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भारत दुनिया भर में अपने राजनयिकों की संख्या क्यों बढ़ा रहा है

भारत अपनी विदेश सेवा के पुनर्गठन की योजना बना रहा है और शुरुआती स्तर के अधिकारियों की संख्या बढ़ा रहा है. सवाल यह है कि क्या इसके लिए सबसे असरदार तरीके से अधिकारियों की भर्ती संभव है?

भारत दुनिया भर में अपने राजनयिकों की संख्या क्यों बढ़ा रहा है
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भारत सरकार ने इस महीने की शुरुआत में भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) की समीक्षा और पुनर्गठन के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी. उम्मीद की जा रही है कि इसके जरिए अगले पांच सालों में 200 अतिरिक्त पद बनाए जाएंगे.

विदेश मामलों की संसदीय कमेटी ने यह माना था कि भारत की राजनयिक सेवा तुलनात्मक रूप से छोटी अर्थव्यवस्था वाले देशों के मुकाबले भी "सबसे कम स्टाफ" वाली है.

कमेटी ने यह भी अनुशंसा की थी कि समीक्षा में भारतीय विदेश सेवा और चीन के राजनयिक मिशनों के साथ ही प्रमुख विकासशील देशों की विदेश सेवाओं की भी तुलना की जानी चाहिए.

एक वरिष्ठ अधिकारी ने पहचान जाहिर नहीं करने के अनुरोध पर डीडब्ल्यू को बताया, "देश का हित और इसका असर कई महाद्वीपों में फैल गया है और उसे ज्यादा राजनयिक प्रतिनिधित्व की जरूरत है. जिन महाद्वीपों में पर्याप्त स्टाफ नहीं है वहां भारत ने मिशनों की संख्या बढ़ा दी है."

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अधिकारियों की संख्या में इजाफा

पूर्व भारतीय राजनयिक दीपा वाधवा ने डीडब्ल्यू से कहा, "यह तो सबको पता है कि आईएफएस का आकार भारत की जरूरतों और वैश्विक पहुंच की आकांक्षा के हिसाब से नहीं है." वाधवा के मुताबिक, "भारत को हमेशा संयुक्त राष्ट्र जैसे बहुपक्षीय संगठनों समेत अंतरराष्ट्रीय मामलों में बहुत कारगर खिलाड़ी माना गया है," इस सच्चाई के बावजूद हालत यही है.

वाधवा ने यह भी कहा कि इस विस्तार की जरूरत है क्योंकि भारत ने, "दुनिया भर में और ज्यादा राजनयिक मिशन शुरू किए हैं और मुख्यालयों को कूटनीति के नए आयामों को संभालने के लिए मजबूत किया है, जो उभर रहे हैं और जहां उसके हित दांव पर हैं. "

2018 से 2021 तक रूस में भारत के राजदूत रहे पूर्व राजनयिक वेंकटेश वर्मा ध्यान दिलाते हैं कि पुनर्गठन की योजना स्वागतयोग्य है लेकिन इसकी जरूरत लंबे समय से थी.

वर्मा ने डीडब्ल्यू से कहा, "भारत दुनिया भर में अपनी पहुंच बढ़ा रहा है और उसे ज्यादा राजनयिकों की जरूरत है, ना सिर्फ मध्य एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका जैसे कम प्रतिनिधित्व वाले इलाकों में बल्कि संयुक्त राष्ट्र और आर्थिक कूटनीति में बहुपक्षता को बढ़ावा देने की भारत की नई पहलों के लिए भी."

वर्मा ने यह भी कहा, "2027 तक हम तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होंगे, हम उसी आकार की विदेश सेवा लेकर नहीं चल सकते जब हम दसवें नंबर पर थे. एक जटिल दुनिया को ज्यादा विशेषज्ञता की भी जरूरत होती है, आईएफएस का मतलब एक विशेष सेवा थी."

वर्मा का कहना है, "आखिरकार भारतीय प्रवासी दुनिया के सबसे बड़े प्रवासी हैं, जिनकी अलग अलग जरूरतें और हित हैं. यह सब और दूसरी चीजें करने के लिए आईएफएस को बढ़ने, फैलने, विशेष बनने के साथ ही आने वाले दशकों में एक नए भारत की परियोजनाओं को एकजुट करना होगा."

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"समय से पीछे और संपर्क से बाहर"

विदेश सेवा के अधिकारी पारंपरिक रूप से सरकारी अधिकारी बनने के लिए सालाना परीक्षा के जरिए चुने जाते हैं. जो लोग इसमें सफल होते हैं उनकी दूसरे चरण की परीक्षा होती है और फिर इंटरव्यू लिया जाता है. इस प्रक्रिया के अंत में लगभग एक हजार लोगों को भारतीय विदेश सेवा, भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा और भारतीय राजस्व सेवा के साथ ही दूसरी एजेंसियों के लिए चुना जाता है.

दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय संबंध के प्रोफेसर अमिताभ मट्टू मानते हैं कि भारत सरकार थोड़ा और रचनात्मक तरीके से विदेश सेवा के अधिकारियों को बढ़ाने के बारे में सोच सकती थी. मसलन दूसरे विभागों, विश्वविद्यालयों, थिंक टैंक और इस तरह की दूसरी जगहों से.

मट्टू ने डीडब्ल्यू से कहा, "विदेश सेवा में क्षमता, सामंजस्य और स्पष्टता की कमी है. यह समय से पीछे और संपर्क से बाहर है. निश्चित रूप से इसे लैटरल इनरॉलमेंट की जरूरत है और मुझे लगता है कि करीब आधे राजदूतों को राजनयिकों के समूह से बाहर कर देना चाहिए."

कैडर की समीक्षा और पुनर्गठन की योजना ऐसे समय में बनी है जब भारत ने आने वाले सालों के लिए 9 नये मिशन खोलने की मंजूरी दी है.

अमेरिका में भारत की पूर्व राजदूत रही मीरा शंकर ने डीडब्ल्यू से कहा, "भारत की राजनयिक सेवा में स्टाफ की भारी कमी है. भारत जैसे आकार और परिमाण वाले देश और साथ ही उसके बढ़ते विस्तार और वैश्विक पारस्परिकता को देखते हुए एक ज्यादा सुदृढ़ राजनयिक मौजूदगी जरूरी है."


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