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जीते कोई भी, पराजित तो निर्वाचन आयोग हुआ है

केन्द्रीय चुनाव आयोग ने, जिसे संवैधानिक व्यवस्था को बनाये रखने की जिम्मेदारी मिली थी

जीते कोई भी, पराजित तो निर्वाचन आयोग हुआ है
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- डॉ. दीपक पाचपोर

केन्द्रीय चुनाव आयोग ने, जिसे संवैधानिक व्यवस्था को बनाये रखने की जिम्मेदारी मिली थी, देश में संविधान तथा लोकतंत्र को गहरे खतरे में डाल दिया है। लोकतंत्र की लड़ाई में देशवासियों का साथ देने की बजाय आयोग सत्ता के पक्ष में खड़ा है। अब तो उसे भाजपा का सहयोगी संगठन बतलाया जाता है। किसी भी स्वायत्त संस्था के लिये इस दर्जे तक पहुंचना बेहद शर्मनाक कहा जा सकता है।

लोकसभा चुनाव के लिये पांच चरणों का मतदान निपट चुका है। 8 राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों की 49 सीटों पर सोमवार को पांचवें चरण का मतदान होने के साथ ही 418 क्षेत्रों की वोटिंग सम्पन्न हो गई है। केवल 125 सीटों पर मतदान बकाया है। अब तक के हुए मतदान के आधार पर विश्लेषक एवं बहुत से सर्वे अलग-अलग राय दे रहे हैं। कुछ भारतीय जनता पार्टी को आगे तो ज्यादातर इंडिया गठबन्धन को बाजी मारता हुआ देख रहे हैं। कुछ ऐसे भी सर्वेक्षण आये हैं जो कांटे की टक्कर बताते हुए त्रिशंकु संसद का अंदाजा व्यक्त कर रहे हैं। भावी परिदृश्य कोई भी रंग-रूप धर सकता है। वैसे छोटे-बड़े सभी सियासी दलों, उनके उम्मीदवारों, निर्दलीयों, गठबन्धनों, समीकरणों, राजनीतिक दांव-पेंचों, चुनाव को असर करने वाले तथ्यों आदि पर तो खूब चर्चा हो ही रही है, एक गैर-राजनैतिक संस्था पर भी भरपूर बहस हो रही है- वह है केन्द्रीय निर्वाचन आयोग। उसकी भूमिका एवं उसका अपने संवैधानिक दायित्वों के निर्वाह में नाकाम होने पर भी बहसें जारी हैं। कह सकते हैं कि 4 जून के चुनावी परिणामों में चाहे जो जीते, पराजित तो निर्वाचन आयोग ही घोषित होगा।

आजाद भारत में संविधान निर्माताओं ने जिस निष्पक्षता, स्वतंत्रता व निर्भयता के अपेक्षित गुण-धर्मों वाले आयोग की स्थापना की थी, उन सभी उम्मीदों को मौजूदा मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार की अध्यक्षता में बनी इस संस्था ने ध्वस्त कर दिया है। पिछले कुछ अरसे में एक के बाद एक हुए विभिन्न चुनावों में आयोग लगातार सत्ता के आगे झुकता चला गया है और इस चुनाव (18वीं लोकसभा) को देखें तो वह सिर्फ सरकार के आगे नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी को ही दण्डवत प्रणाम कर रहा है। मतदान के चरण-दर-चरण आयोग जिस तरह अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ रहा है वह न केवल इन्हीं चुनावों के परिणामों को प्रभावित करेगा बल्कि आने वाले समय में एक ऐसी व्यवस्था व परिपाटी बनाकर जायेगा जिसके कारण इस महादेश के लिये स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव दूर की कौड़ी बनकर रह जायेंगे। दुख इतना ही नहीं है कि राजीव कुमार ने अपनी रीढ़ सीधी करने की कोशिश नहीं की, अधिक दुर्भाग्यजनक तो यह है कि उन्होंने खुद ही अपनी सारी शक्तियां सत्ता को सौंप दीं। टिप्पणीकारों से लेकर सोशल मीडिया तक जैसे कार्टून, चुटकुले, मीम आदि आयोग को लेकर बन रहे हैं, उससे साफ हो गया है कि टीएन शेषन जैसे अधिकारियों ने जिस मेहनत व साहस के साथ आयोग को सम्मान दिलाया था, वह राजीव कुमार जैसे अधिकारी ने मिट्टी में मिलाकर रख दिया। अपनी कार्यपद्धति से राजीव कुमार ने आने वाले समय में शेषन जैसे किसी अधिकारी के बनने का रास्ता तो अवरूद्ध कर ही दिया, भावी निर्वाचन आयुक्त भी उन्हीं के जैसे होने चाहिये- यह अलबत्ता उन्होंने सुनिश्चित कर दिया है।

इस तरह देखें तो केन्द्रीय चुनाव आयोग ने, जिसे संवैधानिक व्यवस्था को बनाये रखने की जिम्मेदारी मिली थी, देश में संविधान तथा लोकतंत्र को गहरे खतरे में डाल दिया है। लोकतंत्र की लड़ाई में देशवासियों का साथ देने की बजाय आयोग सत्ता के पक्ष में खड़ा है। अब तो उसे भाजपा का सहयोगी संगठन बतलाया जाता है। किसी भी स्वायत्त संस्था के लिये इस दर्जे तक पहुंचना बेहद शर्मनाक कहा जा सकता है। यह स्थिति यहां तक कैसे पहुंची, इसे जानने के लिये तीन कालखंडों में बांटकर चुनाव आयोग के कार्यकाल को देखा जाना चाहिये। टीएन शेषन के कार्यकाल (नवम्बर, 1990 से दिसम्बर, 1996 तक) को ध्यान में रखकर यह काल विभाजन होना चाहिये।

