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क्यों हारी कांग्रेस

पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में चार के नतीजे 3 दिसंबर को आ गए। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चार में से तीन राज्य भाजपा के खाते में और एक कांग्रेस के खाते में जा रहा है

क्यों हारी कांग्रेस
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पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में चार के नतीजे 3 दिसंबर को आ गए। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चार में से तीन राज्य भाजपा के खाते में और एक कांग्रेस के खाते में जा रहा है। यानी मुकाबला बीजेपी के नाम ही रहा है। तीन में से दो राज्य, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पिछले पांच साल कांग्रेस की सरकार रही और अब अगले पांच साल के लिए सत्ता भाजपा के खाते में जा रही है। वहीं मध्यप्रदेश की सत्ता इस बार नैतिक तरीके से भाजपा के पास आ गई है। पिछली बार कांग्रेस के हाथों से भाजपा ने छल के जरिए सत्ता हथिया ली थी और विधानसभा चुनावों में यह बड़ा मुद्दा भी बना था। लेकिन जनता को शायद सरकार चुराने के इस खेल से खास फर्क नहीं पड़ा या फिर अन्य कारण कांग्रेस के खिलाफ काम कर गए और सत्ता पूरी तरह से भाजपा के हाथ में आ गई है। ये तीनों हिंदी पट्टी के राज्य हैं, और यहां भाजपा बरसों से कांग्रेस से मजबूत रही है।

हिंदी पट्टी राज्यों में धर्म का कार्ड कैसे चलना है, इस की विशेषज्ञ भाजपा है। जबकि कांग्रेस उसकी नकल करने के चक्कर में पिट गई। जब लोगों को धर्म के आधार पर ही वोट देना है, तो वो असली छोड़, नकली माल की ओर क्यों देखेंगे। कांग्रेस पता नहीं कब इस बात को समझेगी कि सॉफ्ट हिंदुत्व से वो बीजेपी का मुकाबला नहीं कर पाएगी। बागेश्वरधाम जैसे बाबा के चरणों में सिर नवाने में किसी कांग्रेस नेता की निजी श्रद्धा हो सकती है, और ऐसा करके वह अपनी और अपने परिवार की जीत सुनिश्चित कर सकता है, लेकिन यहां पार्टी आलाकमान की जिम्मेदारी है कि वे पूछें कि इससे कांग्रेस का भला कैसे हो सकता है। जाहिर है कमलनाथ जैसे नेताओं की इस तरह की मनमर्जी पर आलाकमान रोक नहीं लगा पाया और इसका नतीजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा है।

इन नतीजों में भाजपा के लिए दक्षिण के दरवाजे एक बार फिर बंद हो गए हैं। तेलंगाना में कांग्रेस सरकार बनाने जा रही है। इन नतीजों की एक और व्याख्या ये है कि देश में दक्षिण और उत्तर भारत की मानसिकता का फर्क पूरी तरह सतह पर आ गया है। कांग्रेस ने जैसी गारंटियां कर्नाटक में दी थीं, वैसी ही तेलंगाना और छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी दी थीं। लेकिन इन गारंटियों का असर दक्षिण भारत में अलग हुआ और उत्तर भारत में अलग रहा। रोजगार, नौकरियों के लिए परीक्षाएं, सस्ता परिवहन, स्वास्थ्य सुविधाएं, शिक्षा, किसानों, मजदूरों के हित, ओबीसी का हक ऐसे तमाम मुद्दों पर उत्तर और दक्षिण भारत की जनता की सोच अलग नजर आई।

कर्नाटक के बाद तेलंगाना के लोगों ने कांग्रेस की विकासपरक सोच को धर्म के ऊपर तरजीह दी, लेकिन हिंदी पट्टी में धर्म बाजी मार गया। इन नतीजों में क्षत्रपों के रवैये ने भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है। तेलंगाना में कांग्रेस अध्यक्ष रेवंत रेड्डी का कहना है कि 20 साल की राजनीति में 15 साल वो विपक्ष में रहे हैं और इसने उन्हें जनता से जोड़ा है, नयी पहचान दी है। गौरतलब है कि एबीवीपी से राजनीति की शुरुआत करने वाले रेवंत रेड्डी टीडीपी में भी रहे और फिर कांग्रेस में आए। दो साल पहले ही उन्हें कांग्रेस की राज्य ईकाई की कमान मिली और अपने पर दिखाए इस भरोसे को उन्होंने गलत साबित नहीं होने दिया। तेलंगाना में बीआरएस, एआईएमआईएम और भाजपा की मिली-जुली घेराबंदी को तोड़ते हुए उन्होंने कांग्रेस को आगे निकाला।

