ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
बात तो अच्छे दिनों की हुई थी, लेकिन नौबत आ गई औकात पूछने और बताने की

- सर्वमित्रा सुरजन
आज तो ऐसा कोई कह ही नहीं सकता, क्योंकि आज तो गुफ्तगू का अंदाज ही यही है। संसद में सांसदों ने सवाल पूछने की जब भी गुस्ताखी की, उन्हें उसकी सजा मिली। पहले एक-दो, सांसदों का निलंबन होता था, अब एक साथ आधी से अधिक संसद को साफ कर दिया गया। सवाल पूछने वाले चिल्लाते रह गए ये कौन सा अंदाज है, जवाब में राष्ट्रधर्म, देशसेवा, लोकतंत्र, मर्यादा जैसे शब्दों के तीर छोड़ दिए गए।
बात तो अच्छे दिनों की हुई थी, लेकिन नौबत आ गई औकात पूछने और बताने की। हिट एंड रन पर बने नए कानून के विरोध में देश के कई राज्यों की तरह मध्यप्रदेश में भी ट्रक ड्राइवरों ने हड़ताल की थी और हड़तालियों से चर्चा के दौरान एक जिलाधिकारी ने कानून व्यवस्था बनाए रखने की नसीहत देते हुए एक ड्राइवर से कह दिया कि तुम्हारी औकात क्या है। बदले में ड्राइवर ने भी कह दिया कि हमारी कोई औकात नहीं है, इसलिए हाथ जोड़ कर विनती कर रहे हैं। मामले ने सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद तूल पकड़ा तो अब उन जिलाधिकारी को पद से हटा दिया है। मुख्यमंत्री मोहन यादव ने कहा कि- 'अधिकारी का ऐसी भाषा बोलना उचित नहीं है। ख़ासकर ये सरकार तो गरीबों की सरकार है।' मनुष्यता के नाते हमारी सरकार में ये भाषा स्वीकार नहीं है। मोहन यादव ने ये भी कहा कि मैं खुद मजदूर परिवार से निकला हुआ बेटा हूं।
अच्छा है कि ये बात नयी सरकार के लिए मुसीबतें बढ़ाती, इससे पहले ही संभाल ली गई। लेकिन सवाल तो यह भी है कि क्या दूसरों का दर्द समझने के लिए राज्य के मुखिया का मजदूर का बेटा होना और देश के मुखिया का चायवाला होना जरूरी है। सरकार को ये प्रचारित करने की जरूरत क्यों होती है कि हमारी सरकार गरीबों की सरकार है। अगर सत्ता संविधान के मुताबिक चले और सरकारें लोककल्याण को सर्वप्रथम रखकर काम करें, तो इस तरह की खोखली बातों की जरूरत ही नहीं होगी। न ही फिर ऐसी भाषा बोलने की हिम्मत सत्ता और धन की शक्ति से संपन्न लोगों को होगी। मगर आज की कड़वी सच्चाई यही है कि हिट एंड रन पर नए कानून बनाने वाली सरकार हिट और स्टे की तर्ज पर काम कर रही है। गरीबों को, आम लोगों को, रोजाना कई तरह से हिट किया जा रहा है, फिर उन्हें उनकी औकात याद दिलाते हुए बताया जा रहा है कि अच्छे दिन आएंगे।
बहुत से लोग इन्हीं अच्छे दिनों के लिए बरसों से जुटे हुए थे। उन्हें पता था कि धर्म और मुफ्त की चीजें, इन दो बातों का नशा हिंदुस्तान की जनता पर कितना असर करता है। उनकी दूरंदेशी रंग लाई। अब जिन लोगों के अच्छे दिन हैं, वो बाकी लोगों से पूछ रहे हैं कि बताओ तुम्हारी औकात क्या है। सवाल पूछने की तुम्हें हिम्मत कैसे हुई। ऐसा ही सवाल तो गालिब से भी किया गया है। लेकिन आज गालिब की तरह जवाब देने वालों के मुंह बंद कर दिए गए हैं। गालिब ने कह दिया था-
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है।
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है।।
आज तो ऐसा कोई कह ही नहीं सकता, क्योंकि आज तो गुफ्तगू का अंदाज ही यही है। संसद में सांसदों ने सवाल पूछने की जब भी गुस्ताखी की, उन्हें उसकी सजा मिली। पहले एक-दो, सांसदों का निलंबन होता था, अब एक साथ आधी से अधिक संसद को साफ कर दिया गया। सवाल पूछने वाले चिल्लाते रह गए ये कौन सा अंदाज है, जवाब में राष्ट्रधर्म, देशसेवा, लोकतंत्र, मर्यादा जैसे शब्दों के तीर छोड़ दिए गए। बता दिया गया कि जब औकात दिखाने की बारी आती है तो किसी को नहीं बख्शा जाता है।
