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जब आस्था विवेक पर हावी होती है...

कभी कभी कुछ खत - भले ही उन्हें लिखें सदियां बीत गई हों, संदर्भ बदल गए हों - अचानक मौजूं हो जाते हैं।

जब आस्था विवेक पर हावी होती है...
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अब जबकि इस मोर्चे पर भाजपा खुद बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर हो रही है, और स्थिति की गंभीरता को छिपाने के तमाम प्रयास असफल हो रहे हैं तो उसने सबसे आसान रास्ता अख्तियार किया है, वह अचानक मौन हो गई है। अपनी लोकप्रिय छवि के विपरीत महामारी के दूसरी लहर की विभीषिका और सरकार का उसके लिए बिल्कुल तैयार न रहना, इसने जनाब मोदी के कथित 'मजबूत और निर्णायक नेतृत्व क्षमता की असलियत सामने ला रखी है।

कभी कभी कुछ खत - भले ही उन्हें लिखें सदियां बीत गई हों, संदर्भ बदल गए हों - अचानक मौजूं हो जाते हैं।
पिछले साल जब दुनिया कोविड महामारी की पहली लहर से जूझ रही थी, उन दिनों भी एक $खत अचानक सुर्खियों में आया, जो वर्ष 1527 में लिखा गया था। पत्र में मार्टिन ल्यूथर ने अपने ही संप्रदाय के एक अग्रणी को सलाह दी थी कि महामारी के दिनों में उन्हें क्या करना चाहिए। इतिहास बताता है कि यूरोप उन दिनों ब्युबोनिक प्लेग के गिरफत में था, जिसमें हजारों लोग मारे गए थे, यहां तक कि ल्यूथर को भी सलाह दी गई थी कि वह स्थानांतरण करें। इस $खत के अंश आज भी मौजूं लग सकते हैं जिसमें ल्यूथर व्यक्ति को क्या करना चाहिए या नहीं करना चाहिए इस पर अपनी राय प्रगट कर रहे हैं: ''मैं फिर धूमन करूंगा, हवा को शुद्ध करने की कोशिश करूंगा, दवा दूंगा और लूंगा। मैं उन स्थानों और लोगों से बचने की कोशिश करूंगा जहां मेरी मौजूदगी अनिवार्य नहीं है ताकि मैं खुद दूषित न हो जाऊं और फिर अपने तईं दूसरों को संक्रमित करूं और प्रदूषित करूं और इस तरह अपनी लापरवाही से किसी की मौत का कारण बनूं।

यह उम्मीद करना गैरवाजिब होगा कि मार्टिन ल्यूथर द्वारा अपने किसी सहयोगी/अनुयायी को लिखे इस $खत से जनाब तीरथ सिंह रावत, जो उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हैं, वाकिफ होंगे। अलबत्ता पिछले साल के अनुभव से वह इतना तो जरूर जानते होंगे कि किस तरह पूजा अर्चना के सार्वजनिक स्थान या धार्मिक समूहों-समागम वायरस के लिए सुपर स्प्रेडर अर्थात महाप्रसारक का काम करते हैं। उन्हें इतना तो जरूर याद रहा होगा कि किस तरह ज्ञात इतिहास में पहली दफा - मक्का से वैटिकन तक या काशी से काबा तक तमाम धार्मिक स्थल और समागम बंद रहे थे ताकि नए-नए दस्तक दिए वायरस के प्रसार को रोका जा सके।

काबिलेगौर है कि वह तमाम विवरण और यहां तक कि यह ह$कीकत कि किस तरह पिछले ही साल आस्था और उनके हिमायतियों को विज्ञान के लिए जगह बनानी पड़ी थी, उसकी बात माननी पड़ी थी, जब कोविड की पहली लहर खड़ी हुई थी ; जनाब रावत को यह दावा करने से रोक नहीं सके कि 'ईश्वर पर आस्था वायरस के डर को समाप्त कर देगी। उन्होंने महज यह दावा ही नहीं किया बल्कि उनके पूर्ववर्ती त्रिवेंद्र सिंह रावत, जो उनकी अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेता थे, की सरकार ने महाकुंभ को लेकर जो योजना बनाई थी, उसे भी परिवर्तित करने में संकोच नहीं किया। देश के अग्रणी अ$खबारों में पूरे पेज के विज्ञापन छपे जिसमें आस्थावानों को आह्वान किया गया कि वह इस दुर्लभ अवसर पर अवश्य पधारें। और इसे तब अंजाम दिया गया जब कोविड की दूसरी - अधिक $खतरनाक किस्म की- लहर ने भारत के दरवाजों पर दस्तक दी थीं। नतीजा सभी के सामने है।

