विश्व गुरू शांति प्रयास में पीछे क्यों रह गये?
राष्ट्रपति जो बाइडेन कन्फ्यूड हैं। हमास के हमले के समय बयान देते रहे कि हम नेतन्याहू के साथ हैं

- पुष्परंजन
इस समय दो-तीन बड़े सवाल हैं। सबसे पहला कि गाज़ा में फंसे बंधकों को बाहर कैसे निकाला जाए, साथ में जो स्थानीय नागरिक हैं, उन्हें आबोदाना और सुरक्षित आशियाना कैसे मुहैया कराया जाए? दो, जो कुछ फिलिस्तीन-इज़राइल के बीच हुआ, उसका डैमेज कंट्रोल कैसे हो? और तीसरा, अब्राहम अकॉर्ड का क्या होगा?
राष्ट्रपति जो बाइडेन कन्फ्यूड हैं। हमास के हमले के समय बयान देते रहे कि हम नेतन्याहू के साथ हैं। अब बोले कि जिस तरह का हमला गाज़ा में हुआ, उसकी पुनरावृति नहीं होनी चाहिए। भारत की तरह अमेरिका में भी 2024 में चुनाव है। $फक़र् इतना भर है कि जिस तरह भारत में इस समय पांच राज्यों में चुनाव है, अमेरिका उस तरह से दो-चार नहीं है। वहां एक राउंड में ही फाइनल चुनाव है। भारत में फाइनल से पहले कई सेमीफाइनल हैं। पीएम मोदी इस समय पांच राज्यों में आहूत सेमीफाइनल की व्यूह रचना में ख़ुद इतना उलझ गये कि सांस लेने तक की फुर्सत नहीं है। संभवत: यही विवशता है कि पीएम मोदी मध्यपूर्व में शांति के लिए लीड नहीं ले रहे हैं।
लेकिन जो बाइडेन की घरेलू राजनीति में इस समय इज़राइल चस्पां है। उन्हें साबित करना है कि वो एक सक्षम नेता हैं। मगर, बाइडन शांति स्थापना से अधिक आग लगाने में माहिर दीखने लगे। अपने घर की समस्याओं को अड्रेस करने में विफल जो बाइडेन एक युद्धकालीन नेता की तरह अचानक से सक्रिय हुए हैं। बावज़ूद इसके, प्रतिद्वंद्वी रिपब्लिकंस ने 80 साल के जो बाइडेन को एक कमज़ोर, शिथिल और ढीले-ढाले नेता के रूप में उनकी छवि गढ़ने में सफलता प्राप्त की है।
ठीक से देखा जाए तो हर आम चुनाव से कुछ महीने या साल पहले किसी दूसरे ज़मीन पर युद्ध की स्थिति बनती है, और अमेरिका में सत्ता और विपक्ष अपने हिसाब से नैरेटिव गढ़ता है। सन् दो हज़ार से पहले के कालखंड की चर्चा कभी बाद में करते हैं। मार्च 2003 में इराक युद्ध से ही इन्हें समझने का प्रयास करते हैं। तब अमेरिका में उसके अगले साल आम चुनाव था। उसके बाद, 2003 से 2011 तक इराक में युद्ध का सिलसिला चलता रहा, उन नौ वर्षों में अमेरिकी मतदाताओं और टैक्स पेयर्स की आंखों में अमेरिकी नेता धूल झोंकते रहे। 2016 में अमेरिकी आम चुनाव वाले समय सीरिया डिस्टर्ब कर दिया गया। सीरिया 2020 तक गृहयुद्ध में उलझा रहा, इस बीच अफग़ानिस्तान भी एक बड़ा मोर्चा था। अमेरिकी नेता अपनी घरेलू राजनीति को युद्ध के बहाने मज़बूत करते रहे।
इस बार भी विशेषज्ञों का मानना है कि 2024 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले जो बाइडेन रिपब्लिकन की आलोचना से बचने की कोशिश कर रहे हैं। युद्धविराम के लिए दुनिया भर में बढ़ती मांग के बावजूद जो बाइडेन ने गाज़ा के खिलाफ इजरायली सैन्य अभियान को अपना समर्थन देने के लिए इस सप्ताह इजरायल का दौरा किया। लेकिन जिस पैमाने पर गाज़ा में नरसंहार हुआ, उसे देखते हुए जो बाइडेन भी चौतरफा दबाव में आ गये लगता है। गुरूवार को उन्हें कहना पड़ा कि ऐसी ग़लती न दोहराई जाए। ऐसे बयान का मतलब यही होता है कि मानवता के विरूद्ध इज़राइल ने अपराध किया है। अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय में बेंजामिन नेतन्याहू पुतिन के बाद इस कालखंड के दूसरे नेता शायद हो जाएं, जिन्हें युद्ध अपराधी घोषित कर गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दिया जाए।
इस समय दो तीन बड़े सवाल हैं। सबसे पहला कि गाज़ा में फंसे बंधकों को बाहर कैसे निकाला जाए, साथ में जो स्थानीय नागरिक हैं, उन्हें आबोदाना और सुरक्षित आशियाना कैसे मुहैया कराया जाए? दो, जो कुछ फिलिस्तीन-इज़राइल के बीच हुआ, उसका डैमेज कंट्रोल कैसे हो? और तीसरा, अब्राहम अकार्ड का क्या होगा?