महिला पहलवानों को भी इसी तरह औकात दिखाई गई। इंसाफ के नाम पर पहलवानों ने पहले धरने-प्रदर्शन का रास्ता चुना, सोचा होगा कि इस लोकतांत्रिक देश में ऐसे प्रदर्शनों से सत्ता की जड़ें पहले हिल चुकी हैं, तो अब भी ये तरीका असर करेगा। लेकिन पहलवान तो केवल कुश्ती के अखाड़े के नियम जानते हैं, उन्हें सियासी दांव-पेंचों का अंदाज भी नहीं है। सो पहलवानों को सियासी भाषा में उनकी औकात दिखा दी गई। चाहे किसी ने रोते हुए कुश्ती से संन्यास का ऐलान किया या किसी ने प्रधानमंत्री निवास के सामने अपने पुरस्कार रख दिए। उनके विरोधों का असर वैसा ही हुआ, जैसे कमल के पत्तों पर से पानी की बूंद फिसल जाती है। यौन शोषण के आरोपी को अब भी संसद के भीतर ठहाके लगाने की छूट मिली हुई है। ऐसे ही बीएचयू की छात्रा के आरोपी भी बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे की औकात दिखा गए। वो संसद तक अभी नहीं पहुंचे हैं, लेकिन रास्ता तो तैयार हो ही गया है।
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में हुई सामूहिक दुष्कर्म के तीन आरोपियों को गिरफ्तार करने में पुलिस को 60 दिन लग गए। जहां मामूली लोगों की गलती पर या केवल उनके धर्म या जाति के आधार पर बुलडोजर को पहुंचने में 60 घंटे भी नहीं लगते, वहां दो महीने तक सामूहिक बलात्कार करने वाले खुले घूमते रहे और इस बीच न जाने कितनी और लड़कियां उनकी निगाह में आ गई होंगी। नवंबर-दिसंबर के बीच पांच राज्यों में चुनाव भी हुए तो भाजपा आईटी सेल के पदाधिकारी होने के नाते उन्होंने पार्टी का काम भी किया ही होगा। ये आरोपी जानते हैं कि अभी यूपीए सरकार नहीं है, जहां निर्भया कांड के बाद प्रधानमंत्री से लेकर पूरी सरकार को लोगों ने जिम्मेदारी का अहसास दिलाते हुए कटघरे में खड़ा कर दिया था। अभी तो भाजपा सत्ता में है, जहां औकात बताने का काम सत्ता में बैठे लोग करते हैं। इन आरोपियों ने दस सालों में इसी बात का तो प्रशिक्षण लिया होगा कि अल्पसंख्यकों को, गरीबों को, लड़कियों को, भाजपा के विरोधियों को उनकी औकात कैसे दिखाई जाए।
औकात दिखाने के कुछ और उदाहरण हाल में और सामने आए हैं। रेलवे स्टेशन पर बने मोदी सेल्फी प्वाइंट पर सवा छह लाख रूपए खर्च हुए, ये जानकारी सूचना के अधिकार के तहत जिस अधिकारी ने दी, उसे उसकी औकात बताते हुए उसका तबादला कर दिया गया। जल्दी ही बाकी संवैधानिक अधिकारों की औकात भी देश को बता दी जाएगी। अडानी समूह पर सवाल उठाने वालों को भी उनकी औकात से परिचय कराया जाता रहा है, अब हिंडनबर्ग मामले में एसआईटी की जांच से सर्वोच्च अदालत ने इंकार कर दिया है। एक बार फिर औकात का आईना देश को देखने मिल गया। सोशल मीडिया पर याद दिलाया गया कि ठीक दस साल पहले 3 जनवरी 2014 को इस देश में प्रधानमंत्री की आखिरी प्रेस कांफ्रेंस हुई थी। जिसमें सौ से अधिक सवाल पत्रकारों ने पूछे थे और तब के प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह ने उनके जवाब दिए थे। उस समय पत्रकार सरकार को उसकी पहचान और काम याद दिलाते थे, अब सरकार ने पत्रकारों को उनकी औकात बता दी है कि तुम केवल यही पूछ सकते हो कि आप थकते कैसे नहीं हैं। इससे ज्यादा सवाल पूछने की हिमाकत किसी ने की तो फिर ईडी, आईटी याद दिलाए जाते हैं।
सरकार से सवाल करने की जुर्रत तो अब शायद भगवान भी नहीं कर सकते। बरसों से टेंट में रखे रामलला को भी अच्छे दिनों का ख्वाब दिखाया गया था कि हम मंदिर वहीं बनाएंगे, फिर तुमको वहां बिठाएंगे। अब रामलला को भी अच्छे दिनों का अहसास हो गया। क्योंकि उन्हें तो अब उत्सव मूर्ति के तौर पर नए मंदिर में रखा जाएगा, लेकिन भक्तों की पूजा के लिए नयी भव्य मूर्ति बनाई गई है, जिसकी प्राण प्रतिष्ठा अच्छे दिनों के दाता करने वाले हैं। अच्छे दिनों का सच अब असली वाले रामलला भी समझ गए, बस जनता को समझना बाकी है।
हालांकि औकात पूछने वालों को आईना दिखाने की औकात अभी इस देश के कई तबकों में बाकी है। तीन कृषि कानूनों पर पहले सरकार ने बार-बार किसानों को उनकी औकात याद दिलाई थी, लेकिन साल भर में ही कानून वापस लेने पड़े। अब वही हाल ड्राइवरों के आगे सरकार का हुआ है। दो दिन की हड़ताल ने सरकार को अहसास करा दिया कि इस बार चक्के थमे तो शायद सत्ता की गाड़ी आगे न बढ़े। ड्राइवरों ने फिर गालिब की याद दिला दी-
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल।
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।।