कोविड पोजिटिव मामलों का कुंभ मेले के क्षेत्र में उछाल आया है जिसके चलते वह एक नया 'हॉटस्पॉटÓ बना है। जानकार बता सकते हैं कि यह कहानी का अंत नहीं है।
यात्री एवं साधु जो कुंभ से अपने-अपने घरों को लौटेंगे वह कोविड को लेकर मुल्क में चल रही $खराब स्थिति को और बदतर बना देंगे। यह अकारण नहीं कि मुंबई की मेयर ने ऐलान कर दिया है कि कुंभ से लौटने वाले कोविड का प्रसाद बांटेंगे और इसलिए उन्हें अपने-अपने खर्चे पर सेल्फ क्वारंटाइन रहना पड़ेगा। सवाल यह उठता है कि क्या मुख्यमंत्री महोदय इस पूरे प्रसंग को लेकर अपनी कोई नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करेंगे कि उनके आकलन की गलती से यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनी? संघ परिवार एवं उससे जुड़े सत्ताधारियों के आचरण पर गौर करने वाले बता सकते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होगा।

जब नोटबंदी जैसा कदम-जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को काफी नुकसान पहुंचाया - जो महज कुछ घंटों की सूचना के साथ लागू किया जा सकता है और बाद में उसे लेकर कोई आत्ममंथन तक नहीं दिखता; जब इसी तरह कोविड संक्रमण के फैलाव को रोकने के नाम पर राष्ट्रीय लॉकडाउन का ऐलान किया जा सकता है, और लोगों को अपने हाल पर छोड़ा जा सकता है और उसके बाद कोई आत्मअवलोकन नहीं होता ; तो कुंभ मेला के आयोजन को लेकर नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करने की बात भी वायवीय लगती है।

अग्रणी पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन नैतिक-एथिकल प्रश्नों से परे हट कर इस प्रसंग में एक दूसरा कानूनी मसला उठाते हैं. उनके मुताबिक नेशनल डिजेस्टर मैनेजमेण्ट एक्ट के तहत अगर कोई आपदा को लेकर झूठी अफवाह फैलाता है या उसकी तीव्रता को लेकर पैनिक की स्थिति निर्मित करता है तो यह आपराधिक कृत्य माना जाएगा। वह आगे बताते हैं कि 'यह अधिनियम उन लोगों की संलिप्तता के बारे में मौन रहता है जो लोगों को झूठी बातें बताते हैं, जिसके चलते लोग गाफिल हो जाते हैं कि आपदा कोई अधिक चिंता की बात नहीं है।

अब जबकि कुंभ मेले के कोविड संक्रमण स्थल में रूपांतरित होने की $खबर चल पड़ी है और सरकार को खुद झेंपना पड़ रहा है, भाजपा की तरह से अचानक सुर बदलते दिख रहे हैं। वैज्ञानिकों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए यह तो पहले से ही स्पष्ट था, लेकिन यह अब भाजपा के लिए ही स्पष्ट है कि न मां गंगा और न ही आस्था की दुहाई उसे कोविड के प्रकोप से बचा सकती है। भाजपा के इस यू टर्न को प्रधानमंत्री मोदी ने ही गोया जुबां दी जब उन्होंने कहा कि अब कुंभ में उपस्थिति प्रतीकात्मक होनी चाहिए। विडंबना ही है कि इस बात का एहसास करने में भाजपा को खुद को ही इतना समय लगा है, जिसकी कीमत आम जनता को और चुकानी पड़ेगी। निश्चित ही यह ऐसा कोई तथ्य नहीं है जिसके बारे में इतना वक्च जाया करना चाहिए थे।

