कहां हैं कांग्रेस के सहयोगी?
एक ओर जहां अनेक मुद्दों पर कई संगठन और लोग देश की सड़कों पर उतरे हुए दिखाई दे रहे हैं

एक ओर जहां अनेक मुद्दों पर कई संगठन और लोग देश की सड़कों पर उतरे हुए दिखाई दे रहे हैं, वहीं फिलहाल सबसे ज्यादा पूछा जाने वाला यह है कि कांग्रेस के अलावा इंडिया गठबन्धन के सहयोगी दल कहां हैं? वे दिखलाई क्यूं नहीं दे रहे हैं? क्या वे सीटों के बंटवारे का इंतज़ार कर रहे हैं? अगर ऐसा है तो वे संयुक्त प्रतिपक्ष और उसके द्वारा लोकसभा के होने वाले चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को पटकनी देने की जो सोच रहे हैं, उसे दिवास्वप्न ही कहा जायेगा।
चुनाव भी ऐसा कि जिसके लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने बड़ा मायाजाल बुना है, जिसकी झांकी 22 जनवरी को अयोध्या के राममंदिर के भव्यमंदिर के साथ नज़र आएगी। इसके लिये देश की धर्मप्राण जनता अभी से सम्मोहित हो चुकी है। यह भी प्रतीत होता है कि विपक्षी गठबन्धन के ज्यादातर सदस्य यह मानकर निश्चिंत बैठे हैं कि 'एक के खिलाफ एक' का फार्मूला मात्र ही उन्हें जीत दिला देगा। ऐसा हुआ तो अच्छी बात है परन्तु सम्भवत: गठबन्धन के ज्यादातर सदस्य 'कोई भी कोर कसर न छोड़ना' वाला मुहावरा भूल रहे हैं और हिन्दी के फिसड्डी छात्र की तरह वाक्य में प्रयोग करने के भी इच्छुक नहीं है जिससे उनकी परिणति नाकाम छात्र जैसी सम्भावित है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी 14 जनवरी को अपनी भारत यात्रा-2 की पूरी तैयारियां कर चुके हैं। उनके साथ कदमताल करने के लिये उनकी पार्टी भी पूरी तरह सुसज्जित है। इस बार मार्च 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' के नाम पर होने जा रहा है जिसकी अंतिम तैयारियों का विवरण जयराम रमेश ने शनिवार को पत्रकारों के सामने रखा। उनके मुताबिक 15 राज्यों से गुजरने वाली यह यात्रा कुछ पैदल तो कुछ वाहनों से होगी- साम्प्रदायिक दंगों से झुलस रहे मणिपुर से शुरू होकर 20 मार्च, 2024 को मुंबई में समापन होगा। इस दौरान राहुल 15 राज्यों की 6200 किलोमीटर दूरी नाप चुके होंगे। इन राज्यों से तकरीबन 355 लोकसभा सीटें आती हैं। यह एक बेहद कष्टप्रद यात्रा होगी- 7 सितम्बर, 2022 से तमिलनाडु के कन्याकुमारी से निकलकर श्रीनगर के लाल चौक पर जब राहुल ने तिरंगा फहराया था, उससे भी कठिन। हालांकि आज का राजनैतिक परिदृश्य जो और जैसा है, उस पर इस यात्रा का ही प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रभाव कहा जा सकता है। जो इंडिया गठबन्धन आज अस्तित्व में दिख रहा है; और जिससे न केवल सहयोगी दल वरन पूरी अवाम आस लगाये बैठी है, वह भी राहुल-यात्रा का ही बाई प्रोडक्ट है।
