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उप्र में आखिर क्यों खिसकी सपा की नींव की ईंट!

लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी(सपा) को महज पांच सीटें मिली हैं। पिछले चुनाव में भी सपा को पांच सीटें मिली थीं। पिछले चुनाव में सपा अकेले चुनाव लड़ी थी

उप्र में आखिर क्यों खिसकी सपा की नींव की ईंट!
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लखनऊ। लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी(सपा) को महज पांच सीटें मिली हैं। पिछले चुनाव में भी सपा को पांच सीटें मिली थीं। पिछले चुनाव में सपा अकेले चुनाव लड़ी थी। इस बार उसका दो दलों -बहुजन समाज पार्टी (बसपा), राष्ट्रीय लोकदल (रालोद)- के साथ गठबंधन था। इस गठबंधन को अपराजेय माना जा रहा था। लेकिन ढाक के वही तीन पात। गठबंधन में बसपा को भले ही लाभ हुआ। उसने 10 सीटें जीत लीं, लेकिन बाकी दो दल जहां के तहां रह गए। सैफई परिवार के तीन सदस्य चुनाव हार गए। रालोद अपने हिस्से की तीनों सीटें हार गया।

इस चुनाव में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और पार्टी संस्थापक मुलायम सिंह यादव क्रमश: आजमगढ़ और मैनपुरी से चुनाव जीतने में कामयाब रहे। मगर उनके परिवार के तीन अन्य सदस्यों को हार का सामना करना पड़ा। अखिलेश की पत्नी डिम्पल यादव को कन्नौज सीट पर भाजपा प्रत्याशी सुब्रत पाठक के हाथों 12,353 मतों से परास्त होना पड़ा। इसके अलावा फिरोजाबाद सीट से अखिलेश के चचेरे भाई अक्षय यादव और बदायूं सीट से एक अन्य चचेरे भाई धर्मेन्द्र यादव को अपनी-अपनी सीट गंवानी पड़ी। मैनपुरी में मुलायम सिंह यादव की जीत का अंतर 2014 के मुकाबले केवल एक-चौथाई रह गया।

सूत्रों के अनुसार, सैफई परिवार में गठबंधन में सीटों के गलत बंटवारे को लेकर तू तू मै मै शुरू हो गई है।

सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, सपा के वरिष्ठ नेता और अखिलेश के चाचा रामगोपाल यादव ने सही तरीके से सीटों का बंटवारा न करने के लिए अखिलेश को जिम्मेदार ठहराया है।

हालांकि मुलायम ने चुनाव से पहले ही मायावती के साथ गठबंधन के अखिलेश के फैसले पर नाराजगी जाहिर की थी। उन्होंने मायावती को 38 सीटें देने पर कहा था कि आधी सीटें तो पहले ही हार गए। लेकिन अखिलेश ने खुलेतौर पर कहा था कि यदि उन्हें दो कदम पीछे भी हटना पड़ेगा तो भी वह गठबंधन करेंगे, क्योंकि गोरखुपर, फूलपुर और कैराना सीटों के लिए हुए उपचुनाव में उन्होंने गठबंधन का मीठा स्वाद चख लिया था।

हालांकि इसका एक पहलू यह भी है कि यदि गठबंधन न हुआ होता तो इस बार सपा को शायद पांच सीटें भी नहीं मिल पातीं। ज्यादा संभव था कि मुलायम और अखिलेश भी चुनाव हार जाते। इस लिहाज से अखिलेश के निर्णय को सही माना जा सकता है।

लेकिन यहां तो सवाल इस बात का है कि बसपा इस चुनाव में शून्य से 10 सीटों पर पहुंच गई, मगर सपा को गठबंधन का वह लाभ क्यों नहीं मिला, जो बसपा को मिला।

इस सवाल के दो जवाब हैं। एक तो सपा का पारिवारिक कलह इसका एक कारण है। शिवपाल यादव यदि अलग से चुनाव न लड़ते तो कम से कम सैफई परिवार के सदस्यों की हार नहीं होती। यहां कहा जा सकता है कि अखिलेश ने बसपा, रालोद से गठबंधन तो कर लिया, लेकिन परिवार के सदस्य को वह जोड़ कर नहीं रख पाए।

