खुफिया सूचना पूरी तरह पुख्त़ा क्यों नहीं हो पाती है
बैसारन (पहलगाम, कश्मीर) में नरसंहार के सिलसिले में कुछ रिपोर्टों ने दावा किया कि यह एक 'खुफिया' या 'सुरक्षा' विफलता थी

- वाप्पला बालाचंद्रन
कच्ची और अपुष्ट सूचनाओं का संग्रहण, मिलान, विश्लेषण, प्रसार, मध्यस्थता, नीति अधिनिर्णय और निर्णय लेने की प्रक्रिया के बाद ही कार्रवाई के लिए नीति बनायी जाती है। इस प्रक्रिया में किसी भी प्रकार का गैप रहना पूरी सूचना उपलब्ध न हो पाने की स्थिति पैदा करेगा जिसमें सरकार के किसी भी विंग के पास पहले से ही किसी न किसी रूप में उपलब्ध तकनीकी बिंदुओं सहित खुफिया जानकारी नीति या कार्रवाई में बदलाव संभव नहीं होता है।
बैसारन (पहलगाम, कश्मीर) में नरसंहार के सिलसिले में कुछ रिपोर्टों ने दावा किया कि यह एक 'खुफिया' या 'सुरक्षा' विफलता थी। अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि अमरनाथ मंदिर से 50 किलोमीटर दूर पर्यटकों के लोकप्रिय पिकनिक स्थल बैसारन घास के मैदानों को 'एकीकृत कमान' के तहत काम करने राज्य के किसी भी सुरक्षा समूह द्वारा असुरक्षित क्यों छोड़ दिया गया था? एक अपुष्ट रिपोर्ट में कहा गया है कि पिकनिक स्थल को आधिकारिक तौर पर खोला नहीं गया था और इसलिए सुरक्षा व्यवस्था के बारे में विस्तार से तैयारी नहीं की गई थी।
यह प्रयास इस चूक के लिए किसी को दोषी ठहराना नहीं बल्कि यह समझाना है कि सामान्य रूप से सरकारों द्वारा 'सुरक्षा के लिए उत्पन्न खतरों' को कैसे प्रोसेस किया जाता है और इनमें 'फासला' कैसे रखा जाता है। चूंकि जम्मू-कश्मीर एक संवेदनशील क्षेत्र है इसलिए राज्य पुलिस खुफिया विभाग के अलावा यहां देश भर के असैनिक नागरिक, सैन्य और अर्द्ध सैनिक विभागों से संबंधित खुफिया एजेंसियों की बड़ी संख्या में मौजूदगी है।
यद्यपि राष्ट्रीय खुफिया एजेंसियां अपने मुख्यालय को रिपोर्ट करती हैं, इसके अलावा वे उप राज्यपाल और उनके अधीन 'एकीकृत कमान' को सुरक्षा परिदृश्य में किसी भी बदलाव से अवगत कराते हैं ताकि स्थानीय खतरे की अवधारणा के आधार पर निवारक तंत्र में उपयुक्त रूप से बदलाव किया जा सके। हालांकि इस तरह की खुफिया जानकारी जब उप राज्यपाल (जम्मू-कश्मीर में कानून और व्यवस्था अभी भी उनके अधीन है) जैसे उच्च अधिकारियों को रिपोर्ट की जाती है तो उसे सावधानीपूर्वक सत्यापित किया जाना चाहिए क्योंकि इस तरह के अलर्ट के बाद की कार्रवाई के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव होते हैं।
कच्ची और अपुष्ट सूचनाओं का संग्रहण, मिलान, विश्लेषण, प्रसार, मध्यस्थता, नीति अधिनिर्णय और निर्णय लेने की प्रक्रिया के बाद ही कार्रवाई के लिए नीति बनायी जाती है। इस प्रक्रिया में किसी भी प्रकार का गैप रहना पूरी सूचना उपलब्ध न हो पाने की स्थिति पैदा करेगा जिसमें सरकार के किसी भी विंग के पास पहले से ही किसी न किसी रूप में उपलब्ध तकनीकी बिंदुओं सहित खुफिया जानकारी नीति या कार्रवाई में बदलाव संभव नहीं होता है। इसकी वजह से 'खुफिया या सुरक्षा विफलता' का अभाव महसूस होता है।
खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को अक्सर बेतरतीब तरीके से, टुकड़ों-टुकड़ों में आधी-अधूरी जानकारी मिलती है जो पूरी तस्वीर का खुलासा नहीं करती हैं, खासकर जब रुझान अल्पकालिक होते हैं। कई मौकों पर एजेंसियों के पास सुरक्षा संबंधी विषयों पर विविध, अपूर्ण या यहां तक कि परस्पर विरोधी खुफिया जानकारी होती है जिसके कारण नीति संबंधी निर्णय लेने वालों को एक परिपूर्ण तस्वीर प्राप्त करने के लिए सूचना के 'आंतरिक मतभेदों' को सुलझाने के लिए एक सक्षम मध्यस्थ की आवश्यकता होती है। यह 'इंटेलिजेंस आर्बिट्रेशन' की प्रक्रिया है।
यदि यह विफल रहता है तो सूचनाओं में अनेक रिक्त स्थान रह जाते हैं। ऐसा कई बार हुआ है। एक खुफिया मध्यस्थ भी खुफिया में लापता रिक्त स्थानों को भरने के लिए अपने स्वयं के दृष्टिकोण का उपयोग करता है। इसके लिए वह मीडिया जानकारी तक का उपयोग करता है जिसे 'ओपन-सोर्स इंटेलिजेंस' (ओएसआई) कहा जाता है।
कानून और व्यवस्था अधिकारियों तथा राष्ट्रीय सूचना एजेंसियों द्वारा तैयार की गई सूचना के प्रसंस्करण में बहुत अंतर है। जहां राष्ट्रीय एजेंसियां 'रणनीतिक' खुफिया जानकारी देती हैं वहीं राज्य इकाइयां 'सामरिक' जानकारी का मंथन करती हैं। 'रणनीतिक' जानकारी आम तौर पर पूरे देश को प्रभावित करने वाला दीर्घकालिक संकेत या लंबे समय सीमा का होता है जबकि 'सामरिक' सूचना अल्पकालिक रुझान है जो पुलिस कार्रवाई जैसे छोटे क्षेत्रों को प्रभावित करता है। हालांकि, विशेष रूप से विदेशी हस्तक्षेप के साथ आतंकवाद विरोधी कार्रवाई रणनीतिक और सामरिक आयाम ग्रहण कर सकती है जिसके लिए यह अध्ययन करने और अनुमान लगाने की क्षमता की आवश्यकता होती है कि विदेशी सरकारों या विदेश आधारित संगठन जैसे लश्कर हमारे खिलाफ कैसे काम करेंगे जिसे संभालने में केवल राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियां ही सक्षम हैं।
फिर भी, ऐसे मामले हैं जब यह प्रक्रिया पश्चिमी देशों में भी विफल रही थी। यूएस 9/11 आयोग ने अपनी रिपोर्ट 'फोरसाइट एंड हाइन्ड्साइट' (पूर्वानुमान और घटना के बाद उसकी कारण मीमांसा करना) के अध्याय 11 में इन रुझानों पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि पूरी दुनिया में ओसामा बिन लादेन की बड़े पैमाने पर अमेरिका विरोधी गतिविधियां जारी रहने के बावजूद किसी भी एजेंसी ने 9/11 जैसे परिदृश्य का अंदाजा नहीं लगाया था। इस हमले में अमेरिकी यात्री विमानों को अमेरिका के खिलाफ हथियार बनाया गया था: 'सीआईए ने संभावित अपहरण परिदृश्यों का कोई विश्लेषणात्मक आकलन नहीं लिखा था' जबकि उत्तरी अमेरिकी एयरोस्पेस डिफेंस कमांड ने सामूहिक विनाश के हथियार ले जाने में विदेशी विमान के उपयोग का अनुमान लगाया था। किसी ने नहीं सोचा था कि अल-कायदा अमेरिकी विमानों का इस्तेमाल करेगा।
आयोग ने यह भी संकेत दिया कि अमेरिका में खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों की बड़ी संख्या के कारण भ्रम की स्थिति पैदा हो गयी एवं जिम्मेदारी कम हो गई थी। ऐसी चेतावनी जारी करने की जिम्मेदारी के लिए सीआईए में खाड़ी युद्ध के बाद 1992 में बनाए गए 'नेशनल इंटेलिजेंस ऑफिसर फॉर वार्निंग' का पद खत्म कर दिया गया और काउंटर-टेररिज़्म सेंटर (सीटीसी) को यह जिम्मेदारी दी गई। हालांकि सीटीसी ने यात्री विमानों में हथियार रखने की संभावना पर एक भी चेतावनी जारी नहीं की। दूसरे शब्दों में, एक शीर्ष-भारी भरकम खुफिया संरचना होने के कारण बेहतर अलर्ट जारी नहीं हुए।
