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मोहन भागवत ने जो कहा और जो नहीं कहा

सरकार गठन और मोदी का परिवार खत्म होने की हलचलों के बीच एक महत्वपूर्ण घटना और घटी

मोहन भागवत ने जो कहा और जो नहीं कहा
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- सर्वमित्रा सुरजन

सरकार गठन और मोदी का परिवार खत्म होने की हलचलों के बीच एक महत्वपूर्ण घटना और घटी। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने नागपुर में दिए एक भाषण में कुछ ऐसी बातें कहीं, जिनके बाद यह कहा जाने लगा कि संघ और भाजपा के बीच दरार और बढ़ गई है। दरअसल मोहन भागवत ने मणिपुर में एक बरस से अधिक वक्त से जारी हिंसा का समाधान ढूंढने और शांति बहाली पर जोर दिया।

एनडीए सरकार के गठन को जुम्मा-जुम्मा आठ दिन भी नहीं हुए कि अभी से इसमें बिखराव की खबरें आने लगीं हैं। तेदेपा और जदयू जैसे दलों के सहारे इस बार की एनडीए सरकार खड़ी हुई है। इसलिए इन दलों को मोदी की बैसाखी कहा जा रहा है। एक भी बैसाखी अलग हुई नहीं कि सरकार लड़खड़ा जाएगी या गिर जाएगी, यह राजनीति के जानकारों का कहना है। इसमें कुछ गलत भी नहीं है, क्योंकि अतीत में एनडीए सरकार के साथ ऐसा हो चुका है। अटल बिहारी वाजपेयी भी तीन बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं, लेकिन तीन में से दो बार उनकी सरकार गिर गयी थी, एक बार 13 दिन और एक बार 13 महीने में। केंद्र और राज्यों में कई उदाहरण मौजूद हैं, जब गठबंधन सहयोगियों के अचानक अलग हो जाने के कारण अच्छी-खासी चल रही सरकार गिर गई और सत्ताधारियों को विपक्ष में बैठना पड़ा। बिहार इसका ताजातरीन उदाहरण है, जहां नीतीश कुमार ने इंडिया गठबंधन को झटका देकर भाजपा का साथ दे दिया। हरियाणा में भी ऐसा होने के कयास लग रहे थे, लेकिन वहां अब तक भाजपा की सरकार कायम है। पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर अब केन्द्रीय मंत्रिमंडल का हिस्सा बन गए हैं। वे संघ के दिनों के नरेन्द्र मोदी के साथी हैं, लिहाजा उन्हें यथोचित सम्मान मिल गया। इसी तरह शिवराज सिंह चौहान को जब मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया और उसके बाद लोकसभा चुनाव के लिए प्रत्याशी बनाया गया, तो सवाल उठने लगे थे कि आखिर इसके पीछे क्या रणनीति है। संघ की शाखाओं में दीक्षित शिवराज सिंह चौहान भारी मतों से जीत कर संसद पहुंचे और अब वे भी मंत्रिमंडल में सुशोभित कर दिए गए हैं।

तीसरी बार भाजपा नेतृत्व में गठित एनडीए सरकार में संघ का क्या प्रभाव है, यह बात इन दो उदाहरणों से समझी जा सकती है। गठबंधन के साथी नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू, चिराग पासवान, जीतनराम मांझी या रामदास अठावले इस प्रभाव से अनजान हों, ऐसा भी नहीं है। लेकिन उन्हें भी शायद अब तक इससे तकलीफ नहीं है, क्योंकि सत्ता में बने रहने के लिए जो थोड़ा बहुत सामंजस्य बिठाना पड़ता है, समझौते करने पड़ते हैं, वे दोनों तरफ से किए जा रहे हैं। हालांकि कब तक आपसी समझदारी दिखाई जाती रहेगी, यह सवाल अब भी अनुत्तरित ही हैं।