इस बात से कोई शायद ही इंकार करेगा कि इंडिया गठबन्धन के वजूद में आने के बाद गैर-भाजपायी विचारधाराओं के हौसले बढ़े हैं जिसके कारण अनेक स्तरों पर केन्द्र सरकार के मनमानीपूर्ण फैसलों तथा ज्यादतियों के खिलाफ लोग या संगठन उतर रहे हैं। अब सवाल यह है कि जिस गठबन्धन के 28 सहयोगी हैं, उनमें केवल कांग्रेस ही क्यों दिखाई दे रही है? शेष साथियों की क्या जिम्मेदारियां हैं? क्या उन्हें केवल अपने हिस्से का चुनाव और उनके नसीब में आई लड़ाई लड़कर किनारे बैठ जाना है? अगर ऐसा है तो वे यह भूल रहे हैं कि गठबन्धन का अर्थ केवल सीट शेयरिंग नहीं होता बल्कि साझा कार्यक्रम होता है। सीट वितरण के फार्मूले बन्द कमरों में या पदाधिकारी परस्पर तय कर सकते हैं परन्तु साझा कार्यक्रम तो सड़कों पर ही आकार लेंगे।
यौन उत्पीड़न के मामले में शिकायत करने वाले पहलवानों की सुनी नहीं जाती और वे देश की राजधानी की सड़कों पर कुचले जाते हैं। व्यथित खिलाड़ी अपने मैडल और पुरस्कार प्रधानमंत्री की चौखट पर फेंक आते हैं। प्रियंका गांधी साक्षी मलिक के घर जाकर उन्हें दिलासा देती हुई दिखलाई देती हैं तथा जीरो विजिबिलिटी का निर्माण करने वाली उत्तर भारत की शीत लहर को चीरते हुए राहुल झज्जर के छारा गांव में बने अखाड़े में पहलवानों से यह कहने पहुंच जाते हैं कि 'आप का काम अखाड़े में मेहनत करने का है, सड़कों पर सरकार से लड़ना हमारा काम है।' इनके अलावा विपक्ष का कोई नेता इस मुद्दे पर सड़कों पर उतरने की ज़हमत नहीं उठाता है। बस-ट्रक ड्राइवरों की हड़ताल को कांग्रेस के अतिरिक्त समर्थन देने कितने दल सामने आये, यह भी सामने है।
जिस ईवीएम ने विपक्ष को विपन्न कर दिया है और जिसके नाम पर किसी भी तरह का आंदोलन करने से ज्यादातर राजनैतिक दल हिचक रहे हैं, उसे लेकर ऐसे लोगों ने मुहिम छेड़ रखी है जिनका कार्यक्षेत्र सियासत नहीं है। उनका इस घोटालेबाज मशीन से केवल इतना ही सरोकार है कि इसके जरिये उनके नागरिक अधिकार छीने जा रहे हैं। नुकसान में तो विपक्षी दल हैं परन्तु वे कुछ यूं दूर बैठकर तमाशा देख रहे हैं मानों ये आंदोलनकारी वकील (प्रशांत भूषण, महमूद प्राचा, भानुप्रताप सिंह आदि) और सिविल सोसायटी के लोग किसी दूसरे ग्रह की बात कर रहे हैं। सच तो यह है कि ये गैर-राजनैतिक लोग एक नाकारा विपक्ष के हिस्से की लड़ाई लड़ रहे हैं।
संसद की आवारगी के अगर आप सबसे बड़े शिकार हुए हैं तो सड़कों को गुंजायमान रखने की जिम्मेदारी भी आपकी ही है। अगर ऐसा करने में आपके पांव डगमगा रहे हैं, हाथ कांप रहे हैं और गला सूख रहा है, तो कम से कम उन लोगों को समर्थन तो दीजिये जिनके कदम सधे हुए हैं, हाथ इंकलाबी मुद्रा में हैं तथा आवाज में कतई कम्पन नहीं होता है। ये छोटे-छोटे लोग और उनके आंदोलन ही प्रतिरोध वाली विचारधारा के संवाहक हैं और आपको कांधों पर बिठाकर लोकसभा की दहलीज तक छोड़कर आयेंगे।