अब्राहम अकार्ड की चर्चा से पहले हमें इज़राइल फिलिस्तीन विवाद की टाइम लाइन को संक्षेप में समझ लेना चाहिए। वर्ष 1917 में प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन ने ऑटोमन साम्राज्य से फिलिस्तीन के बड़े भूभाग को अपने कब्जे में लिया और 2 नवंबर, 1917 की बॅल्फोर घोषणा के तहत यहूदियों को बसने के लिए जगह देने का अहद किया गया। नवंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव-181 के तहत फिलिस्तीन के इस भूभाग को यहूदी और अरब राज्य में विभाजित कर दिया गया तथा जेरूसलम को अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण में रखा गया। इस तरह के विभाजन से पूर्वी जेरूसलम सहित वेस्ट बैंक का हिस्सा जॉर्डन के पास और गाज़ा पट्टी का क्षेत्र मिस्र के पास चला गया। फलस्वरूप लगभग-लगभग साढ़े सात लाख फि लिस्तीनी शरणार्थियों ने वेस्ट बैंक, गाज़ा पट्टी और दूसरे अरब देशों में जाकर शरण ली।
14 मई, 1948 को इजराइल की स्थापना हुई, जो अरबों के लिए अस्वीकार्य था। 8 महीनों तक इजराइल और अरब देशों में युद्ध चला। मध्य-पूर्व के इतिहास में 1967 का 'सिक्स डे वॉर' दज़र् है, जिसमें इजराइल ने जॉर्डन, सीरिया और मिस्र को पराजित कर पूर्वी यरुशलम, वेस्ट बैंक, गाज़ा पट्टी और गोलन पहाड़ी पर कब्जा कर लिया। उसी साल अरब देशों ने खार्तूम बैठक में तीन का प्रस्ताव पेश किये, जिसके अंतर्गत 'इजराइल के साथ कोई शांति नहीं, इजराइल के साथ कोई वार्ता नहीं और इजराइल को किसी प्रकार की मान्यता नहीं' का संकल्प किया गया। यही बुनियादी कारण था कि भविष्य में युद्ध से ही सब कुछ तय करने के रास्ते खुल गये।
15 साल बाद खार्तुम प्रस्ताव को नकारते हुए 1979 में कैंप डेविड समझौते के आधार पर मिस्र ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर इज़राइल को मान्यता दी। उसके प्रकारांतर जॉर्डन ने वर्ष 1994 में इजराइल के साथ सुलह कर लिया। इस बीच इजराइल और फि लिस्तीन ने 1993 और 1995 में ओस्लो समझौते पर हस्ताक्षर किए। लेकिन 2000 के दशक की शुरुआत में जब इजरायल में विद्रोह की एक श्रृंखला शुरू हुई, तो समझौते टूट गए। 13 अगस्त 2020 को इजराइल-यूएई के बीच शांति समझौते की घोषणा हुई, और उसके प्रकारांतर 11 सितंबर को बहरीन-इजराइल समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इन समझौतों में अमेरिका और सऊदी अरब की अहम भूमिका को हम नकार नहीं सकते। मिडिल-इस्ट के ये वो देश हैं, जो अमेरिका के रहमों करम पर चलते रहे हैं।
मिडिल-इस्ट मामलों के जानकारों के अनुसार, सऊदी अरब की सहमति के बगैर बहरीन इस समझौते के लिये आगे नहीं बढ़ सकता था। इसे ध्यान में रखना चाहिए कि वर्ष 2011 में बहरीन में उठे जन-विद्रोह को नियंत्रित करने के लिये सऊदी अरब ने कुवैत और यूएई के साथ अपनी सेना भेजी थी। 2018 में सऊदी अरब ने बहरीन को 10 बिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराई थी। 15 सितंबर 2020 को अब्राहम अकॉर्ड पर हस्ताक्षर हुआ था, जिसमें हस्ताक्षर करने वालों में इज़राइल, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन थे। यहूदी धर्म और इस्लाम के बीच विश्वास मज़बूत करने के लिए इस समझौते को अब्राहम के नाम पर रखा गया है, क्योंकि दोनों ही एकेश्वरवाद के समर्थक हैं।
