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गला घोंटने वाले का ही जब गला घुटने लगे...

पिछले लगभग एक दशक से देश का नेतृत्व कर रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने व्यक्तित्व में समाये कई-कई विरोधाभासों एवं विसंगतियों का अनेक अवसरों पर परिचय दिया है

गला घोंटने वाले का ही जब गला घुटने लगे...
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- डॉ. दीपक पाचपोर

प्रधानमंत्री मोदी यह सचमुच जानना चाहते हैं कि उनका गला कैसे घोंटा गया है या वे ऐसा क्यों महसूस करते हैं तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश के उस वाक्य को याद करना होगा जिसमें उन्हेंने कहा था कि 'आलोचना प्रेशर कुकर की सीटी की तरह है। वह अगर न बजती रहे तो कुकर का फटना तय है।'

पिछले लगभग एक दशक से देश का नेतृत्व कर रहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने व्यक्तित्व में समाये कई-कई विरोधाभासों एवं विसंगतियों का अनेक अवसरों पर परिचय दिया है। मसलन, वे खुद को गरीब व ओबीसी का बतलाते रहे हैं परन्तु उनकी जीवन शैली ऐसी है जो अच्छे से अच्छे रईसों के ठाठ-बाट को भी लजा दे। वे संविधान की हिफ़ाजत की बात करते हैं लेकिन राजतंत्र के प्रतीक सेंगोल को सीने से लगाये रखते हैं। भारत को 'लोकतंत्र की जननी' कहेंगे परन्तु उसे कुचलने का सबसे अधिक काम उन्हीं के शासन काल में होता है। सकारात्मकता की बात करेंगे लेकिन उनके भाषणों में हर वक्त बीते समय को लेकर और कुछ लोगों-संगठनों के प्रति घृणा की अभिव्यक्ति होती है। उनके कार्यों व नीतियों में भी इसी विरोधाभास का परिचय मिलता है। एक ओर वे भारत को दुनिया की एक बड़ी इकानॉमी बताएंगे वहीं वे 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने की योजना को चालू रखे हुए हैं। भारत को विश्वगुरु बतलाते हैं पर बातें ऐसी करते हैं कि अज्ञानता भी यह कहकर लज्जित हो जाये, कि 'बस कीजिये मोदी जी! मेरी भी एक सीमा है।' हरि अनंता, हरि कथा अनंता की भांति पीएम के अनेक किस्से हैं। बहुत पुराने नहीं हैं।

ताज़ातरीन दृष्टांत इन सबसे ऊपर है। सोमवार को जब संसद का बजट सत्र प्रारम्भ हुआ तो उनकी नयी स्थापित की गयी परम्परा के अनुरूप श्री मोदी ने प्रेस के समक्ष अपने उद्बोधन में इस बात का दुखड़ा रोया कि 'ढाई घंटे तक देश के प्रधानमंत्री का गला विपक्ष ने घोंटा था।' उनका इशारा नयी सरकार के पहले सत्र की ओर था जिसमें संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा हुई थी। दरअसल इस सत्र में मोदीजी की भरपूर फ़जीहत हुई थी क्योंकि उनका '370-400' का नारा बुरी तरह से पिट गया था और जिस विपक्ष से मुक्तभारत की वे बात करते थे, वह पहले के मुकाबिल बहुत बड़े स्वरूप में उनके सामने बैठा हुआ था। जिस नेहरू खानदान को वे दिन-रात कोसते हैं और जिस राहुल गांधी को वे बहुत खराब शब्दावली से नवाज़ा करते हैं, वह लोकसभा में प्रतिपक्ष का नेता बनकर उन पर सवाल पर सवाल दाग रहे थे। राहुल के साथ अनेक और महत्वपूर्ण विपक्षी नेता भी उनके समक्ष बैठते हैं। यह स्थिति सोमवार से जारी बजट सत्र में है; और यह सरकार जब तक चलेगी तब तक रहेगी।

वैसे अगर इस बात पर कोई शायद ही यकीन करे कि मोदी का गला कोई घोंट सकता है। एक क्षण को मान लेते हैं कि उनका गला वाकई घोंटा गया है तो यह किसी भी देश के लिये बहुत चिंताजनक बात है। स्वयं मोदी जी के सोचने की बात है कि आखिर यह देश ऐसा कैसे बन गया जहां पीएम का भी गला घोंटा जा सकता है। अब तक तो कमजोर से कमजोर प्रधानमंत्री ने भी यह शिकायत नहीं की थी। वैसे तो किसी भी राष्ट्राध्यक्ष को यह कहने का अधिकार ही नहीं है कि वह अपना गला घोंटे जाने की शिकायत करे। उसका काम लोगों के घुटते गलों को आजाद कराना है। गरीबी से जिनके गले घुटे हैं, किसी भी तरह के भेदभाव से पीड़ित जिस अवाम का गला घोंटा गया है, अशिक्षा के कारण जो बोल नहीं पाते, जिनके अधिकार छीन लिये गये हैं- उन सब की आवाज ही राष्ट्रप्रमुख होता है। चूंकि ऐसे दबे-कुचलों को आवाज़ देने का काम संविधान का है, प्रधानमंत्री को उसकी रक्षा करना होता है। एक ऐसी व्यवस्था बनाना ही प्रधानमंत्री का उत्तरदायित्व है कि जिसमें किसी का गला न घुटे।