स्पष्ट है कि अगर भाजपा ने अपने आप को विधानसभा के चुनावों में किस तरह जीत हासिल की जाए इस बात पर केंन्द्रित नहीं किया होता तो मुमकिन है कि आम लोगों की जिंदगियां के बारे में सोचती और फिर कुंभ के प्रतीकात्मक करने को लेकर फैसला लेती। अब यही उजागर हो रहा है कि किसी भी सूरत में चुनावों को जीतना या सरकारों का गठन करना, यह बात फिलवक़्त भाजपा के मनोमस्तिष्क में इतनी हावी दिख रही है कि उसे लगता है कि ऐसी जीतें शासन-प्रशासन की उसकी खामियों पर आसानी से परदा डाल देंगी। बहुत सरल तर्क है: चुनावों में जीत इस बात का प्रमाण है कि हम लोकप्रिय हैं और व्यापक समर्थन प्राप्त किए हुए हैं।

कोविड के ता•ो आंकड़े बताते हैं कि रोजाना के केस 2.34 लाख पहुंच चुके हैं- और भारत में कोविड संक्रमितों की संख्या अब तक 1.45 करोड़ हो चुकी है। यह $खबरें भी बार-बार अलग-अलग जगहों से आ रही हैं कि जीवनदायी दवाओं की भारी कमी हो गई है और न ही वैक्सिन के स्टॉक्स उपलब्ध हैं कि व्यापक पैमाने पर टीकाकरण की मुहिम को चलाया जाए। मरीजों की संख्या इस कदर बढ़ती जा रही है कि दिल्ली के अस्पतालों में भी एक बेड पर दो-दो मरीज कहीं-कहीं दिख रहे हैं और बेड कम पड़ रहे हैं। ऑक्सीजन की आपूर्ति भी पर्याप्त मात्रा में नहीं हो रही है। यह बिल्कुल स्पष्ट हो रहा है कि तैयारियों के लिए एक साल से अधिक मिलने के बावजूद सरकार आवश्यक ची•ाों का प्रबंधन करने में नाकाम रही है।
कोविड प्रबंधन को लेकर सरकारी दावों और ह$कीकत में जमीन-आसमान का अंतर दिख रहा है।
इस प्रष्ठभूमि में क्या यह कहना उचित होगा कि कोविड से संक्रमित लोग कोविड के चलते नहीं बल्कि व्यवस्थागत बेरूखी और बदइंतजामी के चलते मर रहे हैं। पता नहीं आज जब पूरी दुनिया की फार्मसी कहलाने वाला भारत- जो कुछ माह पहले तक दुनिया में वैक्सीन निर्यात में भी मुब्तिला था- आज अचानक जब वैक्सीन का आयातक देश बन गया है, और तमाम जीवनावश्यक दवाओं के लिए भी औरों का मुंह ताक रहा है तो भाजपा एवं उसके हिमायती अब क्या सोचते हैं। दिलचस्प है कि अब जबकि इस मोर्चे पर भाजपा खुद बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करने के लिए मजबूर हो रही है, और स्थिति की गंभीरता को छिपाने के तमाम प्रयास असफल हो रहे हैं तो उसने सबसे आसान रास्ता अख्तियार किया है, वह अचानक मौन हो गई है।

अपनी लोकप्रिय छवि के विपरीत महामारी के दूसरी लहर की विभीषिका और सरकार का उसके लिए बिल्कुल तैयार न रहना, इसने जनाब मोदी के कथित 'मजबूत और निर्णायक नेतृत्व क्षमता की असलियत सामने ला रखी है। विश्लेषकों का मानना है कि आजादी के बाद के सबसे अक्षम प्रशासकों में उन्हें शुमार किया जा सकता है। क्या यह कहना मुनासिब होगा कि आस्था पर टिकी सियासत इतना ही दूर आपको ले जा सकती है वह निश्चित ही एक बहुआस्थाओं वाले समाज में, जहां 'हम और 'वे की बातें आसानी से इस्तेमाल की जा सकती हैं, आपको चुनाव जीताने में मदद कर सकती हैं; एक आधुनिक मुल्क में जहां आधुनिक संस्थाएं भी कायम हैं - अलबत्ता जहां समाज अभी पूरी तरह आधुनिक नहीं हुआ है- वहां आप बहुत पहले भुला दिए गए अपमानों, बहिष्करणों को आधार बना कर बहुमत भी गठित कर सकते हैं; लेकिन इससे इस बात की गारंटी नहीं हो जाती कि समाज एवं मुल्क के निर्माण के लिए आप के पास कोई रणनीतिक दूरदृष्टि भी है।

सुभाष गाताडे


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