इसी तरह मुंबई में 26/11 हमले पर पुलिस प्रतिक्रिया की जांच करने के लिए गठित समिति के सदस्य के रूप में महाराष्ट्र सरकार की विफलता पर ध्यान दिया जो उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर कुछ घटनाओं को देखने में विफल रही जिनका यदि अध्ययन किया जाता तो भयावह मुंबई हमले को रोका जा सकता था।
30 जुलाई, 2006 को सीएनएन-आईबीएन टीवी चैनल ने तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की चेतावनी के मद्देनजर हमारे पश्चिमी तटीय सुरक्षा उपायों का एक सर्वेक्षण प्रसारित किया कि हमारे परमाणु ऊर्जा प्रतिष्ठानों को पाकिस्तानी आतंकवादी समुद्र से निशाना बना सकते हैं। इसके बाद यह उम्मीद की गई कि महाराष्ट्र पुलिस तटीय गश्त को सतर्क व सशक्त करेगी। चैनल की टीम ने पाया कि तटीय गश्त कहीं नहीं देखी गई थी- 'यद्यपि बीएआरसी अब सीआईएसएफ की भारी सुरक्षा में है लेकिन यहां समुद्र के माध्यम से पहुंचे जाने की आशंका चिंता का कारण है'।
इसी चैनल ने 16 जून 2007 को एक और खबर प्रसारित की जिसे लेकर मुंबई और नई दिल्ली को चिंतित होना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रिपोर्ट में कहा गया है कि लश्कर-ए-तैयबा के आठ संदिग्ध आतंकवादियों ने मुंबई के पास समुद्री मार्ग से घुसपैठ की थी और उनमें से दो- अब्दुल मजीद और मोहम्मद जमील को जम्मू-कश्मीर पुलिस ने मार्च में राजौरी में गिरफ्तार किया था। समुद्री रास्ते से आतंकवादियों के घुसने की यह पहली ज्ञात घटना है।
टीवी चैनल ने फिर से खबर दी थी जिससे संकेत मिलता है कि आठ आतंकवादियों ने 23 फरवरी को पाकिस्तान छोड़ दिया था व कथित लश्कर ऑपरेटिव आसिफ तथा अब्बास द्वारा संचालित एक भारतीय नाव में बैठ गए। भारतीय तट पर समीर नाम के एक अन्य ऑपरेटिव ने उनका स्वागत किया। चैनल ने जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक गोपाल शर्मा का भी साक्षात्कार लिया जिन्होंने कहा था- 'लश्कर के दो लोगों को राजौरी में गिरफ्तार किया गया था एवं उन्होंने सूचित किया है कि आठ लोग आए थे और हां, इस मामले में समुद्री मार्ग का इस्तेमाल किया गया था।
अठारह महीने से भी कम समय के बाद 26/11 की घटना में दस आतंकवादियों ने मुंबई में तबाही मचाने के लिए नकली भारतीय (हिंदू) पहचान दस्तावेजों के साथ उसी मोडस ऑपरेंडी का इस्तेमाल किया। 2007 की रिपोर्ट में कहा गया था- 'जमील के पास शुरू में मुंबई के चेंबूर का एक छात्र आईडी था जिसमें उसका नाम धीरज था। यहां तक कि इन लोगों के पास दिल्ली और चंडीगढ़ के फर्जी दस्तावेज थे और जम्मू में उनके पास मतदाता पहचान पत्र भी थे'। इससे पता चलता है कि सूचनाओं के विश्लेषण, उनके निहित अर्थ को समझना और मामले की गंभीरता को नजरअंदाज करना तथा यह भरोसा करना कि आतंकवादी एक ही तरह की कार्यपद्धति (मोडस ऑपरेंडी) अपनाएंगे इस तरह की सोच के परिणाम कितने भयंकर हो सकते हैं यह हम देख चुके हैं। 'सुरक्षा के लिए उत्पन्न खतरों' के संबंध में मिली खुफिया सूचना पूरी तरह पुख्त़ा करना चाहिए। सतर्कता बरतने के लिए सरकारी एजेंसियों को आतंकवादियों की कार्यप्रणाली से चार कदम आगे ही रहना चाहिए।
(लेखक कैबिनेट सचिवालय के पूर्व विशेष सचिव हैं। सिंडिकेट:द बिलियन प्रेस)