दूसरा जवाब यह है कि सीट बंटवारे में मायावती ने वो सारी सीटें ले लीं, जहां जातीय गणित के लिहाज से जीत का भरोसा था। सपा को ऐसी कई सारी सीटें दे दी गईं, जहां सपा-बसपा का संयुक्त वोट किसी उम्मीदवार को जिताने लायक नहीं था। वाराणसी, लखनऊ, कानपुर और गाजियाबाद ऐसी ही सीटें थीं। इन सीटों पर पहले ही माना जा रहा था कि गठबंधन प्रत्याशी नहीं जीत पाएगा।

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक राजेन्द्र सिंह के अनुसार, "गठबंधन के सीट बंटवारे में मायावती ने मन मुताबिक सीटें ले लीं। वोटों के अदान-प्रदान के लहजे से देखें तो जिन 10 सीटों पर बसपा ने जीत दर्ज की है, वहां सपा 2014 में दूसरे स्थान पर थी। इसी कारण सपा को असफलता मिली। नगीना, बिजनौर, श्रावस्ती, गाजीपुर सीटों पर सपा के पक्ष में समीकरण थे। दूसरा कारण गठबंधन की केमेस्ट्री जमीन तक नहीं पहुंची। सभाओं में भीड़ देखकर इन्हें लगा कि हमारे वोट एक-दूसरे को ट्रान्सफर हो जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।"

सिंह के अनुसार, मुलायम सिंह यादव के परिवार के सदस्यों का आपसी टकराव भी इस मौजूदा स्थिति के लिए जिम्मेदार है।

उन्होंने कहा, "शिवपाल का असर यादव बेल्ट में खासा पड़ा। मैनपुरी, इटावा, फिरोजाबाद जैसे गढ़ से सपा को नुकसान उठाना पड़ा। शिवपाल की सपा कार्यकर्ताओं के बीच अच्छी पैठ है। इसका खमियाजा सपा को इस चुनाव में उठाना पड़ा।"

उल्लेखनीय है कि प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) बनाकर शिवपाल अपने भतीजे अक्षय यादव के मुकाबले खुद मैदान में आ गए, और अक्षय अपने भाजपा प्रतिद्वंद्वी से 28,781 वोटों से हार गए। यहां शिवपाल को 91,651 वोट हासिल हुए। माना जा रहा है कि शिवपाल मैदान में न होते तो अक्षय चुनाव जीत जाते।

इसके अलावा अन्य कई सीटों पर भी उन्होंने सपा के ही वोट काटे। शिवपाल की विधानसभा सीट जसवंतनगर क्षेत्र से भी सपा को नुकसान हुआ है।

2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, उस समय भी हार का सामना करना पड़ा था। अब लोकसभा चुनाव में भी गठबंधन काम नहीं आया।

यहीं पर, मायावती को यह मालूम था कि मुस्लिम वोटरों पर मुलायम की वजह से सपा की अच्छी पकड़ है। इसका फायदा मायावती को हुआ। मायावती ने जीतने वाली सीटें अपने खाते में ले ली।

कई सीटों पर बसपा उम्मीदवार बहुत मामूली अंतर से हार गए। इसमें मेरठ और मछली शहर शामिल हैं। मछली शहर में मो बसपा उम्मीदवार टी. राम अपने भाजपा प्रतिद्वंद्वी बी.पी. सरोस से मात्र 181 मतों से हार गए।

सिंह के अनुसार, "चुनाव में सपा-बसपा के नेताओं ने तो गठबंधन कर लिया, लेकिन यह जिला और ब्लाक स्तर पर कार्यकर्ताओं को नहीं भाया। आधी सीटें दूसरे दल को देने से उस क्षेत्र विशेष में उस दल के जिला या ब्लाक स्तरीय नेताओं को अपना भविष्य अंधकारमय दिखने लगा।"

इन सबका परिणाम यह हुआ कि सपा का वोट प्रतिशत 2014 के लोकसभा चुनाव के 22़ 35 प्रतिशत से घटकर इस बार 17़ 96 फीसदी रह गया। वोट प्रतितशत बसपा का भी घटा, लेकिन उसके वोट सीटों में बदल गए। 2014 के आम चुनाव में बसपा को 19़ 77 प्रतिशत मत मिले थे, जो इस बार घटकर 19़ 26 फीसदी रह गए।


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