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यह कहां चले आए मेरे देश!

आलोक श्रीवास्तव चर्चित कवि और पत्रकार हैं। उनके अब तक छ: कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 'यह कहां चले आए मेरे देश! सातवां कविता संग्रह है, जो 2019 में प्रकाशित हुआ है

यह कहां चले आए मेरे देश!
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- अजय चन्द्रवंशी

आलोक श्रीवास्तव चर्चित कवि और पत्रकार हैं। उनके अब तक छ: कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 'यह कहां चले आए मेरे देश! सातवां कविता संग्रह है, जो 2019 में प्रकाशित हुआ है।

जैसा कि संग्रह के नाम से ही स्पष्ट है, इसमे एक यात्रा का बोध है; वह भी अपने देश की। प्रश्नवाचक शीर्षक और विस्मय बोधक चिन्ह से स्पष्ट है कि कवि इस 'गंतव्य' से संतुष्ट नहीं है। जाहिर है यह आखिरी मंज़िल भी नहीं है; इसे पार कर आगे जाना है। आज हम जहां खड़े हैं वह बुद्ध, भगतसिंह, गांधी, सुभाष के सपनों का देश नहीं है।
आज तो ''सुदूर बस्तियों में, राहों में, जंगलों में/तुम्हारे ही बेटे/ भूखे बेहाल, तुम्हारे ही हाथों मारे जाते हैं/तुम छीन लेते हो उनके निवाले/उजाड़ देते हो उनकी बस्तियां.... यह देश नहीं मगर देश के कुछ लोगों द्वारा ही किया जा रहा है। आज प्रतिगामी ताकते शक्तिशाली हुई हैं मगर हमेशा न रहेंगी''

भारत तुम्हारे जुमलों, और राजनीति की बिसात नहीं है/वह उस मंज़र का नाम है जो/सितम्बर 1858 में पूरी दिल्ली में वीराना बनकर पसर गया था/वह उस तख्ते का नाम है, जो 1931 में तीन सपनों को लाशों में/तब्दील कर गया था/वह उस आवाज़ का नाम है/जो 1948 की एक सर्द शाम खला में घुल गई थी''।

कवि को विश्वास है इस देश की जनता एक दिन इस स्थिति को बदल देगी ''तुम जिसे भारत कहते हो, जिसे देश कहते हो/वह तो खड़ा नहीं हुआ, वह अभी उठा नहीं है/अभी तो उसने बोला तक नहीं है कुछ/वह जिस दिन उठ गया/तुम किसी दिशा में नहीं दिखोगे''।

इन कविताओं ने तीव्र इतिहास बोध है। कवि की स्मृति में निकट अतीत से लेकर सुदूर अतीत तक की घटनाएं कौंधती हैं? वह इतिहास से प्रेरणा लेता है, जनसंघर्षों को याद करता है, मगर अतीतग्रस्त नहीं होता।इतिहास से पृथक कोई नहीं;हम सब एक लंबी परंपरा के हिस्से हैं। हम अपनी जातीय स्मृति से पृथक नहीं हो सकते, मगर उस परम्परा से सबक ले सकते हैं। कविमन इतिहास की स्मृतियों में दौड़ता है और वहीं से यह सीखता भी है ''यह जनता हारती है/पर मरती नहीं/संचित कर लेती है अपने दुखों को/अपनी पराजय को/धरती पर गिरे अपने रक्त की हर बून्द को/और लौटती है वोल्गा से, येनान से/ हिंदुकुश, सह्याद्रि और सागरमाथा से!'' कवि की 'इतिहास यात्रा' वर्तमान को नजरअंदाज करके नहीं वरन वर्तमान समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में हैं, क्योकि हमारी आज की अधिकांश समस्याओं की जड़ इतिहास में है।

प्रतिगामी ताकतें इतिहास का विकृतिकरण करती हैं; उसका दुरुपयोग करती है। हमारा मध्यमवर्ग(अन्य वर्ग भी) सही इतिहासबोध की कमी के कारण इस दुष्प्रचार से प्रभावित हो जाता है और ''तुम बहुत आराम से एक ही भाषा में /भगत सिंह को शहीद भी बोल सकते हो और/इस आदमी को सबसे बड़ा देशभक्त भी''। यह आदमी कौन है ? ''यह आदमी झूठ, ढोंग, मूर्खता, महत्वाकांक्षा, दुराग्रह की भाषा जो बोलते हुए पूरे देश में घूम रहा है / वह भाषा तुम्हारी ही भाषा है/ बस इसने पूंजी और और राजनीति से जोड़कर/ उसे एक शक्ति में बदल दिया है''। जाहिर है यह व्यक्ति आज शक्तिशाली है।