बहरहाल, सत्ता गठन के लिए किए गए समझौतों की इस पृष्ठभूमि में संघ के प्रभाव के साथ-साथ उसके उद्देश्यों को समझना कठिन नहीं है। हाल ही में कुछ ऐसे वाकये हुए हैं, जिनसे इस बात को थोड़े और खुलासे के साथ समझा जा सकता है। नरेंद्र मोदी ने चुनावों में जनता के समर्थन के लिए मंगलवार को आभार व्यक्त करते हुए सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर लिखा कि वे अपने सोशल मीडिया प्रोफाइल से 'मोदी का परिवार' का नारा हटा लें। गौरतलब है कि लालू प्रसाद ने जब परिवार के महत्व पर अपने भाषण में नरेन्द्र मोदी को घेरते हुए कहा था कि अपनी मां के देहांत के बाद भी उन्होंने बाल नहीं मुंडवाए थे, तो इसके जवाब में श्री मोदी ने पूरे भारत के लोगों को अपना परिवार बताया था और फिर भाजपा नेताओं समेत कई मोदी समर्थकों ने सोशल मीडिया में अपनी पहचान में मोदी का परिवार लिखना शुरु कर दिया था। अब नरेन्द्र मोदी उन्हें इस पहचान को खत्म करने के लिए कह रहे हैं। यह काफी अजीब बात है कि कोई परिवार किसी मकसद के पूरा हो जाने के बाद खत्म करने के लिए कहा जाए। क्या सनातनी संस्कृति को मानने वाले इस बात से सहमत होंगे कि परिवार कांट्रैक्ट के आधार पर बने और फिर खत्म भी हो जाए।

राजनीति में कुछ भी अकारथ नहीं होता, इसलिए नरेन्द्र मोदी की इस अपील के पीछे असल मकसद क्या है, यह शायद भविष्य में पता चले। एक अन्य आश्चर्य वाली बात यह है कि भाजपा की आधिकारिक वेबसाइट में मार्गदर्शक मंडल विभाग में चार तस्वीरें हैं, जिनमें सबसे पहली तस्वीर नरेन्द्र मोदी की है, फिर लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी और फिर राजनाथ सिंह। 2014 में जब मार्गदर्शक मंडल बना था, तब भी नरेन्द्र मोदी और राजनाथ सिंह का नाम तो इनमें शामिल था, लेकिन इसका उल्लेख कभी नहीं किया जाता था। जिनकी आयु 75 पार की हो गई है, वे इसमें शामिल होंगे, यह सामान्य समझ थी। श्री मोदी अगले बरस 75 के होंगे और राजनाथ सिंह उनसे एक साल छोटे हैं। फिर इन दो नेताओं की तस्वीरें किसलिए भाजपा के मार्गदर्शक मंडल में शोभायमान हो रही हैं, यह भी चर्चा का विषय है।

सरकार गठन और मोदी का परिवार खत्म होने की हलचलों के बीच एक महत्वपूर्ण घटना और घटी। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने नागपुर में दिए एक भाषण में कुछ ऐसी बातें कहीं, जिनके बाद यह कहा जाने लगा कि संघ और भाजपा के बीच दरार और बढ़ गई है। दरअसल मोहन भागवत ने मणिपुर में एक बरस से अधिक वक्त से जारी हिंसा का समाधान ढूंढने और शांति बहाली पर जोर दिया, इसके अलावा उन्होंने कुछ ऐसी बातें कहीं, जिनसे आभास हुआ कि ये सब नरेन्द्र मोदी को नसीहत देने के लिए कहा गया है। जैसे, श्री भागवत ने कहा कि एक 'सेवक' को अपने काम पर गर्व होना चाहिए, लेकिन उसे 'असंबद्ध' और 'अहंकार से रहित' होना चाहिए। यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवकों को नसीहत है या खुद को देश का प्रधानसेवक कहने वाले श्री मोदी को, यह स्पष्ट नहीं किया गया। फिर चुनाव परिणामों को सहजता से स्वीकार करके, उसके विश्लेषण के चक्कर में न पड़ने की राय देते हुए मोहन भागवत ने कहा कि चुनावों को 'युद्ध' की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। संघ हर चुनाव में जनमत को परिष्कृत करने का काम करता है और वह परिणामों के विश्लेषण में नहीं उलझता। संभवत: मोहन भागवत का आशय यह था कि श्री मोदी कितने वोट से हार से बच गए और भाजपा की कहां, कितनी सीटें कम हुईं, या राम मंदिर का मुद्दा काम क्यों नहीं आया, हिंदुत्व की धार भोथरी क्यों पड़ी, इस पर माथापच्ची करने से बेहतर है कि संघ जिस तरह जनमत को परिष्कृत यानी जनता की मानसिकता को प्रभावित करने का काम उसे पूर्ववत करता रहे, बल्कि उसमें तेजी लाए, ताकि इस बार जो कसर रह गई, वो अगली बार पूरी हो जाए।

