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मुफ्त उपहार यानि फ्री बीज पर सियासत का अड़ंगा राज्य सरकारों पर ही क्यों?

पिछले सप्ताह मुफ्त उपहार यानि फ्री बीज मामले पर दखल देने को लेकर दायर याचिकाओं की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्यक्ष तौर पर हस्तक्षेप करने से मना कर दिया है

मुफ्त उपहार यानि फ्री बीज पर सियासत का अड़ंगा राज्य सरकारों पर ही क्यों?
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- डॉ. लखन चौधरी

सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि मुफ्त उपहार यानि फ्री बीज मामले पर सियासत या अड़ंगा राज्य सरकारों पर ही क्यों लगाया जाता है? यह सवाल केन्द्र सरकार के लिए क्यों नहीं है? क्या केन्द्र सरकार मुफ्त उपहार यानि फ्री बीज की सियासत नहीं कर रही है? यदि इन पर रोक लगाने की बात आती है, तो सबसे पहले केन्द्र सरकार पर रोक लगनी चाहिए, इसके बाद राज्य सरकारों की बारी आनी चाहिए।

पिछले सप्ताह मुफ्त उपहार यानि फ्री बीज मामले पर दखल देने को लेकर दायर याचिकाओं की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्यक्ष तौर पर हस्तक्षेप करने से मना कर दिया है। फ्री बीज मुद्दे (चुनाव से पहले की जाने वाली लोक लुभावनी घोषणाओं) पर दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा है कि 'राजनीतिक दलों को चुनावी वादे करने से नहीं रोक सकेते हैं।' चुनाव पूर्व सभी राजनीतिक दल चुनावी वादे करते हैं, जिस पर अदालतें रोक नहीं लगा सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि इस मसले पर पहले तो राज्यों के हाईकोर्ट में याचिका लगाई जानी चाहिए थी। इसके बाद मामले को यहां तक आना चाहिए था।

सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों के मुख्यमंत्री कार्यालयों को पार्टी कार्यालय की तरह उपयोग किए जाने पर भी आपत्ति जताते हुए कहा है कि मुख्यमंत्री आवास सह कार्यालयों को 'मुख्यमंत्री ऑफिस-सीएमओ' की जगह 'राज्य सरकार कार्यालय' लिखें। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ समेत पांच राज्यों के नवंबर-दिसंबर में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के मद्देनजर जमकर हो रही चुनावी घोषणाओं से सुप्रीम कोर्ट भी हरकत में आती दिखती है। याचिकाकर्ताओं के तर्क है कि हर बार सरकारें चुनावी घोषणाएं करती हैं, इससे अंतत: करदाताओं पर बोझ बढ़ता है। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि चुनाव से पहले सरकार का लोगों को पैसे बांटना प्रताड़ित करने जैसा है। यह हर बार होता है और इसका भार टैक्स चुकाने वाली जनता यानि करदाताओं पर पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं की सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार, चुनाव आयोग, राजस्थान और मध्य प्रदेश सरकार को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब मांगा है।

ज्ञातव्य है कि इसके पहले भी याचिका में चुनावों के दौरान राजनीतिक पार्टियों के वोटर्स से फ्री बीज या मुफ्त उपहार के वादों पर रोक लगाने की अपील की गई है। इसमें मांग की गई है कि चुनाव आयोग को ऐसी पार्टियों की मान्यता रद्द करनी चाहिए। इस पर केंद्र सरकार ने सहमति जताते हुए सुप्रीम कोर्ट से फ्री बीज की परिभाषा तय करने की अपील की है। केंद्र ने कहा कि अगर फ्री बीज का बंटना जारी रहा तो यह देश को 'भविष्य की आर्थिक आपदा' की ओर ले जाएगा, लेकिन यहां पर गौर करने वाली बात यह है कि क्या स्वयं केन्द्र सरकार भी यही नहीं कर रही है?

मध्यप्रदेश और राजस्थान सरकार अपनी कुल कर कमाई का 35 फीसदी हिस्सा फ्री बीज पर खर्च करते हैं। आरबीआई की 31 मार्च 2023 तक की रिपोर्ट में सामने आया है कि मप्र, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य टैक्स की कुल कमाई का 35 फीसदी तक हिस्सा फ्री की योजनाओं पर खर्च कर देते हैं। पंजाब सरकार 35.4 फीसदी के साथ सूची में शीर्ष पर है। मप्र में यह हिस्सेदारी 28.8 फीसदी, राजस्थान में 8.6 फीसदी है। आंध्रप्रदेश अपनी आय का 30.3 फीसदी, झारखंड 26.7 फीसदी और बंगाल 23.8 फीसदी फ्री बीज के नाम कर रहे हैं। इसमें केरल 0.1 फीसदी हिस्सा फ्री बीज को देता है।

