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कौन चाहता है युद्ध और क्या हासिल होगा उससे

जब हर तरह से युद्ध हमारे लिए हानिकारक है तो फिर इसका विकल्प क्या है

कौन चाहता है युद्ध और क्या हासिल होगा उससे
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- अनिल जैन

जब हर तरह से युद्ध हमारे लिए हानिकारक है तो फिर इसका विकल्प क्या है? पाकिस्तान की हरकतों और आतंकवाद से हम कैसे निबटें? सवाल महत्वपूर्ण है और इसका जवाब यह है कि हम पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए अमेरिका समेत दुनिया के दूसरे देशों से गुहार जरूर करें लेकिन ऐसा करने के पहले हमें इस दिशा में खुद ही पहल करनी चाहिए।

महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया है-
'न युद्धात् परमं किंचिद् युद्धं सर्वं न संनादति।
युद्धेन संनादति सर्वं तस्माद् युद्धं परित्यजेत।।'
(युद्ध से बढ़कर कोई आपदा नहीं; युद्ध सब कुछ नष्ट कर देता है। इसलिए युद्ध का परित्याग करना चाहिए)।

भारत में जब कभी भी पाकिस्तान द्वारा पोषित आतंकवादी जमात की ओर से कोई बड़ा हमला होता है और उसमें बड़ी संख्या में लोग मारे जाते हैं तो मीडिया और सोशल मीडिया में युद्ध के ढोल-नगाड़े बजने लगते हैं। इस समय भी यही हो रहा है। पिछले महीने की 22 तारीख को जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले को लेकर पूरा देश क्षुब्ध और उद्वेलित है। चूंकि हमले की जिम्मेदारी लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े द रसिस्टेंस फ्रंट ने ली है, जिसे पाकिस्तानी सेना और वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई से खाद-पानी मिलता है।

पहलगाम हमले में जो लोग मारे गए हैं, वे सभी मध्यमवर्गीय परिवारों के होंगे। उनमें किसी ने अपना बेटा तो किसी ने पति, किसी ने अपना भाई और किसी ने पिता को खोया है। उन सभी के दर्दनाक तरीके से मारे जाने पर उनके परिवारजनों का दुख और गुस्सा जायज है और उसमें पूरे देश का शामिल होना भी लाजिमी है। फिर भी कॉरपोरेट घरानों से नियंत्रित टीआरपी-पिपासु टीवी चैनल भारतीय जन-मन के क्षोभ, शोक और आक्रोश का निर्लज्जता के साथ व्यापार कर रहे हैं।

जिस दिन पहलगाम में हमला हुआ उस दिन से आज तक दिल्ली और मुंबई स्थित टीवी चैनलों पर तीतर-बटेर छाप बहसों में रक्षा विशेषज्ञों के तौर पर शामिल रक्षा तथा विदेश मंत्रालय, सेना एवं खुफिया सेवाओं के पूर्व अफसर जनाक्रोश को युद्धोन्माद में बदलने की कोशिश कर रहे हैं। टीवी चैनलों के मूर्ख एंकर-एंकरनियां भी वीर बालकों की मुद्रा में उनके सुर में सुर मिला रही हैं। युद्धोन्माद पैदा करने के लिए इन टीवी चैनलों ने चंद पैसों पर आसानी से उपलब्ध हो जाने वाले पाकिस्तान के भी कुछ नेताओं, पूर्व नौकरशाहों, पूर्व सैन्य अफसरों को हायर कर रखा है।

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। दरअसल ये 'रक्षा विशेषज्ञ' किसी भी आतंकवादी हमले के बाद टीवी चैनलों के वातानुकूलित स्टूडियो में बैठकर पाकिस्तान को युद्ध के जरिये सबक सिखाने का सुझाव देते हैं और साथ ही यह रुदन भी कर डालते हैं कि भारतीय सेना के पास संसाधनों का अभाव है। अपनी ऐसी बातों से यह लोग आम लोगों पर यही प्रभाव छोड़ने की कोशिश करते हैं कि वे बहुत बहादुर और देशभक्त हैं, लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है। दरअसल यह मामला उच्च तकनीक वाले हथियारों के अंतरराष्ट्रीय कारोबार से जुड़ा है।

भारत हथियारों का बहुत बड़ा खरीदार है, लिहाजा हथियार बनाने वाली कई विदेशी कंपनियों के हित भारत से जुड़े हैं। भारतीय सेना, सुरक्षा एजेंसियों, विदेश सेवा और रक्षा महकमे के कई पूर्व अफसर इन कंपनियों के परोक्ष मददगार होते हैं। यह कंपनियां ऐसे लोगों को उनके रिटायरमेंट के बाद अनौपचारिक तौर पर अपना सलाहकार नियुक्त कर लेती हैं। ये लोग इन कंपनियों के हथियारों की बिक्री के लिए तरह-तरह से माहौल बनाने का काम करते हैं। देश में युद्धोन्माद पैदा करना और सेना में संसाधनों का अभाव बताना भी उनके इसी उपक्रम का हिस्सा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन लोगों को इस काम के लिए हथियार कंपनियों से अच्छा खासा 'पारिश्रमिक' मिलता है। तो देशभक्ति के नाम यह इनका अपना व्यापार है जो इन दिनों जोरों पर चल रहा है।