ध्यान रहे कि अगले साल यानी 2025 में संघ की स्थापना के सौ बरस पूरे हो रहे हैं। जिस भारत को बनाने में संघ का कोई योगदान नहीं रहा, उसकी आजादी के 75 बरस को जब श्री मोदी ने राजनैतिक फायदे के लिए इतना भुनाया, वो भला संघ की शताब्दी के अवसर को सूखे में कैसे जाने दें। इसलिए अभी से संघ और नरेन्द्र मोदी इसकी तैयारी कर रहे हैं, यह मान ही लेना चाहिए। वैसे भी संघ इसकी तैयारी बहुत पहले से कर रहा है। अक्टूबर 2022 में उप्र में संघ की चार दिन की अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक हुई थी, जिसमें संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने बताया था कि '2024 के अंत तक देश के सभी मंडलों में शाखा पहुंचाने की योजना बनाई गई है, इसके अलावा संघ कार्य को लेकर समय देने के लिए देशभर में तीन हज़ार युवक शताब्दी विस्तारक के लिए निकल चुके हैं और एक हज़ार शताब्दी विस्तारक और निकलने वाले हैं।'

यह बात दो साल पहले की है, तो इसका मतलब कम से कम पांच-सात हजार विस्तारक यानी पूर्णकालिक प्रचारक की जगह अपने काम के साथ-साथ संघ का प्रचार करने वाले लोग देश भर में निकले होंगे। राम मंदिर के उद्घाटन से पहले हर घर अक्षत बांटने का काम ऐसे ही नहीं हुआ है।

इसलिए जे पी नड्डा का बयान कि भाजपा को अब संघ की जरूरत नहीं है, या मोहन भागवत की मणिपुर और चुनाव को लेकर दी गई ताजा नसीहत या यह मानना कि इस बार भाजपा की सीटें कम हुईं क्योंकि संघ ने उसका साथ नहीं दिया, दरअसल एक छलावे से अधिक कुछ नहीं है। कार्पोरेट की मदद से नरेन्द्र मोदी को 2014 में सत्ता पर बिठाने में संघ ने सफलता हासिल की। उसके बाद राम मंदिर उद्घाटन, काशी-मथुरा पर नए सिरे से माहौल बनाना, जम्मू-कश्मीर से 370 का खात्मा और सांप्रदायिक वैमनस्य की खाई को और चौड़ा करने तक अपने कई एजेंडो को संघ ने पूरा किया। इन्हीं दस सालों में नाथूराम गोडसे को महान बताने वाले संसद पहुंचे। गोडसे और सावरकर पर फिल्में बनाकर जनमत को परिकृष्त करने का काम भी हुआ। गांधी के चश्मे को स्वच्छता अभियान के कचरे में डाल दिया गया और नरेन्द्र मोदी ने एक बार भी गोडसे मुर्दाबाद नहीं कहा। इसका मतलब यही है कि संघ अब भी सत्ता में बैठे लोगों के लिए पहले जितना ही प्रासंगिक है।

अपने भाषण में मोहन भागवत ने ये भी कहा कि पिछले 10 सालों में बहुत सारी सकारात्मक चीज़ें हुई हैं हमने अर्थव्यवस्था, रक्षा रणनीति, खेल, संस्कृति, प्रौद्योगिकी आदि जैसे कई क्षेत्रों में प्रगति की है। और साथ में डॉ. आंबेडकर को याद करते हुए कहा कि उन्होंने कहा था, किसी भी बड़े परिवर्तन के लिए आध्यात्मिक कायाकल्प आवश्यक है।

मोहन भागवत ने क्या कहा और लोगों को क्या समझाना चाहा, यह सब गड्ड-मड्ड है। लेकिन संघ का हिंदू राष्ट्र वाला उद्देश्य तो जनता जानती ही है। जिन लोगों ने गणेशजी को दूध पिलाने की अफवाह में एक झटके में पूरे देश को लपेट लिया था, उनके लिए अपने मकसद को जनता के बीच फैलाना क्या मुश्किल होगा। बस अबकी बार जनता को और सावधान रहने की जरूरत है। क्योंकि जिस संविधान और लोकतंत्र को इस बार बचा लिया गया, अब उसकी रक्षा करना और ज्यादा जरूरी हो गया है, इस बार पंजे, नाखून सब छिपे हुए हैं।


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