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जिनकी गायकी के आज भी दुनिया भर में दीवाने हैं

मो. रफ़ी का जन्मदिवस

जिनकी गायकी के आज भी दुनिया भर में दीवाने हैं
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- ज़ाहिद ख़ान

हीरो हो या कॉमेडियन सब के लिए उन्होने प्लेबैक सिंगिंग की, लेकिन गायन की अदायगी अलग-अलग। मो.रफी के गीतों का ही जादू था कि कई अदाकार अपनी औसत अदाकारी के बावजूद फिल्मों में लंबे समय तक टिके रहे। सिर्फ गानों की बदौलत उनकी फिल्में सुपर हिट हुईं। रफी साहब के गाने का अंदाज भी निराला था। जिस अदाकार के लिए वे प्लेबैक सिंगिंग करते, पर्दे पर ऐसा लगता कि वह ही यह गाना गा रहा है। यकघ्ीन न हो तो भारत भूषण, दिलीप कुमार, शम्मी कपूर, देव आनंद, गुरुदत्त, राजेन्द्र कुमार, शशि कपूर, धर्मेन्द्र, ऋषि कपूर आदि अदाकारों के लिए गाये उनके गीतों को ध्यान से सुनिए-देखिए, आपको फर्क दिख जाएगा।

मोहम्मद रफी शहंशाह-ए-तरन्नुम थे। चाहे उनके गाये वतनपरस्ती के गीत ‘‘कर चले हम फिदा’’, ‘‘जट्टा पगड़ी संभाल’’, ‘‘ऐ वतन, ऐ वतन, हमको तेरी कसम’’, ‘‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’’, ‘‘हम लाये हैं तूफान से कश्ती’’ हों या फिर भक्तिरस में डूबे हुए उनके भजन ‘‘मन तड़पत हरी दर्शन को आज’’, ‘‘मन रे तू काहे न धीर धरे’’, ‘‘इंसाफ का मंदिर है, ये भगवान का घर है’’, ‘‘जय रघुनंदन जय सियाराम’’, ‘‘जान सके तो जान, तेरे मन में छुपे भगवान’’ इस शानदार गायक ने इन गीतों में जैसे अपनी जान ही फूंक दी है। दिल की अतल गहराईयों से उन्होंने इन गानों को गाया है।

जनवरी, 1948 में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद, उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए जब उन्होंने ‘‘सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी’’ गीत गाया, तो इस गीत को सुनकर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की आंखें नम हो गईं थी। बाद में उन्होंने मो. रफी को अपने घर भी बुलाया और उनसे वही गीत की फरमाइश की। पं. नेहरू उनके इस गाने से इतना मुतास्सिर हुए कि स्वतंत्रता दिवस की पहली वर्षगांठ पर उन्होंने मोहम्मद रफी को एक रजत पदक देकर सम्मानित किया। मो. रफी को अपनी जिंदगानी में कई सम्मान-पुरस्कार मिले, दुनिया भर में फैले उनके प्रशंसकों ने उन्हें ढेर सारा प्यार दिया। लेकिन पं. नेहरू द्वारा दिए गए, इस सम्मान को वे अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान मानते थे। फिल्मी दुनिया के अपने साढ़े तीन दशक के करियर में मो. रफी ने देश-दुनिया की अनेक भाषाओं में हजारों गीत गाये और गीत भी ऐसे-ऐसे लाजवाब कि आज भी इन्हें सुनकर, लोगों के कदम वहीं ठिठक कर रह जाते हैं। उनकी मीठी आवाज जैसे कानों में रस घोलती है। दिल में एक अजब सी कैफियत पैदा हो जाती है। मो. रफी को इस दुनिया से गुजरे चार दशक हो गए, लेकिन फिल्मी दुनिया में उन जैसा कोई दूसरा गायक नहीं आया। इतने लंबे अरसे के बाद भी वे अपने चाहने वालों के दिलों पर राज करते हैं।

हिंदी सिनेमा में प्लेबैक सिंगिंग को नया आयाम देने वाले मो. रफी की पैदाइश 24 दिसंबर, 1924 को अमृतसर (पंजाब) के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुई थी। उन्होंने अपना पहला नगमा साल 1941 में महज सत्रह साल की उम्र में एक पंजाबी फिल्म ‘गुल बलोच’ के लिए रिकॉर्ड किया था, जो साल 1944 में रिलीज हुई। इस फिल्म के संगीतकार थे श्याम सुंदर और गीत के बोल थे, ‘‘सोनिये नी, हीरिये ने’’। संगीतकार श्याम सुंदर ने ही मो. रफी को हिंदी फिल्म के लिए सबसे पहले गवाया। फिल्म थी ‘गांव की गोरी’, जो साल 1945 में रिलीज हुई। उस वकघ््त भी हिंदी फिल्मों का मुख्य केन्द्र बम्बई ही था। लिहाजा अपनी किस्मत को आजमाने मो. रफी बम्बई पहुंच गए। उस वकघ््त संगीतकार नौशाद ने फिल्मी दुनिया में अपने पैर जमा लिए थे। उनके वालिद साहब की एक सिफारिशी चिट्ठी लेकर मो. रफी, बेजोड़ मौसिकार नौशाद के पास पहुंचे। नौशाद साहब ने रफी से शुरुआत में कोरस से लेकर कुछ युगल गीत गवाए। फिल्म के हीरो के लिए आवाज देने का मौका उन्होंने रफी को काफी बाद में दिया। नौशाद के संगीत से सजी ’अनमोल घड़ी’ (1946) वह पहली फिल्म थी, जिसके गीत ’‘तेरा खघ्लिौना टूटा’’ से रफी को काफी शोहरत मिली। इसके बाद नौशाद ने रफी से फिल्म ’मेला’ (1948) का सिर्फ एक शीर्षक गीत गवाया, ‘‘ये जिंदगी के मेले दुनिया में’’, जो सुपर हिट साबित हुआ। इस गीत के बाद ही संगीतकार नौशाद और गायक मोहम्मद रफी की जोड़ी बन गई। इतिहास गवाह है कि इस जोड़ी ने एक के बाद एक कई सुपर हिट गाने दिए।

