राहुल तेरे रूप अनेक की स्क्रिप्ट किसने लिखी?
राहुल गांधी एक पत्रकार के रूप में अवतरित होकर सत्यपाल मलिक का इंटरव्यू कर रहे हैं

- पुष्परंजन
दुुनिया में सबसे अधिक यूट्यूब देखने वाले भारत में हैं। उसी अनुपात में सर्वाधिक यूट्यूबर्स भी उग आये हैं। स्टैटिस्का द्वारा दी जानकारी के अनुसार, भारत में 46 करोड़ 20 लाख यूट्यूब के दर्शक हैं। उसके मुक़ाबले केवल 6 करोड़ 56 लाख दर्शक टेलीविज़न के हैं। यही वजह है कि सेटेलाइट चैनल सफेद हाथी बन चुके हैं। वहां दर्शकों का टोटा पड़ चुका है।
राहुल गांधी एक पत्रकार के रूप में अवतरित होकर सत्यपाल मलिक का इंटरव्यू कर रहे हैं। कभी मोटर मैकेनिकों के साथ उनके वर्कशाप में, तो कभी ट्रक ड्राइवर के साथ। डिनर की मेज पर ग़रीब-गुरबों, सब्जी उगाने वाले किसान के साथ खाना खाते देखिये राहुल को। कुली का बोझ उठाते हुए, या फिर खेतों में रोपनी करते हुए। राहुल तेरे रूप अनेक का निर्माण करने में कौन सा ग्रुप लगा हुआ है? कौन है, वो स्क्रिप्ट राइटर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर? पांच राज्यों के इस चुनाव में राहुल एक प्रयोगशाला से निकले मॉडल की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं, जो नीतीश कुमार जैसे नेता तक को हसद और हसरत का सबब दे गया।
नीतीश बाबू की अंतड़ी की थाह लगे न लगे, मगर बारात में फूफा या जीजा जैसे रूठ जाते हैं, वैसा रिएक्शन देने से ख़ुद को रोक नहीं पाये। नीतीश कुमार की बातों को मानकर राहुल को चाहिए कि पांच राज्यों के चुनाव को बीच में छोड़कर इंडिया गठबंधन के पथरीले मार्ग को प्रशस्त करने में लग जाएं। यह भी एक प्रहसन ही होता। गठबंधन के महत्वाकांक्षी नेताओं की पार्टियां चुनाव मैदान में अलग-अलग खेल रही हैं, उससे नीतीश कुमार को कष्ट नहीं है। कोई पत्रकार उन्हीं से सवाल पूछ लेता कि इंडिया गठबंधन को कोऑर्डिनेट करने के काम से आप क्यों पीछे हट गये नीतीश बाबू?
चुनावी मौसम में सर्वे को सट्टे के कारोबार से कम मत समझिए। इसके कारोबारियों ने हवा का रूख़ समझने के लिए दिल्ली ही नहीं, देश के मेट्रो शहरों में जिस पैमाने पर छात्रों को हायर किया है, उसे समझना हो तो विश्वविद्यालयों, शिक्षण संस्थानों में जाइये। चुनाव तक सर्वे करने के वास्ते छात्र 50 हज़ार से लाख रुपये महीने के पगार पर इंगेज़ हैं, तो उन्हें फिलहाल नौकरी की चिंता किसलिए?
