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चुप क्यों हो बसंती

उतार चढ़ाव से भरी इन घटनाओं में निम्न मध्यवर्गीय जीवन के सजीव चित्रण हैं

चुप क्यों हो बसंती
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- रमेश शर्मा

उतार चढ़ाव से भरी इन घटनाओं में निम्न मध्यवर्गीय जीवन के सजीव चित्रण हैं। एक स्त्री के जीवन में प्रेम एक गुदगुदाता हुआ कोमल और मुलायम बिषय है पर इस उपन्यास के स्त्री पात्रों के जीवन में आया हुआ प्रेम इतना सहज और सरल प्रसंग नहीं है। उस प्रेम के साथ एक तरफ सामयिक संघर्षों से भरी परिस्थिति जन्य कई कई रुकावटें हैं तो दूसरी तरफ एक ऑर्थोडॉक्स समाज की रूढ़िगत परंपराएं मुंह बाएं खड़ी मिलती हैं। 'चुप क्यों हो बसंती' दरअसल उन्हीं रुकावटों , उन्हीं परंपराओं के विरूद्ध एक स्त्री के शालीनता से भरे हुए संघर्ष और उसके मुखरित होने की कथा है।

'चुप क्यों हो बसंती' जयंती रंगनाथन का सद्य: प्रकाशित उपन्यास है। कथा कहानी के क्षेत्र में जयंती रंगनाथन एक जाना पहचाना नाम है । वे वरिष्ठ कथा लेखिका हैं और उनकी कहानियां पाठकों के बीच शिद्दत से पढ़ी जाती रही हैं। जयंती रंगनाथन ने अपनी भूमिका में स्वयं स्वीकारा है कि यह उपन्यास 1975 के आसपास की घटनाओं पर केंद्रित है जो बहुत पहले उन्होंने लिखा था। एक लंबा समय बीत जाने के इतने वर्षों बाद प्रकाशित इस उपन्यास को जब मैंने पढ़ा तो मुझे ऐसा कुछ भी नहीं लगा कि तीन बहनों और विधवा माँ वाले पितृविहीन निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के जीवन संघर्षों में आज भी कोई बहुत परिवर्तन हुए हैं। एक विधवा माँ और उसकी तीन बेटियों कीर्ति, बसंती और प्रीति की शिक्षा दीक्षा को लेकर, उनकी परवरिश को लेकर, उनके शादी ब्याह और पारिवारिक जीवन संघर्षों को लेकर उपन्यास की घटनाएं बहुत उतार चढ़ाव से भरी हुई हैं।

उतार चढ़ाव से भरी इन घटनाओं में निम्न मध्यवर्गीय जीवन के सजीव चित्रण हैं।एक स्त्री के जीवन में प्रेम एक गुदगुदाता हुआ कोमल और मुलायम बिषय है पर इस उपन्यास के स्त्री पात्रों के जीवन में आया हुआ प्रेम इतना सहज और सरल प्रसंग नहीं है। उस प्रेम के साथ एक तरफ सामयिक संघर्षों से भरी परिस्थिति जन्य कई कई रुकावटें हैं तो दूसरी तरफ एक ऑर्थोडॉक्स समाज की रूढ़िगत परंपराएं मुंह बाएं खड़ी मिलती हैं। 'चुप क्यों हो बसंती' दरअसल उन्हीं रुकावटों , उन्हीं परंपराओं के विरूद्ध एक स्त्री के शालीनता से भरे हुए संघर्ष और उसके मुखरित होने की कथा है।