जाहिर है ये काम एक अकेले के बस का नहीं है, बल्कि पूरे संगठन को साथ लेकर चलने की क्षमता की जरूरत होती है। रेवंत रेड्डी ने इसी क्षमता का परिचय दिया। लेकिन छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में तीन की जगह केवल एक प्रतिद्वंद्वी यानी भाजपा से ही कांग्रेस को मुकाबला करना था, उसमें भी छत्तीसगढ़ और राजस्थान में तो उसकी अपनी सरकारें थीं, मगर फिर भी कांग्रेस यहां फेल हो गई, क्योंकि उसके क्षत्रपों ने पार्टी की जगह खुद को जरूरत से अधिक तवज्जो दे दी। पार्टी आलाकमान इन्हें साध नहीं पाया या इन क्षत्रपों का अहंकार पार्टी से बढ़कर हो गया, इसकी विवेचना खुद कांग्रेस को करनी होगी। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान, तीनों जगह कांग्रेस में बड़े पदों पर बैठे नेता भाजपा से अधिक एक-दूसरे से लड़ने में व्यस्त रहे। इस तरह कहा जा सकता है कि इन क्षत्रपों का अहंकार जीत गया, और पार्टी की हार या जीत से इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।

क्योंकि फर्क पड़ता होता तो चुनाव के करीब आने पर एकता का दिखावा करने की जगह वे ईमानदारी से अपनी दरारें भरते, ताकि पार्टी को जीत मिलती। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कांग्रेस नेता न आलाकमान के भरोसे पर खरे उतरे, न स्थानीय कार्यकर्ताओं के। वे केवल अपने अहंकारों की कसौटी पर खरे उतरे। अब ये कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के विचार करने का सवाल है कि इसके बाद इन राज्यों में कांग्रेस को सही अर्थों में वे कैसे पुनर्जीवित करेंगे और कैसे बेलगाम हो चुके नेताओं को काबू में रखेंगे।

कांग्रेस की तीन राज्यों में हार का असर क्या अब इंडिया गठबंधन पर पड़ेगा या 2024 के चुनाव इससे किसी तरह प्रभावित होंगे, अभी ऐसे कुछ सवालों पर चर्चा चलेगी।हालांकि पिछले चुनाव के अनुभव यही बताते हैं कि राज्य जीतने के बावजूद कांग्रेस आम चुनाव हार गई थी। मुमकिन है इस हार से कांग्रेस की तंद्रा भंग हो और वो 2024 की रणनीति तैयार करने में इस बार हुई भूलों से सबक ले सके। अगर कांग्रेस तीन राज्यों में जीत जाती, तो शायद उसके क्षत्रपों की मनमानी और बढ़ जाती और 2024 में उसका अच्छा असर नहीं होता। इस लिहाज से ठीक ही हुआ कि कांग्रेस ने हिंदी पट्टी के राज्यों में हार का स्वाद चख लिया है।

देश की असल पहचान और संविधान बचाने के लिए जरूरी है कि उन सामाजिक मूल्यों की पुनर्स्थापना हो, जो बीते दशक में तेजी से दफन कर दिए गए हैं। जिन बातों को न्यू नॉर्मल कहकर सहज स्वीकृति मिल चुकी हैं, वे दरअसल भारत की जड़ों को खोखला कर रही हैं। इसलिए सत्ता का केन्द्रीकरण और व्यक्तिकेन्द्रित राजनीति दोनों को खत्म करना होगा। इंडिया गठबंधन की जीत से यह मुमकिन हो सकता है, इसलिए 2024 के चुनावों पर अब कांग्रेस और गठबंधन के बाकी दलों का फोकस होना चाहिए। हालांकि भाजपा की पूरी कोशिश रहेगी कि मोदी मैजिक जैसे जुमले को वो भारतीय राजनीति का सच बनाने की कोशिश करे।

फिलहाल इस बार के बाद अब यह देखना है कि भाजपा का अहंकार और कितना बढ़ता है, गांधी परिवार पर उसके हमलों में कितनी तेजी आती है और ये भी देखना है कि कांग्रेस कब ईमानदारी से आत्ममंथन कर अपनी गलतियों को सुधारती है। कांग्रेस को यह समझना होगा कि मोहब्बत के कारोबार का जिम्मा केवल राहुल गांधी के कंधों पर नहीं डाला जा सकता, इसमें सबको अपनी हिस्सेदारी निभानी होगी।


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