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एटमी ऊर्जा से पीछा क्यों नहीं छुड़ा पाता जर्मनी?

जर्मनी ने एटमी ऊर्जा पर कभी हां कभी ना करते हुए 25 साल लगा दिए. यूक्रेन में युद्ध से पैदा हुए ऊर्जा संकट ने उसे फिर से इस पर सोचने को विवश कर दिया है

एटमी ऊर्जा से पीछा क्यों नहीं छुड़ा पाता जर्मनी?
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एटमी तबाही का डर और रेडियो एक्टिव एटमी कचरे के निस्तारण का अनसुलझा सवाल फिर भी कई लोगों को ये मानने को मजबूर करता है कि एटमी रिएक्टरों को चलाए रखने का कदम गलत है. बर्लिन मे हर्टी स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में एनर्जी इकोनॉमिक्स की प्रोफेसर क्लाउडिया केमफेर्ट, एटमी ऊर्जा पर बहुत ज्यादा निर्भर, पड़ोसी देश फ्रांस का हवाला देती हैं.

उन्होंने डीडब्लू से कहा, "फ्रांस में आधे नये एटमी ऊर्जा प्लांट ऑफलाइन हैं क्योंकि उनमें सुरक्षा समस्याएं हैं. जर्मनी में हमारी भी वही समस्याएं हैं. सुरक्षा निरीक्षण हुए 15 साल से ज्यादा हो चुके हैं. और इस समय निरीक्षणों की तत्काल जरूरत है जिससे हमें पता चल सके कि फ्रांस जैसी समस्या यहां है या नहीं."

वो इस बात को भी रेखांकित करती है कि एटमी ऊर्जा प्राकृतिक गैस का एक कमजोर विकल्प है. जिसका इस्तेमाल बिजली पैदा करने के अलावा हीटिंग के लिए भी किया जा सकता है.

छोटा कार्बन फुटप्रिंट

फिर भी कई लोग एटमी ऊर्जा को कोयला जलाने से बेहतर विकल्प के रूप में देख रहे हैं. लेकिन इस ऊर्जा संकट के बीच जर्मनी कोयला ईंधन की ओर भी देख रहा है.

नीदरलैंड्स स्थित एटमी ऊर्जा विरोधी समूह वाइज के मुताबिक, एटमी संयंत्रो से 117 ग्राम सीओटू प्रति किलोवॉट घंटा निकलती है जबकि कोयले की एक किस्म लिग्नाइट को जलाने से प्रति किलोवॉट घंटा एक किलोग्राम सीओटू उत्सर्जन होता है.

बदलती परिस्थितियों के बावजूद, थीरिंग को नहीं लगता कि ये अस्थायी विस्तार, जर्मनी में मुकम्मल स्तर के एटमी पुनर्जागरण मे तब्दील हो पाएगा. वो कहते हैं, "मुझे लगता है कि ये सिर्फ थोड़े से वक़्त की बात है. एक पुल की तरह."


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