पांच राज्यों के इस चुनाव में मीडिया में जिस तरह का घमासान मचा हुआ है, वह अभूतपूर्व है। दुुनिया के मुख़्तलिफ़ हिस्सों से तुलना करें, तो सबसे अधिक यूट्यूब देखने वाले भारत में हैं, और उसी अनुपात में सर्वाधिक यूट्यूबर्स भी उग आये हैं। स्टैटिस्का द्वारा दी जानकारी के अनुसार, भारत में 46 करोड़ 20 लाख यूट्यूब के दर्शक हैं। उसके मुक़ाबले केवल 6 करोड़ 56 लाख दर्शक टेलीविज़न के हैं। यही वजह है कि सेटेलाइट चैनल सफेद हाथी बन चुके हैं। वहां दर्शकों का टोटा पड़ चुका है। आज की तारीख़ में बीजेपी के रहमोकरम पर पलने वाला मीडिया पब्लिक ओपिनियन जेनरेट नहीं कर पा रहा है।
भारत के मुक़ाबले आधे से भी कम 23 करोड़ 90 लाख लोग अमेरिका में यूट्यूब देखते हैं। तीसरे नंबर पर ब्राज़ील 144 मिलियन, मैक्सिको 83.1 मिलियन, जापान 78.6 मिलियन, पाकिस्तान 71.7 मिलियन, जर्मनी 67.8, वियतनाम 63 मिलियन, फि लिपींस 58.1 और तुर्की 57.5 मिलियन यूट्यूब के दर्शक हैं। यही वजह है कि इन दिनों यूट्यूब पत्रकारिता का धमाल मचा हुआ है। सेटेलाइट चैनल्स इस रेस में पीछे चल रहे हैं। देश की हर बड़ी पार्टियां यूट्यूबर्स को लुभाने, उन्हें अपने आइने में उतारने और गाइडलाइंस देने के लिए युद्ध स्तर पर बैठकें कर रही हैं। यह भी चुनाव रणनीति का हिस्सा है, जिसमें इंडिया गठबंधन की तमाम पार्टियों में से कांग्रेस का ग्राफ सबसे ऊपर है।
सोशल मीडिया के मामले में कांग्रेस जिस तरह फ्रं ट लाइन पर खेल रही है, उसके पीछे की पूरी रणनीति समझने में बीजेपी ने देर कर दी। कांग्रेस ने जिस पटकथा लेखक सह डाइरेक्टर, प्रोड्यूसर को ढूंढ निकाला है, उसके समक्ष प्रशांत किशोर जैसों की दुकान ठंडी हो चुकी है। 2023-24 का नया अवतार है, जिसे बीजेपी के गर्भनाल से काट ले आये कांग्रेस के खेवनहार। राहुल को ग़रीबों, मजलूमों का मसीहा बनाने वाले कनुगोलू के नाम से इस देश का आम मतदाता अपरिचित है। कर्नाटक के बल्लारी में जन्मे तेलुगु भाषी कनुगोलू ने न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की डिग्री पूरी करने से पहले अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा चेन्नई में बिताया है। सुनील कनुगोलू अब बेंगलुरु में रहते हैं, जहां वह पिछले एक दशक से राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में एक सफल कॅरियर बना रहे हैं।
चुनावी रणनीति के नये अवतार सुनील कनुगोलू को मार्च 2023 में कांग्रेस द्वारा नियुक्त किया गया था। बताते हैं कि सोनिया गांधी ने सुनील कनुगोलू को पार्टी के 2024 लोकसभा चुनाव टास्क फोर्स का सदस्य नामित किया था। इस रणनीतिकार की कोई ऑनलाइन उपस्थिति नहीं है। हाल के वर्षों तक कनुगोलू ने तमिलनाडु में डीएमके और एआईएडीएमके के साथ काम किया है। कहना कठिन है कि प्रशांत किशोर सुनील कनुगोलू के गुरू रहे हैं, मगर 2014 में वो प्रशांत किशोर की टीम में थे। सुनील कनुगोलू ने 2014 में नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बाद में भाजपा के एसोसिएशन ऑफ बिलियन माइंड्स (एबीएम) के प्रमुख के रूप में कार्य किया था।
उन्होंने फ रवरी 2018 तक अमित शाह के साथ मिलकर काम किया और उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक में भाजपा के चुनाव अभियानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिनमें से सभी में भाजपा विजयी हुई। सुनील कनुगोलू ने 2016 के विधानसभा चुनावों के लिए एमके स्टालिन और उनकी डीएमके के लिए भी काम किया। 2019 में लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु की 39 सीटों में से 38 पर डीएमके को फतह दिलाने में सुनील कनुगोलू की रणनीति काम कर गई। मगर, 6 अप्रैल 2021 के विधानसभा चुनाव में सुनील कनुगोलू डीएमके से अलग हो गए, क्योंकि स्टालिन चाहते थे कि वह प्रशांत किशोर के साथ मिलकर काम करें।
