाकिस्तान तक ले जाई जाती है। यह बतलाने की कोशिश होती है कि भारत में मुस्लिमों की स्थिति वहां से बेहतर है। तो क्या इसलिये इस देश में रहने वाले मुस्लिमों के हालात एवं उनके साथ होने वाले व्यवहार पर स्वतंत्र रूप से बातचीत न की जाये क्योंकि पड़ोसी मुल्क में अल्पसंख्यक (वहां हिन्दू, ईसाई आदि) बड़ी दुश्वारियों में जी रहे हैं? दोनों देशों के मुस्लिमों की तुलना सामान्य जनता जिस उथले तरीके से करती है, लगभग वही हल्का-फुल्का रवैया शासकीय स्तर पर अपनाया जाता है; और अगर यह बात अंतरराष्ट्रीय मंच पर सरकार का कोई जिम्मेदार व्यक्ति करे तो इसे और भी दुर्भाग्यपूर्ण कहा जायेगा।
केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वाशिंगटन डीसी स्थित अमेरिकी थिंक टैंक पीटरसन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल इकानॉमिक्स के एक कार्यक्रम में दिये गये अपने उद्बोधन में भारत में रहने वाले मुसलमानों के बाबत पश्चिमी देशों में फैली धारणा को लेकर नाराजगी जताई और कहा कि भारत के मुसलमानों ने पाकिस्तानी मुस्लिमों के मुकाबले अधिक तरक्की की है। यानी पाकिस्तान के मुकाबले भारत के अल्पसंख्यकों की स्थिति बेहतर है। वे यह बताना भी नहीं भूलीं कि भारत में इस्लाम के मानने वालों की जनसंख्या बढ़ी है। उन्होंने सवाल किया- 'क्या 2014 के बाद देश में मुस्लिमों की आबादी घट गई है?'
यह बात समझ से परे है कि भला इस देश में रहने वाले मुस्लिमों के बारे में बात करने के लिए उनकी पाकिस्तान के मुस्लिमों से तुलना क्यों होनी चाहिये? क्यों नहीं हम यहां की स्थिति का स्वतंत्र रूप से आकलन करते हैं? इसमें तो कोई शक नहीं है कि आजादी के बाद से ही भारत ने अकि़्लयत की आशाओं व आकांक्षाओं को पूरा करने के लिये ऐसे तमाम उपाय किये हैं जिन पर सहज ही गर्व किया जा सकता है। हालांकि यह भी सत्य है कि अनेक मोर्चों पर भारत को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई है- पूरे व ईमानदार प्रयासों के बावजूद। एक मुकम्मल संवैधानिक व्यवस्था बनाकर भारत को 'धर्मनिरपेक्ष' देश का दर्जा दिया गया है। उसके इस स्वरूप व ढांचे को उसी 2014 से अवश्य ही खतरा पैदा हो गया है, जिस साल का उल्लेख सीतारमण कर रही थीं। यह स्पष्टीकरण उन्हें इसलिये देना पड़ रहा है क्योंकि दुनिया भर में यह बात गई है कि भारत ने सर्वधर्म समभाव की जिस भावना को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की तकलीफों से गुजरते हुए बहुत जतन से रखा था, वर्तमान सरकार के आने के बाद उसे तहस-नहस करने की कोशिशें की जा रही हैं, जिसका प्रतिनिधित्व सीतारमण करती हैं।
इस सरकार, उसे चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी और उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा मिल-जुलकर एकदम सुनियोजित तरीके से मुसलमानों के खिलाफ देश भर में जो माहौल बनाया गया है, वह भारत के साथ-साथ पूरे विश्व द्वारा देखा जा रहा है। कट्टरवादी लोगों व संगठनों ने कैसे पिछली सरकारों पर 'मुस्लिम तुष्टीकरण' के आरोप लगाये हैं और किस तरह से देश में उनकी 20 करोड़ की आबादी के संहार की बातें भी हाल ही में की गईं, यह भी लोगों से छिपा हुआ नहीं है।
भारत की तरक्की की राह में मुस्लिमों की आबादी में बढ़ोतरी को सबसे ज्यादा जिम्मेदार बताया जाता है ताकि लोगों के बीच यह संदेश जाए कि देश की प्रगति न होने का कारण यही समुदाय है। मुस्लिमों व पाकिस्तान की बातें कहकर साम्प्रदायिक धु्रवीकरण भाजपा की चुनावी जीत का फार्मूला बन गया है। कोरोना फैलाने का जिम्मेदार बतलाते हुए उन्हें किस तरह से अपमानित किया गया, यह तो सबके सामने है ही, दुनिया यह भी जानने लगी है कि देश का वर्तमान निज़ाम उन्हें (मुसलमानों को) न्याय देने में आनाकानी करता है। अनेक राज्यों में बड़ी संख्या में जेलों में वे लोग बन्द हैं जिनका मज़हब इस्लाम है।
नागरिकता कानून व जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 की समाप्ति का भी बड़ा कारण इस सरकार द्वारा मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाकर रखना है। पाकिस्तान ही नहीं दुनिया के किसी भी देश में अल्पसंख्यकों के साथ होने वाला अन्याय सबके लिये चिंता की बात है, परन्तु हमें उस पर आवाज उठाने का नैतिक हक तभी मिल सकेगा जब हम पहले अपने यहां के सभी अल्पसंख्यकों का ख्याल रखें जिनमें सबसे अधिक संख्या वाले मुस्लिम भी शामिल हैं। असली बात तो यह है कि हम अपने यहां के सभी नागरिकों समेत अल्पसंख्यकों का जीवन स्तर, आर्थिक स्थिति, उनकी सुरक्षा, उनके नागरिक अधिकार, समानतापूर्ण व्यवहार आदि की तुलना विकसित राष्ट्रों से करें, न कि पाकिस्तान के साथ जो खुद ही बदहाल है।