साल 1951 में आई फिल्म ‘बैजू बावरा’ के गीत, तो नेशनल एंथम बन गए। खघस तौर पर इस फिल्म के ‘ओ दुनिया के रखघ्वाले सुन दर्द’, ‘मन तरपत हरि दर्शन को आज’ गानों में नौशाद और मोहम्मद रफी की जुगलबंदी देखते ही बनती है। नौशाद के लिए मो. रफी ने तकघ्रीबन 150 से ज्यादा गीत गाए। उसमें भी उन्होंने शास्त्रीय संगीत पर आधारित जो गीत गाए, उनका कोई मुकाबला नहीं। मसलन ’‘मधुबन में राधिका नाचे रे’’ (फिल्म कोहिनूर)

1950 और 60 के दशक में मोहम्मद रफी ने अपने दौर के सभी नामचीन संगीतकारों मसलन शंकर जयकिशन, सचिनदेव बर्मन, रवि, रोशन, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, हेमंत कुमार, ओ.पी नैयर, सलिल चौधरी, कल्याणजी आनंदजी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, खय्याम, आर. डी. बर्मन, उषा खन्ना आदि के साथ सैकड़ों गाने गाए। एक दौर यह था कि मो. रफी हर संगीतकार और कलाकार की पहली पसंद थे। उनके गीतों के बिना कई अदाकार फिल्मों के लिए हामी नहीं भरते थे। फिल्मी दुनिया में मो. रफी जैसा वर्सेटाइल सिंगर शायद ही कभी हो। उन्होंने हर मौके, हर मूड के लिए गाने गाए। जिंदगी का ऐसा कोई भी वाकघ्आि नहीं है, जो उनके गीतों में न हो। मिसाल के तौर पर शादी की सभी रस्मों और मरहलों के लिए उनके गीत हैं। ‘‘मेरा यार बना है दूल्हा’’, ‘‘आज मेरे यार की शादी है’’, ‘‘बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब’’, ‘‘बाबुल की दुआएं लेती जा’’ और ‘‘चलो रे डोली उठाओं कहार’’। हीरो हो या कॉमेडियन सब के लिए उन्होने प्लेबैक सिंगिंग की, लेकिन गायन की अदायगी अलग-अलग।

मो.रफी के गीतों का ही जादू था कि कई अदाकार अपनी औसत अदाकारी के बावजूद फिल्मों में लंबे समय तक टिके रहे। सिर्फ गानों की बदौलत उनकी फिल्में सुपर हिट हुईं। रफी साहब के गाने का अंदाज भी निराला था। जिस अदाकार के लिए वे प्लेबैक सिंगिंग करते, पर्दे पर ऐसा लगता कि वह ही यह गाना गा रहा है। यकघ् न हो तो भारत भूषण, दिलीप कुमार, शम्मी कपूर, देव आनंद, गुरुदत्त, राजेन्द्र कुमार, शशि कपूर, धर्मेन्द्र, ऋषि कपूर आदि अदाकारों के लिए गाये उनके गीतों को ध्यान से सुनिए-देखिए, आपको फर्कघ् दिख जाएगा। किस बारीकी से मो. रफी ने इन अदाकारों की एक्टिंग और उनकी पर्सनेलिटी को देखते हुए गीत गाये हैं। मोहम्मद रफी के लिए यह किस तरह से मुमकिन होता था ? इस बारे में उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘‘किसी भी फनकार के लिए गाने की मुनासिबत से अपना मूड बदलना बहुत ही दुश्वार अमल होता है। वैसे गाने के बोल से ही पता चल जाता है कि गाना किस मूड का है। फिर डायरेक्टर भी हमें पूरा सीन समझा देता है, जिससे गाने में आसानी होती है। कुछ गानों में फनकार की अपनी भी दिलचस्पी होती है। फिर उस गीत का एक-एक लफ्ज दिल की गहराइयों से छूकर निकलता है।’’

मो. रफी ने हजारों नगमे गाये, लेकिन उन्हें फिल्म ‘दुलारी‘ में गाया गीत ‘‘सुहानी रात ढल चुकी, न जाने तुम कब आओगे।’’ बहुत पसंद था। यह उनका पसंदीदा गीत था। 1970 के दशक में मो. रफी ने कई लाइव संगीत कार्यक्रमों में अपने गीतों का प्रदर्शन किया। इसके लिए वे पूरी दुनिया घूमे। मोहम्मद रफी के यह सभी लाइव शो कामयाब साबित हुए। दुनिया भर में फैले मो. रफी के प्रशंसक उनके गीतों के जैसे दीवाने थे। आज भी अपने देश से कहीं ज्यादा उनके प्रशंसक, पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। ऐसी शोहरत बहुत कम लोगों को नसीब होती है। मोहम्मद रफी अपने गायन की वजह से अनेक पुरस्कार और सम्मानों से नवाजे गए। हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘फिल्मफेयर’ अवार्ड के लिए उन्हें 16 बार नॉमिनेट किया गया और छह बार उन्हें यह पुरस्कार मिला। ’ साल 1965 में उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा। 31 जुलाई, 1980 को महज पचपन साल की उम्र में मो. रफी इस दुनिया से रुख सत हो गए।


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