यह जानना दिलचस्प है कि सुनील कनुगोलू ने 2022 में थोड़े समय के लिए टीडीपी के लिए भी काम किया था। उन्हें अप्रैल 2022 में टीडीपी का रणनीतिकार बनाया गया। उसी वर्ष सितंबर में कनुगोलू ने टीडीपी के साथ काम करने से मना कर दिया। उन दिनों कांग्रेस के लोग इस रणनीतिकार पर नज़र गड़ाये बैठे थे। कनुगोलू को लाने में कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल की बड़ी भूमिका रही थी।
बहुत बाद में यह राज खुला कि सुनील कनुगोलू अरसे से केसी वेणुगोपाल के क़रीबी रहे हैं। कम लोग जानते हैं कि आज की तारीख़ में यह शख्स कांग्रेस उम्मीदवारों को चयन में प्रभावशाली रहा है। कुछ को छोड़कर, कांग्रेस उम्मीदवारों को मुख्य रूप से सुनील कनुगोलू की टीम द्वारा किए गए सर्वेक्षणों के आधार पर चुना गया है। प्रत्याशी चुनने का यह प्रयोग कर्नाटक चुनाव में सफल हुआ, चुनांचे इसे पांच राज्यों में आज़माने की हरी झंडी दे दी गई थी।
मई 2023 में, कनुगोलू को कांग्रेस आलाकमान ने 'टास्क फोर्स 2024' के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया। यह कांग्रेस द्वारा उदयपुर में अपनाए गए नव संकल्प घोषणा को क्रियान्वित करने के लिए बनाई गई एक टीम थी। कनुगोलू के अलावा टीम में पी.चिदंबरम, मुकुल वासनिक, जयराम रमेश, केसी वेणुगोपाल, अजय माकन, प्रियंका गांधी वाड्रा और रणदीप सिंह सुरजेवाला जैसे प्रमुख नेता शामिल थे।
कनुगोलू को राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की योजना बनाने का भी श्रेय दिया गया है। माना जाता है कि यह यात्रा देश की सबसे पुरानी पार्टी द्वारा उठाया गया एक महत्वपूर्ण कदम था, जिससे चुनाव परिणामों पर असर दिखने लगा था। 14 राज्यों में फैली यह 4,080 किलोमीटर की यात्रा 7 सितंबर, 2022 को शुरू हुई और 30 जनवरी, 2023 को समाप्त हुई। जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों से जुड़ने के उद्देश्य से इस यात्रा ने कांग्रेस की ज़मीनी पहुंच को काफी बढ़ावा दिया। एक तरह से भारत जोड़ो यात्रा राहुल गांधी के राजनीतिक कॅरियर की रिलांचिंग थी, जिसका श्रेय सेफोलॉजिस्ट कनुगोलू को देते हैं। कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले जिस तरह से गहन सर्वे किया था, वह देश की सर्वे एजेंसियों के लिए नया प्रतिमान गढ़ गया।
कायदे से देखा जाए तो चुनावी रणनीति के बाज़ार में कनुगोलू इस समय टॉप पर चल रहे हैं। प्रशांत किशोर क्या अब सिफ़र् इतिहास बनकर रह जाएंगे? यह भी एक सवाल राजनीतिक विश्लेषकों के समक्ष है। प्रशांत किशोर सर्वे से लेकर चुनावी रणनीति के कारोबार में रहे न रहें, यह काम निर्बाध गति से चलता रहेगा। ठीक से देखा जाए तो 2019 से भारत में सर्वे का कारोबार कई गुणा बढ़ता गया है। 2023-24 तो आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का वो कालखंड है, जहां सर्वे सटीक होने की संभावना बढ़ चली है।
याद रखें कि अपने देश में सर्वे के धंधे को चलाये रखने वाली लॉबी इतनी ताक़तवर है कि 2014 के चुनाव में निर्वाचन आयोग को नीचे झुकने पर विवश कर दिया था। 5 मार्च 2014 को चुनाव आयोग ने आचार संहिता लागू करते समय आदेश दिया था कि मतगणना के बाद ही किसी तरह के सर्वे, एक्जिट पोल दिखाये जाएं। इसपर खूब हो हल्ला मचा, और अंतत: चुनाव आयोग को यह आदेश वापिस लेते हुए यह तय करना पड़ा कि 12 मई 2014 को शाम 6.30 तक आखिरी वोट पड़ जाने के बाद एक्जिट पोल दिखा सकते हैं।
2014 के आम चुनाव के बाद से सत्ता समर्थक कितने नेताओं और उनके संरक्षण में धंधा चलाने वालों ने सर्वे कंपनियां खोली हैं, थिंक टैंक का काम आरंभ किया है, इन सबके वास्ते देश का काला धन और विदेश से चोरी-छिपे पैसे की जिस तरह से उगाही हो रही है, उसकी ठीक से पड़ताल हो, तो रोचक कि़स्से सामने आएंगे। इस समय सत्ता के गलियारों में ही नहीं, इंडिया को चुनावी मैदान में फतह दिलाने के वास्ते अलग-अलग सोशल ग्रुप मीडिया को फ्रं ट लाइन पर खड़ा कर लंबा खेल रहे हैं। किसी ज़माने में मीडिया हाउस के मैनेजरों ने संपादक जैसी संस्था को हाईजैक कर लिया था, अब उस जगह को इवेंट मैनेजरों और राजनीति को रिमोट कंट्रोल से चलाने वाले महानुभावों ने कब्ज़ा कर लिया है। एडीटर्स बेचारे करें भी क्या? उनके ज्ञान के आगे नतमस्तक हैं!