पिता की मृत्यु फिर बड़ी बहन कीर्ति के विवाह के उपरांत परिवार की जिम्मेदारी बसंती के कांधे पर आती है। आर्थिक , सामाजिक तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी यह कांधा कहीं से भी कमजोर नज़र नहीं आता। परिवार की आजीविका चलाने के लिए बसंती छोटे से कपड़े की दुकान भी चलाती है। बसंती , प्रीति और उनकी विधवा माँ की मुम्बई यात्रा, मुम्बई में दुर्घटना उपरांत कीर्ति के पति की मृत्यु , विधवा हुई कीर्ति की मनोदशा, एक कमरे के फ्लेट में रहता उनका तंगहाल संयुक्त परिवार के जीवन संघर्ष के दृश्य बहुत मर्माहत करते हैं। इन सबके बावजूद एक चीज जो सबसे ज्यादा अप्रिशिएट करती है , वह है बसंती की हिम्मत और उसका संघर्ष।
निम्न मध्यवर्गीय स्त्रियों के जीवन में प्रेम प्रसंग की घटनाएं उन्हें बहुत थका देती हैं , उन्हें बहुत रुला देती हैं। कई बार उनकी हिम्मत, उनका संघर्ष टूटने भी लगता है।बसंती के जीवन में शेखर जैसे युवा का आना, जिसकी शादी एक अन्य लड़की मौलश्री से होने को रहती है,उसे जद्दोजहद से भर देता है। इस प्रेम की राह पर अनेक उतार चढ़ाव आते हैं। प्रेम में घर परिवार बस ही जाए , यह जरूरी नहीं होता ।परिवार बसते बसते भी कई बार बसने से रह जाता है। विधवा हो चुकी कीर्ति का स्थायी ठिकाना भी अब ससुराल नहीं बल्कि माँ का घर ही है । मां की नापसंदगी के बावजूद यहां उसकी मुलाकातें पूर्व प्रेमी कमल से होने लगती हैं। कमल उसे शादी के सपने भी दिखाता है। दोनों घर छोड़कर चले भी आते हैं पर कमल का रूढ़िवादी ठाकुर परिवार किसी भी हद में जाकर इस शादी को रोक देता है। मझधार में कमल जैसे पुरुष के पीछे हट जाने की वृत्ति का सदमा कीर्ति बर्दास्त नहीं कर पाती और अंतत: अपने को जलाकर आत्महत्या कर लेती है।

बसंती जिसके जीवन में अपने खुद के संघर्ष और दु:ख हैं। प्रेम का संघर्ष अलग है। बैंक की नौकरी का संघर्ष अलग है। इन संघर्षों के समानांतर उसका पारिवारिक संघर्ष और भी बड़ा है। दु:खी विधवा माँ को संभालने और छोटी बहन प्रीति को पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा करने की एक बड़ी जिम्मेदारी उसके ऊपर आती है।
बसंती इन सारी बाधाओं को अपने जीवन संघर्षों के माध्यम से पार भी करती जाती है । छोटी बहन प्रीति पढ़ लिखकर आई ए एस बनकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाती है। अनेक रूकावटों के बाद बसंती की शादी शेखर से होती है और वह एक बच्चे की मां भी बन जाती है।

इस उपन्यास में शेखर की भाभी इंदु एक ऐसी पात्र है जो दया ,करुणा, प्रेम इत्यादि जीवन मूल्यों के लिए पाठकों का ध्यान खींचती है। मुंबई यात्रा के दौरान इस इंदु नामक पात्र से बसंती के परिवार की मुलाकात कब एक स्थायी रिश्ते का रूप लेती है पता ही नहीं चलता। यह रिश्ता अंत तक बहुत आश्वस्त करता है।

यह पूरा उपन्यास बसंती के जीवन के इर्द-गिर्द ही बुना गया है। एक स्त्री के जीवन में जो द्वंद होते हैं , उसकी जो हिम्मत होती है , निडर होकर समाज की रूढ़ियों से टकराने की उसकी जो मुखर प्रतिबद्धता होती है , यही इस उपन्यास की कथावस्तु है। 70 के दशक की परिस्थितियों को लेकर कथा लेखिका ने जब इसे लिखा होगा तब यह नहीं सोचा होगा कि 40 साल बाद भी परिस्थितियों में बहुत बदलाव हो पाना संभव नहीं होगा । इस उपन्यास के माध्यम से स्त्री जीवन की भीतरी तहों को झांकने और एक बड़े समय अंतराल में स्त्री जीवन के सामाजिक संघर्षों का आकलन करने का एक अवसर हम जैसे पाठकों को मिलता है।
इस उपन्यास को पढ़कर और भी बहुत से अनुभवों से पाठक गुजर सकते हैं।


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