कवि को मध्यम वर्ग से शिकायत इसलिए है क्योंकि उससे उम्मीदें भी है। यह एक प्रकार से आत्मालोचन भी है। मगर मध्यमवर्ग अपनी भूमिका ठीक से समझ नही रहा है। ''क्या हैं हमारे संघर्ष?/हवा के बुलबुले/ झूठी गरिमा से तने शीश/इतिहास की लानत की तरह / हमारा वर्तमान है''। क्रांतिकारिता का दावा और नेतृत्व मुख्यत: मध्यम वर्ग द्वारा ही किया जाता रहा है, मगर गलत इतिहासबोध और ज़मीनी हक़ीक़त से अनभिज्ञता के कारण क्रांति का स्वप्न अधूरा ही रहा है। कवि ने इस प्रवृत्ति पर तीखा व्यंग किया है ''अगर तुम्हारे मुगालते ही/तुम्हारा इतिहासबोध हैं/ और पार्टी के दबड़े में घुस जाने को ही/तुम जनता के बीच जाना मानते हो/ वक्त तुम्हारे लिए अब भी/ उन गुजरे ज़मानों में ठिठका है'' या फिर ''इतिहास न तो मार्क्स से शुरू हुआ था/ न तुम पर खत्म होता है'' इस तरह की काफी शिकायते मध्यमवर्ग के बहाने पार्टी और बुद्धिजीवियों से है। इसमें सच्चाई तो है, अतिरंजना भी है। खुद मार्क्स के लिए इतिहास गतिशील है और चिंतन भी, इसलिए परिस्थितियों के बदलने से विकासमान चिंतन में कोई समस्या नहीं है।दूसरी बात बड़े बदलाव के लिए संगठन की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। हाँ क्रांति के नाम पर भी छद्म और अवसरवाद हो सकता है,होता है, यह सच्चाई है। यहां फिर कहा जा सकता है कवि की शिकायत उनसे है जिनसे उम्मीदें भी है।

कुछ कविताएं पौराणिक चरित्रों और ऐतिहासिक पात्रों को लेकर लिखी गई है, इनमें 'धर्मराज का सत्य', 'सोपाक का विलाप','नतालिया के लिए', 'सावित्री' आदि । धर्मराज का सत्य वस्तुत: ''वह असत्य ही था--पूर्ण/ शेष उस असत्य को ढकने की कारीगरी थी''। क्या आज के बहुत से असत्य धर्मराज के 'सत्य' की तरह नही हैं? 'सावित्री 'के कथा का मर्म कवि के अनुसार ''सिर्फ प्रेम ही दे सकता है साहस/यम का पीछा करने का/तुम नहीं गई थीं किसी पति के/जीवन की याचक बन''। इस तरह संग्रह में कई रंग और विषयवस्तु की कविताएं हैं, जिनमे प्रेम, संघर्ष, आशाएं हैं तो दु:ख भी हैं। दु:ख से यह लगाव अपनेपन की चाह ही है। संग्रह की कविताओं को उनके टोन के अनुसार शीर्षक देकर छ: अलग-अलग इकाइयों में विभाजित किया गया है।

संग्रह के शुरुआत में आलोक जी का वक्तव्य है जिसमें उन्होंने कविताओं के विषयवस्तु और समकालीन कविता के संदर्भ में अपनी कविताओं के बारे में कुछ बातें कही हैं। इसमें उन्होंने जोर दिया है कि ''ये कविताएं उसी तरह से अन्य प्रकाशित संग्रहों की भांति नितांत निजी धरातल से उपजी हैं''। आगे उनकी बातों से लगता है कि उन्हें अपनी कविताओं को केवल 'राजनीतिक' कहे जाने से आपत्ति है साथ ही इनमें 'सामयिकता' 'रचनाशीलता' पर आरोपित नहीं हैं,पर बल है। हमारी समझ से कवि की निजता सापेक्षिक होती है और वह समाज के अंदर ही होती है। इसी तरह से सामयिकता अपने आप मे कोई बुराई नहीं है, हां तात्कालिक भावाच्छेस से रचनाशीलता प्रभावित हो सकती है।

मगर ये सब 'तय करने' के लिए पाठक पर छोड़ देना चाहिए, कवि को इसके लिए व्यक्तव्य देने की आवश्यकता नहीं पड़नी चाहिए। विचारधारा के मामले में भी वे पिछली शताब्दी के 'विचारधाराओं' को नए शताब्दी के चुनौतियों के लिए अपर्याप्त मानते प्रतीत होते हैं। सच है कोई भी विचारधारा जड़ हो जाए परिवर्तनशील समाज के सापेक्ष अपने मे ज़रा भी बदलाव न लाए तो वह स्वभाविक रूप से अप्रासंगिक हो जाएगी लेकिन जो विचारधारा विकासमान हो, वैज्ञानिक प्रगति और सामाजिक परिवर्तन के अनुरुप अपनी दृष्टि गतिशील रखे, वह नई चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हो सकती है। बहरहाल ये कविताएं अपने समय और समाज के संकटों को पहचान रही हैं और उससे निजात पाने का रास्ता भी सुझाती हैं; साथ ही इसमे कवि की अपनी निजी शैली और भाषा स्पष्टतया दिखाई देती है।


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