यदि प्रधानमंत्री मोदी यह सचमुच जानना चाहते हैं कि उनका गला कैसे घोंटा गया है या वे ऐसा क्यों महसूस करते हैं तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश के उस वाक्य को याद करना होगा जिसमें उन्हेंने कहा था कि 'आलोचना प्रेशर कुकर की सीटी की तरह है। वह अगर न बजती रहे तो कुकर का फटना तय है।' लोकतंत्र में सरकार की आलोचना इतनी ज़रूरी है कि यदि न होती रहे तो न केवल जनता और विपक्ष बल्कि स्वयं सत्ताधीशों का कुकर की तरह फट पड़ना लाजिमी है। आलोचना और उसका तर्कसंगत व तथ्यात्मक जवाब देने से अंदर की भाप निकलती रहती है जिससे लोकतंत्र सुरक्षित रहता है। इस सिद्धांत के विपरीत मोदीजी ने आलोचना के सारे रास्ते बन्द कर दिये हैं। सदन के भीतर वे विपक्ष का जवाब नहीं देते और बाहर वे खुली पत्रकार वार्ताएं या बातचीत नहीं करते जैसी कि सारे राष्ट्राध्यक्ष करते हैं। विपक्षी दलों के साथ किसी भी कार्यक्रम व नीतियों पर संवाद नहीं रखते। यहां तक कि खुद अपनी ही पार्टी के भीतर वे किसी मसले पर राय-मशविरा नहीं करते। ले-देकर केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह हैं जिनके साथ मिलकर फैसले होते हैं। नोटबन्दी होती है तो वित्त मंत्री को पता नहीं होता, नयी ट्रेनों को मोदी जब झंडी दिखाते हैं तो रेल मंत्री आसपास भी नहीं फटक सकते, हाईवे या फ्लाईओवर का उद्घाटन होता है तो सड़क परिवहन मंत्री देश के किसी दूसरे कोने में विचरण करते रहते हैं।

सच्चाई यह है कि आलोचना सुनने तथा उसका तार्किक जवाब देने से खुद सरकार का भी गला खुलता है- मोदी इस बात को नहीं समझ पाये क्योंकि उन्होंने विपक्षी नेता की कभी भी सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। ज्यादातर वे ऐसे संगठन में रहे जहां सवाल नहीं पूछे जाते। दूसरे, वे हमेशा सत्ता में रहे। पहले गुजरात के मुख्यमंत्री तथा बाद में प्रधानमंत्री। गुजरात में पहले उन्होंने उनके गले घोंटे जिन्होंने वहां भारतीय जनता पार्टी को खड़ा किया था; फिर उनके घोंटे जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी को बनाया और यहां तक लेकर आये हैं- लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी आदि।

फिर भी यदि मोदी को लगता है कि उनका गला घोंटा गया है, तो सम्भवत: उन्होंने इसकी पीड़ा को भी महसूस किया होगा। फिर तो उन्हें यह भी याद होगा कि वे पहले 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा दे रहे थे जो बाद में सम्पूर्ण 'विपक्ष मुक्त विपक्ष' के लक्ष्य में बदल गया। पैसों व जांच एजेंसियों के बल पर कई राज्यों की चुनी हुई सरकारों को गिराकर मतदाताओं के गलों को घोंटा गया। विपक्षी नेताओं की अंधाधुंध गिरफ्तारियां की गईं। पत्रकार, लेखक, मानवाधिकार कार्यकर्ता जेलों में डाले गये हैं जो देश का गला घोंटने से कमतर नहीं है। बहुमत के बल पर पिछली लोकसभा व राज्यसभा के लगभग 150 सदस्य निलम्बित किये गये थे। प्रमुख विपक्षी दल (कांग्रेस) के बैंक खाते सील कर दिये गये। बिना चर्चा के कई तरह के विवादास्पद कानून बनाने का काम भी मोदी जी के कार्यकाल में हुआ है। देश के किसानों से उनके उत्पादों से सम्बन्धित कानूनों पर बात करने की बजाये उन्हें चुपचाप लागू करना और उसका विरोध कर रहे किसानों को दिल्ली तक न पहुंचने देने के लिये उनके रास्तों में खाई खोदना, कीलें ठोंक देना और कड़कड़ाती ठंड में उन पर पानी की बौछारें करना गला घोंटने से कम तो नहीं है। विश्वविद्यालयीन छात्रों की मांगें हों या शाहीन बाग आंदोलन, मजदूरों के मामले हों या फिर आदिवासियों के- गले घोंटने की एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरने वाले देश का प्रधानमंत्री अपना गला घोंटने का आरोप लगायें तो उससे अधिक दुखद कुछ भी नहीं हो सकता।

इस वातावरण को खत्म करना तो आपके ही हाथ में ही, प्रधानमंत्री जी!
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)


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