शेषन पूर्व, शेषन का कार्यकाल और शेषन के पश्चात। उनके पहले तक सम्भवत: निर्वाचन आयोग को अपनी शक्ति का भान नहीं था। था भी, तो उसने अपने नख-दंत हमेशा छिपाकर रखे या उनका वैसा इस्तेमाल नहीं किया जैसा कि वह कर सकता है। इसका सम्भावित कारण यह है कि स्वतंत्रता संग्राम की विरासत को लेकर राजनीति करने वाली आजाद भारत की प्रारम्भिक पीढ़ियों में मर्यादाओं व मूल्यों के प्रति आग्रह होता था। उनमें आज के से राजनीतिज्ञों की सी उद्दंडता और उच्छृंखलता नहीं थी। ऐसा भी नहीं कि वह पूर्णत: अनुशासित और विधिसम्मत काम करने वाली पीढ़ी थी। अनेक राज्यों में हिंसा एवं मतदान में व्यवधान डालने की घटनाएं होती थीं। बिहार बूथ कैप्चरिंग के लिये बदनाम था। यहां मतपेटियां लूट लेने और मतदाताओं को बन्धक बनाकर अपने पक्ष में वोट कराने की कुख्यात परम्परा थी। तो भी स्थिति इतने तक ही सीमित थी। शेषन ने आयोग की शक्तियों को लौटाया। उपद्रवी तत्वों पर अंकुश लगाया और राजनीतिज्ञों की मनमानी पर लगाम लगाई। उनकी कार्य शैली का आयोग परवर्ती काल में काफी समय तक अनुसरण करता रहा।

2014 में आये नरेन्द्र मोदी ने इस महत्वपूर्ण संस्था की ताकत को आंकते हुए समझ लिया था कि उसे अपने शिकंजे में लाये बगैर वे 'कांग्रेस मुक्त' या 'विपक्ष मुक्त भारत' के अपने मिशन को नहीं चला सकते, न ही वे 'ऑपरेशन लोटस' जैसी लोकतंत्र विरोधी कार्रवाइयों को अंजाम दे सकेंगे। बहुत सहज व आश्चर्यजनक ढंग से आयोग ने अपने को भाजपा की मंशा व उद्देश्यों के अनुसार ढाल लिया। उसे पहला टास्क यह मिला कि मोदी-शाह को प्रचार के लिये अधिकतम अधिक समय मिले। इसके लिये मतदान कार्यक्रम लम्बा चले। इसका कारण यह था कि भाजपा का पूरा प्रचार इन्हीं दो लोगों पर टिका है। देश बड़ा है सो उन्हें वक्त ज्यादा चाहिये। 2014 में देश के जो मतदान 35 दिन चलते थे, 2019 में उसके लिये 38 दिन लगे। अब 2024 में यह प्रतिक्रिया पूरे 44 दिन ले रही है। पहले के दो चुनावों में भाजपा के पास कुछ और भी नेता थे। अब तो केवल मोदी ही हैं। शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को उसी में एडजेस्ट कर लिया जाता है। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक आदि के विधानसभा चुनावों में ऐसा करके देखा गया। कुछ राज्यों के चुनावों की घोषणा तो पीएम या शाह की सभाएं पूरी होने के बाद की गई थी। अब यह सभी के सामने साफ हो गया है कि अवधि लम्बी होने का कारण कोई सुरक्षा प्रबन्ध नहीं होता बल्कि वह यह है कि पूरा चुनावी कार्यक्रम भाजपा नेता, खासकर उसके स्टार प्रचारक नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की सुविधा को ध्यान में रखते हुए बनाया जाने लगा है।

सामान्य दिनों में तो निर्वाचन आयोग का प्रशासन पर कोई नियंत्रण नहीं होता लेकिन एक बार आचार संहिता लागू हो जाये तो उसके बाद सारी सरकारी मशीनरी आयोग के नियंत्रण में होती है और हर कोई- पीएम से लेकर अधिकारी तक- उसके कहे में होता है। 2019 का चुनाव मोदी ने पुलवामा के शहीदों के नाम पर लड़ा और वे जीते। पिछले चुनावों की बातों को यदि भूलकर अभी लड़े जा रहे चुनाव के प्रचार में कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब मोदी अपने भाषणों में विपक्ष को कोसने, भ्रष्टाचार के निराधार आरोप लगाने के अलावा सम्प्रदाय, धर्म आधारित नफरती भाषण न करते हों। उन्हें न कोई नोटिस मिलती है न कोई सवाल करता है। देश में पहली बार एक राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरावील (दिल्ली) और दूसरे पूर्व सीएम (झारखंड) को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के जरिये जेल भेजा गया ताकि वे चुनाव प्रचार न कर सकें। मोदी के साथ कई भाजपा नेता हेट स्पीच करते हैं परन्तु आयोग खामोश रहता है क्योंकि वह अब भाजपा के राजनैतिक लक्ष्यों का टूल बन गया है।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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