इससे सरकारों का बजट घाटा बढ़ता है, जिससेे राज्य ज्यादा कर्ज लेने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसे में आय का बड़ा हिस्सा ब्याज अदायगी में चला जाता है। पंजाब, तमिलनाडु और पं. बंगाल अपनी कमाई का 20 फीसदी, मप्र 10 फीसदी और हरियाणा 20 फीसदी से ज्यादा ब्याज भुगतान पर खर्च कर रहे हैं। राजस्थान, पंजाब, बंगाल में 35 फीसदी हिस्सा लुभावनी योजनाओं में खर्च हो रहा है। इस समय पंजाब सरकार पर जीएसडीपी का 48 फीसदी, राजस्थान पर 40 फीसदी, मध्यप्रदेश पर 29 फीसदी तक कर्ज है, जबकि यह 20 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए। मप्र, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, कर्नाटक, राजस्थान और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों ने पिछले सात सालों में करीब 1.39 लाख करोड़ की फ्री बीज दीं या घोषणाएं कीं है। पंजाब का घाटा 46 फीसदी बढ़ चुका है, और सबसे खराब स्थिति में है। पंजाब में बिजली सब्सिडी 1 साल में 50 फीसदी बढ़कर 20,200 करोड़ रूपए हो चुकी है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फ्री बीज मुद्दे पर फैसले के लिए एक समिति गठित की जानी चाहिए। इसमें केंद्र, राज्य सरकारें, नीति आयोग, फाइनेंस कमीशन, चुनाव आयोग, आरबीआई, सीएजी, और राजनीतिक पार्टियां शामिल हों। इस मसले पर सुको कह चुका है कि 'गरीबों का पेट भरने की जरूरत है, लेकिन लोगों की भलाई के कामों को संतुलित रखने की भी जरूरत है, क्योंकि फ्री बीज की वजह से इकानॉमी पैसे गंवा रही है। हम इस बात से सहमत हैं कि फ्री बीज और वेलफेयर के बीच अंतर है।' कुछ लोगों का कहना है कि राजनीतिक पार्टियों को वोटर्स से वादे करने से नहीं रोका जा सकता, पर अब ये तय करना होगा कि फ्री बीज क्या है? क्या सबके लिए हेल्थकेयर, पीने के पानी की सुविधा...मनरेगा जैसी योजनाएं, जो जीवन को बेहतर बनाती हैं, क्या उन्हें फ्री बीज माना जा सकता है? कोर्ट ने इस मामले के सभी पक्षों से अपनी राय देने को कहा है।

सुप्रीम कोर्ट केंद्र से पूछ चुका है कि इस मसले पर सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं बुलाते हैं? राजनीतिक दलों को ही इस पर सब कुछ तय करना है। सुनवाई के दौरान कहा कि कमेटी बनाई जा सकती है, लेकिन क्या कमेटी इसकी परिभाषा सही से तय कर पाएगी? इस केस में विस्तृत सुनवाई की जरूरत है और इसे गंभीरता से लेना चाहिए। इस मसले पर चुनाव आयोग ने कहा कि फ्री स्कीम्स की परिभाषा आप ही तय करें। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग ने कहा था कि फ्री बीज पर पार्टियां क्या पॉलिसी अपनाती हैं, उसे रेगुलेट करना चुनाव आयोग के अधिकार में नहीं है। चुनावों से पहले फ्री बीज का वादा करना या चुनाव के बाद उसे देना राजनीतिक पार्टियों का नीतिगत फैसला होता है। इस बारे में नियम बनाए बिना कोई कार्रवाई करना चुनाव आयोग की शक्तियों का दुरुपयोग करना होगा। कोर्ट ही तय करे कि फ्री स्कीम्स क्या हैं और क्या नहीं। इसके बाद हम इसे लागू करेंगे।

इस मामले पर सबसे महत्वपूर्ण सवाल यही है कि मुफ्त उपहार यानि फ्री बीज मामले पर सियासत या अड़ंगा राज्य सरकारों पर ही क्यों लगाया जाता है? यह सवाल केन्द्र सरकार के लिए क्यों नहीं है? क्या केन्द्र सरकार मुफ्त उपहार यानि फ्री बीज की सियासत नहीं कर रही है? यदि इन पर रोक लगाने की बात आती है, तो सबसे पहले केन्द्र सरकार पर रोक लगनी चाहिए, इसके बाद राज्य सरकारों की बारी आनी चाहिए।


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