इस तरह के समझौते का ही नतीज़ा है कि दो दिन पहले यूएई के अधिकारियों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि युद्ध के बावजूद अमीरात और इजरायलियों के बीच आर्थिक संबंध जारी रहेंगे। अमीरात के विदेश व्यापार राज्य मंत्री थानी बिन अहमद अल जायौदी ने कहा कि कूटनीति और कारोबार का हम मिश्रण नहीं करते। बहरीन और मिस्र भी लगभग इसी लाइन पर दीख रहे हैं। लेकिन इसका साइड इफेक्ट बाहर से यही समझ में आता है कि मुसलमान देश इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष के सवाल पर ईरान की तरह आर या पार नहीं हैं।
2017 में प्रधानमंत्री मोदी इज़राइल गये थे, तब उनका ग्रैंड स्वागत हुआ था। मोदी और बीबी की दोस्ती परवान चढ़ती गई। यहां तक कि मोदी की सुरक्षा के वास्ते इज़राइल का श्वान दस्ता दिल्ली आया। भारत ने 1950 में इज़राइल को मान्यता दी थी, और 1992 में दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित हुए थे। 2022 में अदानी समूह और एक इजराइली भागीदार ने हाइफा पोर्ट के लिए 1.2 बिलियन डॉलर का टेंडर जीता। कुछ महीनों से भारत-इजराइल मुक्त व्यापार समझौते के लिए भी बातचीत चल रही है। बेशक, भारत के फिलिस्तीन व इजराइल से संबंध जटिल हैं। भारत फि लिस्तीनियों के समर्थन में कभी-कभार अपनी पुरानी लाइन पर वापिस लौट आता है। भारत के साथ ईरान के भी मैत्रीपूर्ण संबंध हैं, लेकिन इस समय ईरान जिस इज़राइल को ललकार रहा है, उस तेवर से भारत का इत्तेफ़ाक रखना भी सहज नहीं है।
मिस्र की भी मोदी से निकटता बढ़ी है, जहां वो जून 2023 में काहिरा गये थे। अमीरात और सऊदी अरब 1 अरब 40 करोड़ आबादी वाले भारतीय बाज़ार की उपेक्षा नहीं कर सकते थे। यूएई-भारत के बीच तेल से अलग कमोडिटीज से संबंधित व्यापार 45 अरब डॉलर तक पहुंच गया था। मोदी ने पश्चिम की ओर देखो नीति को धार देनी चाही, उसी का नतीज़ा था कि वो सऊदी अरब और यूएई जैसे दिग्गज देशों के क़रीब अपनी नीति को ले आये।
मगर, जो कुछ फि लिस्तीन-इज़राइल में हुआ, उसे शांत करने की पहल में पीएम मोदी पीछे रह गये, इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए। पहले पीएम मोदी ने नेतन्याहू को फ ोन किया, विदेश मंत्रालय ने इज़राइल के समर्थन में बयान दिया। बाद में फिलिस्तीन के समर्थन की बारी आई, महमूद अब्बास से भी पीएम मोदी ने बात की। यानी, प्रथम ग्रासे दक्षिणपंथी की नीति पर प्रधान सेवक अग्रसर हैं। मगर, हमारी सबसे बड़ी चिंता गाज़ा वाले हिस्से में फंसे भारतीय हैं, जिन्हें निकाल लाने में विदेश मंत्रालय ने विवशता ज़ाहिर कर दी।
विवश हम कूटनीति के मोर्चे पर क्यों हो गये? शनिवार को कैरो में शांति शिखर बैठक है। इस बैठक में फि लिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास, बहरीन के किंग हमद बिन ईसा अल खलीफा, कुवैत के क्राउन प्रिंस शेख मिसाल अल-अहमद अल-जबर अल-सबा, ग्रीस के प्रधानमंत्री किरियाकोस मित्सोटाकिस और इतालवी प्रधानमंत्री जियोर्जिया मेलोनी भी भाग लेंगे। फ्रांसीसी विदेश मंत्री कैथरीन कोलोना, यूरोपीय परिषद के अध्यक्ष चार्ल्स मिशेल ने भी अपनी उपस्थिति की पुष्टि की है। मगर, सवाल है कि ऐसी बैठक में पीएम मोदी की उपस्थिति क्यों नहीं है?
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