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नगालैंड की राजनीति में कब होगा महिलाओं का दबदबा?

नगालैंड की सियासत फिर आधी आबादी की दखल से बची रह गई। राज्य के 54 साल के इतिहास में महिलाएं एक बार फिर इतिहास रचने से चूक गईं।

नगालैंड की राजनीति में कब होगा महिलाओं का दबदबा?
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नई दिल्ली। नगालैंड की सियासत फिर आधी आबादी की दखल से बची रह गई। राज्य के 54 साल के इतिहास में महिलाएं एक बार फिर इतिहास रचने से चूक गईं। इस बार सर्वाधिक पांच महिलाएं चुनावी अखाड़े में उतरी थीं, लेकिन एक भी जीत का स्वाद नहीं चख पाईं। आलम यह रहा कि अखोई सीट से उम्मीदवार अवान कोन्याक को छोड़कर बाकी चारों महिलाएं चौथे और पांचवें पायदान पर रहीं।

बड़ा सवाल यह कि राज्य में बीते 15 वर्षो से सत्ता सुख भोग रही नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) और महिला अधिकारों की पक्षधर कांग्रेस ने एक भी महिला उम्मीदवार को टिकट क्यों नहीं दिया? मात्र दो सीटें पाने के बावजूद सरकार बनाने का दावा कर रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने सिर्फ एक महिला उम्मीदवार को टिकट देकर खानापूर्ति कर लेना मुनासिब क्यों समझा?

राजनीतिक विश्लेषक पुष्पेश पंत कहते हैं, "नगालैंड का राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य अलग है। नगा समाज में माना जाता है कि राजनीति महिलाओं के लिए नहीं है। राजनीति को लेकर महिलाएं खुद ज्यादा सजग नहीं हैं, लेकिन अब स्थिति काफी हद तक सुधरी है। महिलाएं भी राजनीति में आना चाहती हैं, लेकिन समाज का ताना-बाना ही ऐसा है कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों को राजनीति में अधिक तरजीह दी जाती है।"

नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) ने सिर्फ दो महिलाओं को टिकट दिए, वहीं भाजपा ने सिर्फ एक महिला को टिकट देकर खानापूर्ति कर ली। राखिला को टिकट देने की वजह भी उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि रही। तुएनसांग सदर-2 सीट से चुनाव लड़ने वाली राखिला को 2,749 वोट मिले और वह तीसरे स्थान पर रहीं। राखिला इससे पहले 2013 का चुनाव भी लड़ी थीं और मात्र 800 वोटों से हार गई थीं।

एनपीपी ने जिन दो महिलाओं को टिकट दिए थे, उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा। दीमापुर-3 सीट से वेदीऊ क्रोनू को सिर्फ 483 वोट मिले, जबकि पार्टी के टिकट पर नोकसेन सीट से चुनाव लड़ीं डॉ.के मांगयांगपुला चांग को मात्र 725 वोट ही मिले।

नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के टिकट पर अबोई सीट से चुनाव हार चुकीं अवान कोन्याक को 5,131 वोटों मिले, जबकि चिझामी सीट से निर्दलीय उम्मीदवार रेखा रोज दुक्रू 338 वोटों से पांचवें स्थान पर रहीं।

नगालैंड की राजनीति में महिलाओं की पैठ न होने के बारे में माकपा नेता बृंदा करात ने आईएएनएस से कहा, "यही कारण है कि हम संविधान में संशोधन कर महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की मांग कर रहे हैं। रीति-रिवाजों के नाम पर नगा महिलाओं को राजनीति से दूर रखा जाता है। यहां तक कि मुख्यधारा की पार्टियां भी यहां महिलाओं को टिकट देने से कतराती हैं। नगालैंड में महिला आरक्षण को लेकर लोग सजग नहीं हैं।"

इन महिला उम्मीदवारों को मिले वोटों से साफ है कि पुरुष उम्मीदवारों की तुलना में इन्हें गिने-चुने वोट ही मिले हैं। राज्य में कुल 11 लाख 93 हजार मतदाता हैं, जिनमें से महिला मतदाताओं की संख्या छह लाख 89 हजार 505 है। इसका मतलब है कि महिलाओं ने भी महिला उम्मीदवारों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।

दिल्ली विश्वविद्यालय की पीएचडी छात्रा गुंजन यादव कहती हैं, "महिलाओं को भी चुनाव लड़ने के मौके मिलने चाहिए, उनकी भूमिका सिर्फ राजनीतिक झंडे उठाने तक सीमित नहीं रहनी चाहिए।"

नगालैंड देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां अभी तक एक भी महिला विधायक चुनकर विधानसभा तक नहीं पहुंची है।

इससे पहले 2012 में हुए चुनाव में दो महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया गया था, जबकि इससे पहले 2008 के चुनाव में पांच महिलाएं चुनाव लड़ी थीं, जीत नहीं पाईं।

साल 1977 में यूडीपी के टिकट पर चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचने वाली रानो शाइजा के बाद राज्य की एक भी महिला लोकसभा तो दूर, विधानसभा की दहलीज भी नहीं लांघ पाई।

महिला आरक्षण को लेकर मुख्यमंत्री टी.आर. जेलियांग को कुर्सी तक गंवानी पड़ी थी। उन्होंने महिलाओं को शहरी निकाय चुनावों में 33 फीसदी आरक्षण देने की कोशिश की थी, लेकिन राज्य में उनके खिलाफ जोरदार प्रदर्शन हुए और उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी।


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