युद्ध का माहौल बनाने में जुटे कुछ टीवी चैनलों ने तो यह भी बता दिया है कि दोनों देशों के बीच युद्ध में अगर परमाणु युद्ध हथियारों का इस्तेमाल होता है तो पाकिस्तान का नुकसान ज्यादा होगा, वह तबाह हो जाएगा, दक्षिण एशिया का भूगोल बदल जाएगा आदि-आदि। कुछ चैनल सुझा रहे हैं कि भारत युद्ध न भी करें तो पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में घुसकर आतंकवादियों के शिविर नष्ट कर दे। हालांकि भारत की ओर से ऐसी कार्रवाइयां पिछले 27 वर्षों में 11 बार हो चुकी हैं, जिनमें से दो बार तो मोदी सरकार के दौर में ही हुई हैं, तो भी पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान और उसके द्वारा पोषित आतंकवादियों के मनसूबों पर इसका कोई असर नहीं हुआ है।

भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान का यह मुगालता पुराना है कि अमेरिका भारत का दोस्त है। इससे भी बड़ा मुगालता मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनाल्ड ट्रंप उनके व्यक्तिगत दोस्त है। हमारे कॉरपोरेट घरानों, कॉरपोरेट पोषित मीडिया और देश के उच्च मध्यम वर्ग के मन में भी अमेरिका के प्रति अगाध श्रद्धा है। ऐसे सभी लोगों के लिए क्या यह सूचना महत्वपूर्ण नहीं है कि अमेरिका ने पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले की निंदा तो की है, लेकिन राष्ट्रपति ट्रम्प ने साथ में यह भी कहा है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही उनके करीबी हैं और दोनों खुद ही इस मसले को हल कर लेंगे। जाहिर है कि अमेरिका ने खुद को इस मामले से अलग रखने का इरादा जता दिया है। इसकी वजह यह है कि हथियार खरीदी के मामले में पाकिस्तान भी अमेरिका का कोई छोटा ग्राहक नहीं है। इसके अलावा कई मौकों पर पाकिस्तानी सैन्य अड्डों का इस्तेमाल भी वह करता रहा है।

जहां तक चीन का सवाल है, उसके तो और भी ज्यादा हित पाकिस्तान के साथ जुड़े हुए हैं। उसने भी पहलगाम हमले की निंदा तो की है लेकिन पाकिस्तान को अपना मजबूत दोस्त और रणनीतिक भागीदार भी बताकर स्पष्ट कर दिया है कि युद्ध जैसी स्थिति में वह क्या करेगा। रूस की प्रतिक्रिया भी भारत के लिए आश्वस्तकारी नहीं है। तुर्की, ईरान, सऊदी अरब सहित कई मुस्लिम देश तो खुल कर पाकिस्तान के साथ हैं। यहां तक कि भारत के छोटे-छोटे पड़ोसी देश भी इस मामले में भारत से दूरी बनाए हुए हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत-पाकिस्तान युद्ध की स्थिति में कौन किसके साथ रहेगा!

कुल मिलाकर युद्ध हमारे लिए बुरी तरह घाटे का सौदा साबित होगा। पाकिस्तान भले ही हमारी तरह परमाणु शक्ति संपन्न है लेकिन वह निहायत ही उद्दण्ड और गैरजिम्मेदार मुल्क भी है। आर्थिक तौर पर तो वह बर्बाद है ही। उसके पास अपने बेगुनाह अवाम के अलावा खोने को भी कुछ खास नहीं है। इसलिए उसके साथ युद्ध की स्थिति में जो भी कुछ बिगड़ना है वह भारत का ही बिगड़ना है।

सवाल उठता है कि जब हर तरह से युद्ध हमारे लिए हानिकारक है तो फिर इसका विकल्प क्या है? पाकिस्तान की हरकतों और आतंकवाद से हम कैसे निबटें? सवाल महत्वपूर्ण है और इसका जवाब यह है कि हम पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए अमेरिका समेत दुनिया के दूसरे देशों से गुहार जरूर करें लेकिन ऐसा करने के पहले हमें इस दिशा में खुद ही पहल करनी चाहिए, जो कि भारत सरकार ने पहलगाम हमले के बाद की भी है। भारत की इस पहलकदमी से आने वाले समय में पाकिस्तान पर निश्चित रूप से दबाव बनेगा। अलबत्ता इन कदमों से अदानी, अंबानी और जिंदल जैसे हमारे यहां के कुछ उद्योग समूहों के हित जरूर प्रभावित हो सकते हैं, जिनके कारोबारी रिश्ते गहरे तौर पर पाकिस्तान और वहां के सत्ता प्रतिष्ठान से ताल्लुक रखने वाले लोगों के साथ जुड़े हैं।

पाकिस्तान के खिलाफ अपने स्तर पर की जा सकने वाली इस तरह की राजनयिक और आर्थिक नाकेबंदी के साथ ही हमें अपनी सुरक्षा व्यवस्था और खुफिया तंत्र को भी चाक-चौबंद करने के उपाय करने चाहिए। हर आतंकवादी हमले के बाद इस मोर्चे पर हमारी कमजोरियां उजागर होती हैं और सरकार की ओर से इन कमजोरियों को दुरुस्त करने की बातें भी होती हैं, लेकिन होता कुछ नहीं है। पहलगाम हमले में भी यह कमजोरी साफ तौर पर उभरकर सामने आई है। इससे पहले उड़ी, पठानकोट एयरबेस और पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले भी हमारी इन्हीं कमजोरियों के परिणाम थे। इन कमजोरियों को दूर किए बगैर अगर हम पाकिस्तान का रण-निमंत्रण स्वीकार कर भी लें तो उससे मसले का कोई स्थायी हल नहीं निकल सकता। आखिरकार हम पाकिस्तान की तुलना में कहीं ज्यादा सभ्य देश हैं। ऐसे ही मौकों पर हमारी सभ्यता का इम्तिहान होता है, जब हम उकसावे में आए बगैर अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए अपने मूल्यों को बनाए रखें। युद्ध नहीं, शांति और सह-अस्तित्व ही हमारी सभ्यता का आधार है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)


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